Sunday, May 2, 2010

नास्तिकता मेरी नज़र से


व्यक्तिगत विचारों की अभिवयक्ति के लिए जब मौका हाथ आता है तो अपने बारे में बातें करना सच में अच्छा लगता है वैसे भी मैं अपनी ही फोटो को घंटों निहारने वालों में से हूँ! आत्म-मुद्धता का ऐसा शिकार की अपने तेज के सामने हर किसी का तेज मद्धिम लगता है मेरे नास्तिक विचारों को खाद यहीं से मिलती होगी शायद  (मतलब साफ़ है मै अपना बखान करने वाला हूँ)
 इसके पहले की पोस्ट में जो बहस हो रही थी उसे पढ़ते हुए अजीब लगरह था की अब आस्था को वैज्ञानिक और तार्किक कैसे कहा जा सकता है! आस्था अंधी होती है और होनी भी चाहिए उसे तर्क की आवश्यकता नहीं! और आस्था को तर्क के ज़रीय अभिवयक्त कैसे किया जा सकता है! आस्था की शुरुआत वहीँ होती है जहाँ अँधेरा हो और जैसे जैसे उजाला होगा चीजें साफ़ होती जायेंगी अब अँधेरे में काल्पनिक कृतियाँ बना कर कोई उसके ठोस होने का तर्क कैसे दे सकता है सही है की तर्क या विज्ञान अभी बहुत सारी चीजों को नहीं समझ पाया है! अब ज़मीन परिकर्मा करती है कहने वाला आज की दुनिया में होता तो क्या भला बेचारा मारा जाता!
ऐसा कभी कभी हमें खुद भी अहसास होता है जैसे मुझे अक्सर परेशानी हुयी की आदमी का पूर्वज कौन है आदम या बन्दर! स्कूल में बन्दर तो घर पर आदम और ऐसी ही कई बातें अक्सर परेशान करती रहीं थी मगर किस्मत अच्छी थी की मुझे बचपन में ही बिगड़ने वाला  बंद मिल गया था! मेरे मौलवी साहब बड़े मस्त आदमी थे और सच कहूँ तो वैसा इंसान आजतक नहीं टकराया! माँ बाप जिस बन्दे को मुझे धर्म पढ़ाने के लिए रखा था वास्तव में उसने मेरी ज़िन्दगी का रास्ता बदल दिया! अपने मौलवी साहब "मुगल-ए-आज़म" काहे जाते थे अपनी नफासत के लिए और बहुत बड़े आलोचक दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी आलोचना वो नहीं कर सकते हों और पुरे तर्क के साथ एक जनवादी मैंने पूछा भी था की आप नक्सली तो नहीं (मैं बिहार के गया से हूँ और उस समय नक्सालियों ने मेरे रिश्ते के मामू की हत्या कर दी थी जब वो मुझे मेरे घर छोड़ कर वापस लौट रहे थे सो नक्सालियों को जानता था और उनसे नफरत भी करता था) वही अजीब अजीब बातें करते हैं! खैर मैंने पूछा की हमारे पूर्वज कौन हैं वो बोले आदम मैंने कहा बन्दर क्यों नहीं उन्होंने कहा की यार आदम के पूर्वज कौन हैं ये मैंने नहीं बताया! अब मै समझा उत तेरी मतलब हमारे पूर्वज आदम और आदम के पूर्वज बन्दर वाह ये सही है उन्होंने कहा की हो सकता है की यही हो मगर तुम पता करो ज्यादा पढ़ो!  उनका अपना फंडा था विचार की परंपरा से  मत बंधो जानो जितना ज्यादा हो सके! इंसान की ज़िन्दगी दुनिया को खुबसूरत बनाने के लिए है! जड़ता से अलग होना और निरंतरता ही सही रास्ता है जिसके ज़रिये आगे बढ़ा जाना चाहिए! हर संरचना एक ओर वर्त्तमान को मजबूत करती है तो दूसरी ओर एक वर्ग का शोषण करती है कोशिश करो कुछ एक ऐसे समाज के निर्माण की जो संरचना से ऊपर हो  स्वछंदता जैसा कुछ
उनसे बात करना दिमाग का दही करना लगता था अजीब प्राणी हर जवाब "हो भी सकता है और नहीं भी तुम पता करो खुद से" ही होता एक बार तो मैंने पूछ ही लिया की आपको पढ़ाना है नहीं सब मुझे ही करना है तो फिर रहने दीजिये मत आया कीजिये! 
वैसे तो उन्होंने ने मुझे कुरान पढाई हदीसों की व्याख्या और इस्लाम के अलग अलग सेक्ट की मान्यता और उनकी व्याख्याएं भी बताई साथ ही नंदन और अन्य पत्रिकाएं जिनमे सनातनी कथाएं आती को भी पढने को भी कहा नक्सालियों के पर्चे भी पढ़वाये और पता नहीं क्या क्या जो उनके पास था या जो मेरे घर पर बड़े भाई की किताबों का गोदाम था उनमे से छटाई करके पढ़ाते रहना मै भी नालायक खेलने में कम और किताबों में ज्यादा उलझ गया! उन्होंने आँख बंद करके मानने के बजाये चीजों को कसौटी पर कसने को प्रोत्साहित किया! धर्म से ज्यादा समाज के अध्ययन पर जोर दिया और परिणाम खतरनाक हो गया इतना की जबतक  मैं पांचवी में पंहुचा तब तक ये समझ चूका था की धार्मिक व्यवस्था को हम राजनैतिक व्यवस्था जैसा ही कुछ है! (अब धर्म एक राजनैतिक व्यवस्था कैसे है फिर कभी बताऊंगा मगर बौद्धिक बहस मैं नहीं करता) जहाँ तक मुझे लगता है की वास्तव में नास्तिकता या स्वछंदता की उत्पत्ति के पीछे आत्म-मुग्द्धता,सामाजिक  व्यवस्था की समझ या ज्यादा जानने या समझने की इच्छा से होती है! फार्मूले में बंध जाना आपको संकीर्ण कर देता है यही वजह है की चाँद पर जाने वाली मिसाईल (लांचर) पर नारियल फोड़ा जाता है या शैम्पेन की बोतल तोड़ी जाती है ताकि सब शुभ शुभ हो! और शायद यही वजह होती है जो वैज्ञानिकों को आस्तिक बनाती है! सही मायने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब किसी विशेष शाखा का विशेषज्ञ होना नहीं होता वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है समग्रता और समग्रता आपको ना केवल नास्तिक बनाती है आपितु पक्के तौर पर किसी भी शाखा से दूर ले जाती है (बाकी फिर कभी)

21 comments:

  1. चलो अच्छा हुआ; बन्द दिमागों को खोलने की एक और दवा पैदा हो गयी!
    सत्य की जय हो !

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  2. आपने लिखा है कि लोकायत की परम्परा को बलपूर्वक नष्ट करने का आभास मिलता है। किन्तु ऐसा भी तो हो सकता है -

    १) इस दर्शन के प्रवर्तक अपने समय से 'आगे' चल रहे थे ; आम जनता को उनकी बातें अटपटी और अविश्वसनीय लगीं हो; वे लोगों को अपनी बात ठीक से समझा न पाये हों ; वे अच्छे शिष्य तैयार न कर पाये हों। क्योंकि प्राचीन काल (उस काल में) में कागज नहीं था; शायद लिपि भी नहीं थी; शिष्य ही आजके 'हार्ड डिस्क' थे।

    २) ऐसा भी हो सकता है कि लोकायत दर्शन 'पूर्ण रूप' नहीं ले पाया हो और आधा-अधूरा रूप में ही मृत्यु को प्राप्त कर गया हो। बौद्ध दर्शन या जैन दर्शन कैसे बचे रह गये?

    ३) माधवाचार्य विद्यारण्य ने अपनी महान कृति 'सर्वदर्शनसंग्रह' में चार्वाक मत को भी संगृहीत किया है और सबसे बड़ी बात है कि इसी मत से शुरूआत की गयी है। विद्यारण्य का समय चौदहवीं शताब्दी है। इसका अर्थ यह है कि चौदहवीं शताब्दी तक कुछ न कुछ लोकायत दर्शन शेष रहा था। चौदहवीं शताब्दी के बात इसे कौन समाप्त करेगा? हिन्दू, मुसलमान या इसाई? और क्यों?

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  3. आपके ब्‍लॉग को देखकर खुशी हुई .. मैं भी अंधविश्‍वास पर विश्‍वास नहीं रखती .. पर अभी तक नास्तिक भी न बन सकी .. यही कारण है कि आपके ब्‍लॉग को पढ रही हूं।
    आपके पिछले पोस्‍ट पर एक टिप्‍पणी थी ...
    विज्ञान के पास सारे उत्तर हैं, ऐसा दावा किसने किया ? हां. कल जिन बहुत से सवालों पर विज्ञान को निरुत्तर समझा जाता था, आज उनमें से कईयों के उत्तर वह दे चुका।
    आनेवाले समय में यदि विज्ञान को पता चल जाए कि मनुष्‍य के जीवन में आने वाली परिस्थितियों और सुख दुख के पीछे कोई नियम काम कर रहा है .. एक खास वजह होने से किसी का स्‍वास्‍थ्‍य अच्‍छा है किसी का बुरा .. एक खास वजह होने से किसी को दाम्‍पत्‍य सुख है और कोई उस संदर्भ में तनाव झेल रहा है .. एक खास वजह होने से कोई संतान न होने के उपाय कर रहा है और कोई संतान होने के लिए दर दर भटक रहा है .. एक खास वजह के कारण कोई आई क्‍यू के साथ जन्‍म लेता है और किसी को एक एक बात समझने में माथापच्‍ची होती है .. तो फिर विज्ञान भी आस्तिक हो जाएगा न !!
    फिर आस्तिकों और नास्तिकों में क्‍या अंतर रहा
    धर्मग्रंथों में ईश्‍वर के जिस रूप का बखान है, उसे मैं भी नहीं मानती .. क्‍यूंकि इस दुनिया में मैने पाया है कि .. किसी को पूजा पाठ करने पर भी कुछ नहीं मिलता .. और किसी को बिना मांगे सबकुछ मिल जाया करता है .. तर्क के आधार पर देखूं तो सबकुछ ईश्‍वर के हाथ में तो बिल्‍कुल ही नहीं दिखता .. पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे हैं ही नहीं .. जिस तरह हमारे पूरे परिवार में माता पिता .. पूरे गांव में मुखिया और पूरे देश की सरकार अपने सदस्‍यों का बहुत भला चाहते हैं .. पर एक सीमा में बंधकर ही वे काम कर सकते हैं .. उसी प्रकार पूरे विश्‍व के प्रधान होने के बावजूद वे भी एक सीमा रेखा में बंधे हो .. पर जबतक विज्ञान हर बात का जबाब नहीं ढूंढ लेता .. और उसे जन जन तक उपयोगी नहीं बना पाता .. आस्तिकता पर प्रहार नहीं किया जा सकता .. मैने बडे से बडे नास्तिकों को वैसी विपत्ति आने पर आस्तिक बनते हुए देखा है .. जिसका समाधान किसी के पास नहीं होता !!

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  4. आलेख एक दम गले उतर गया।

    @ संगीता पुरी जी,
    आप ज्योतिष में विश्वास करती हैं। हालांकि मुझे स्वयं उस पर विश्वास नहीं। लेकिन ज्योतिष का मूल यह है कि कोई एक निश्चित नियमों से बंधी व्यवस्था है जो इस जगत को चला रही है। निश्चित ही आप ज्योतिष के इस मूल पर विश्वास करती हैं। फिर आप निश्चित रूप से नास्तिक भी हैं। क्यों कि आस्तिक तो यह मानता है कि जो कुछ भी होता है वह खुदा के हुक्म से होता है उस की इच्छा के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता।

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  5. आपका लेख .माध्यम मार्ग की तरफ जसा बुद्ध ने कहा था कुछ एसा ही इशारा करता है.. ना तो ज्यादे खिचो और नहीं जड़े खुला छोड़ो....

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  6. एक संतुलित और सारगर्भित आलेख।

    नास्तिकता पर बहस को यह एक गंभीर दिशा दे ही रहा है, पर यह वह राह भी दिखा रहा है कि किस तरह का परिवेश बचपन को दिया जाना चाहिए।

    संगीता जी से यह पूछने की हिमाकत कर रहा हूं, कि वे अंधविश्वासों में यकीन क्यों नहीं करती? इस प्रश्न से ईमानदार माथापच्ची शायद उन्हें अपनी चेतना के परिष्कार का कुछ अवसर उपलब्ध करवा सके।

    मनुष्य का ज्ञान और समझ जितना विकसित होती जाती है, उसी स्तर के अनुरूप वह कम स्तर की चीज़ों का तार्किक विश्लेषण करने की हिमाकत करने लगता है, और परंपराओं से प्राप्त मान्यताओं को तौलने लगता है।

    जाहिर है उनका अभी तक का ज्ञान और समझ जिस तरह से कई चीज़ों से उन्हें मुक्त कर पाया है। अगर उनका संधान यहीं नहीं रुकता तो वे और भी कई चीज़ों से मुक्त होने की असीम संभावनाएं रखती हैं।
    अपने अनुकूलन से संघर्ष वाकई एक मुश्किल कार्य है। इस हेतु उन्हें शुभकामनाएं।

    संदेह से उत्पन्न नास्तिकता को सैद्धांतिकता का एक आधार चाहिए होता है, अगर वह नहीं मिलता तो पुराना अनुकूलन फिर से हावी हो सकता है। शायद वे समझना चाहें।

    शुक्रिया।

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  7. मेरे पिताजी भी कुछ-कुछ आपके मौलवी साहब जैसे ही थे. किसी प्रश्न का उत्तर खुद ढूँढ़ने को प्रेरित करते थे. नतीजा ये कि मैं उनकी सबसे लाड़ली बेटी, उनकी सबसे प्रखर विरोधी भी बन गयी. जिस तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाने को उन्होंने प्रेरित किया, उसका उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल करती. उनकी जो भी बात तार्किक नहीं लगती, उसका विरोध करती.
    इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि बच्चों को यदि बचपन से ही तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिको्ण की शिक्षा दी जाये तो उनकी किसी धर्म में आस्था नहीं रह जाती क्योंकि धर्म में तर्क कम आस्था अधिक होती है. अगर आस्था स्वाभाविक होती तो पालन-पोषण से उस पर कोई असर नहीं पड़ता. वस्तुतः तार्किक होना मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है, जिसके कारण वह इतनी प्रगति कर पाया है. नास्तिकता किसी एक वाद, विचारधारा, धर्म, सम्प्रदाय, पंथ आदि के प्रति अंधश्रद्धा का विरोध है और यह स्वाभाविक है क्योंकि मनुष्य जन्म से किसी एक विचारधारा के प्रति आसक्त नहीं होता, वह जिस घर में जन्म लेता है, उसी के धर्म का हो जाता है. यह उसका चयन नहीं होता.
    आपकी इस बात से सौ प्रतिशत सहमत हूँ---"सही मायने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब किसी विशेष शाखा का विशेषज्ञ होना नहीं होता वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है समग्रता और समग्रता आपको ना केवल नास्तिक बनाती है आपितु पक्के तौर पर किसी भी शाखा से दूर ले जाती है." हमारे धार्मिक देश में बचपन से ही बच्चों को धर्म और आस्था की शिक्षा दी जाती है. वे कितना भी पढ़-लिख लें, वो छूटती नहीं. एक अनपढ़ भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है और एक विद्वान भी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला.

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  8. mitro, P.C. kharab hai, anyatha na leN. Thik hote hi hazir houNga.

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  9. @ अंजुले मै गया से ही हूँ ना इसलिए बुद्ध का असर तो होना ही है वैसे हमारे यहाँ कहा जाता है की बुद्ध को खीर खालेने का आगढ़ करने वाली ग्वाल लड़की सुजाता को जब बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के लिए भूख त्यागने की बात कही तो सुजाता ने उनसे कहा की "वीणा के तार को इतना ढीला मत छोड़ "बुद्ध" (शायद उसने पहली बार गौतम को बुद्ध कहा था) की वीणा बज ना पाए और इतना भी ना कस दे की तार टूट ही जाए

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  10. दिलचस्प और सोचने को मजबूर करने वाली पोस्ट है। ऐस मौलवी अगर एक शहर में एक भी हो जाए तो ऐसे ब्लाग की शायद ज़रुरत ही न पड़े।

    यहां कमेंटस् में जिस तरह के प्रश्न उठे हैं उन पर विस्तार से चर्चा मेरे ब्लाग ‘संवादघर’ पर हो चुकी है। लिंक लगा रहा हूं:-

    1. छोटा कमरा बड़ी खिड़कियां

    http://samwaadghar.blogspot.com/2009/09/blog-post_16.html

    2. क्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है !?

    http://samwaadghar.blogspot.com/2009/06/blog-post_16.html

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  11. आलेख,सबके द्वारा दिए गए कमेंट और लिंको को पढने के बाद भी तर्क की कुछ जगह तो बच ही जाती है .. नास्तिक की सही परिभाषा मैं शायद नहीं समझ पा रही हूं .. सिर्फ भगवान या सर्वशक्तिमान को न माना जाना नास्तिकता हो सकती है .. पर क्‍या प्रकृति के नियमों पर विश्‍वास करना भी नास्तिकता है ?
    अभी विज्ञान इतनी तरक्‍की इसलिए कर सका है .. क्‍यूंकि प्रकृति हर स्‍थान पर किसी खास नियम से काम करती है .. फिर पूरे जीवन एक सा मेहनत करने के बाद भी समान सफलता नहीं प्राप्‍त करता है .. संयोग उसे ऊचाई में पहुंचाते हैं तो दुर्योग उसे गिरा भी देता है .. पर यहां भी हम सफल व्‍यक्ति का गुणगान और असफल का दोष निकालते हैं .. यदि यह मान भी लें कि सफल ने सचमुच अतिरिक्‍त मेहनत की .. तो जन्‍म के साथ विकलांगता प्राप्‍त करनेवाले ने क्‍या गल्‍ती की .. इसकी जानकारी भी विज्ञान नहीं दे पाता .. कभी मेहनत के बावजूद कोई घटना घट जाती है .. तो उसे संयोग या दुर्योग क्‍यूं मान लिया जाता है .. यह क्‍यूं नहीं सोंचा जाता कि शायद यहां भी प्रकृति किसी नियम से काम कर रही होगी .. जो अबतक अज्ञात है .. और किसी दिन इसे भी ढूंढा जा सकता है .. जीवन में इसी प्रकार अचानक आनेवाले संयोग या दुर्योग को ही तो सौभाग्‍य और दुर्भाग्‍य कहा जाता है .. इसमें गलत क्‍या है .. ये मेरी समझ में नहीं आता !!

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  12. बहुत अच्छा लगा ये ब्लॉग देखकर.

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  13. हम तो आपसे काफी हद तक सहमत हैं। लेकिन जो असहमत हैं उनकी शंका का यथाशक्ति समाधान करें।

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  14. @संगीता जी
    आपकी वैचारिक दुविधा कोई नयी नहीं है ये दुविधा स्वय मेरे साथ भी है! कठोर रूप से नास्तिक होना आस्तिकता का प्रतिक है इसलिए विचार में निरंतरता बनी रहनी चाहिए परन्तु एक बात की ओर आपका ध्यान ज़रूर दिलाना चाहूँगा की विज्ञानं के अधिसंखाय्क आविष्कार (या नियमों की खोज) अचानक (एक्सिडेंटल) हुए हुए हैं! किसी और चीज़ की खोज में निकला मनुष्य किसी दुसरे ही रहस्य से अवगत हुआ! आविष्कार भी किसी ख़ास पद्धति या नियम से नहीं हुए हैं! रही बात उन नियमों की जिन्हें विज्ञानं पेश करता है तो उनमें भी लगातार परिवर्तन होता आरहा है और इसलिए मझे ऐसा लगता है की नियम एक ख़ास जगह पर लोगों को आसानी से समझने के लिए तो होसकते हैं! वरना कोई प्राकृतिक नियम नहीं है जिसे सबकुछ स्थायी तौर पर चल रहा हो! अब बात भाग्यवाद की तो विज्ञानं किसी परोपकार की बात नहीं करता विज्ञानं सीधा सटीक और भावहीन है! विज्ञानं के लिए मनुष्य भी एक उत्पाद की ही तरह है अगर कोई विकलांग पैदा होता है तो विज्ञानं उसे किसी फैक्ट्री के डिफेक्टिव उत्पादन की तरह लेता है और उसके दोषों की पहचान स्पष्ट तौर पर करता है की इसमें किस किस चीज़ की कमी रही जिसके कारण ये ऐसा है!
    दूसरी बात सफलता और असफलता की तो सफलता और असफलता समाज की विषय वास्तु है इसे हम सामाजिक नज़रिए से देखें तो जवाब आसान होगा!
    दरअसल किसी भी दर्शन के कई क्षेत्र होते हैं और प्रत्येक को हमें अलग अलग देखना होता है और अगर हम प्रत्येक विषय को विषय विशेष में बाँट कर देखते हैं तो नास्तिकता पर संदेह नहीं रह जाता!

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  15. bahut achhha laga.
    mai chahata hoon ki mere kuchh mitr aur mai khud bhi is blog ka sadasy banoo.

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  16. हमने वैज्ञानिकता का जो अर्थ समझा है वह बस इतना ही है सवालों का स्वागत करो... आलोचनात्‍मक विवेक विकसित करो।
    'संभव है कुछ नियम हों...अभी खोजे जाने हैं...पर हम अभी से माने लेते हैं...' ये विज्ञान नहीं - ये ही अंधविश्‍वास है।

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  17. @अनुनाद जी आपको सवालों का जवाब जल्द दे दिया जायेगा,इन दिनों जरा व्यस्तता चल रही है.

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  18. मित्रों, ‘नास्तिकों का ब्लाग’ पढ़कर हमारी मित्र जेन्नी शबनम ने अपने ब्लाग पर एक पोस्ट लिखी
    है। लिंक है:
    http://saajha-sansaar.blogspot.com/2010/05/blog-post.html

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  19. .
    .
    .
    आदरणीय शफीकुर्रहमान खान युसुफजाई साहब,

    "मुझे अक्सर परेशानी हुयी की आदमी का पूर्वज कौन है आदम या बन्दर! स्कूल में बन्दर तो घर पर आदम"

    यह परेशानी हम में से बहुतों को है... पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं, परीक्षा में लिखते हैं कि जीवन की उत्पत्ति प्राचीन जलराशि में कोएसरवेट्स-कोशिका-बहुकोशिकीय जंतु क्रम में हुई... परंतु घर और दिमाग के भीतर भी मानते हैं कि 'बकवास' है यह सब कुछ...'उस' ने ही बनाया यह सब महज कुछ दिनों में!



    "उनका अपना फंडा था विचार की परंपरा से मत बंधो जानो जितना ज्यादा हो सके! इंसान की ज़िन्दगी दुनिया को खुबसूरत बनाने के लिए है! जड़ता से अलग होना और निरंतरता ही सही रास्ता है जिसके ज़रिये आगे बढ़ा जाना चाहिए! हर संरचना एक ओर वर्त्तमान को मजबूत करती है तो दूसरी ओर एक वर्ग का शोषण करती है कोशिश करो कुछ एक ऐसे समाज के निर्माण की जो संरचना से ऊपर हो स्वछंदता जैसा कुछ"

    काश आपके मौलाना जी जैसे विचारक-चिंतक-शिक्षक सब को मिल पाते... यकीन जानिये सारी समस्यायें खतम हो चुकी होतीं !



    "फार्मूले में बंध जाना आपको संकीर्ण कर देता है यही वजह है की चाँद पर जाने वाली मिसाईल (लांचर) पर नारियल फोड़ा जाता है या शैम्पेन की बोतल तोड़ी जाती है ताकि सब शुभ शुभ हो! और शायद यही वजह होती है जो वैज्ञानिकों को आस्तिक बनाती है! सही मायने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब किसी विशेष शाखा का विशेषज्ञ होना नहीं होता वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है समग्रता और समग्रता आपको ना केवल नास्तिक बनाती है आपितु पक्के तौर पर किसी भी शाखा से दूर ले जाती है"

    बहुत सही कहा है आपने !


    @ आदरणीय संगीता पुरी जी,

    'समय' आपसे कह रहे हैं...

    "संगीता जी से यह पूछने की हिमाकत कर रहा हूं, कि वे अंधविश्वासों में यकीन क्यों नहीं करती? इस प्रश्न से ईमानदार माथापच्ची शायद उन्हें अपनी चेतना के परिष्कार का कुछ अवसर उपलब्ध करवा सके।
    मनुष्य का ज्ञान और समझ जितना विकसित होती जाती है, उसी स्तर के अनुरूप वह कम स्तर की चीज़ों का तार्किक विश्लेषण करने की हिमाकत करने लगता है, और परंपराओं से प्राप्त मान्यताओं को तौलने लगता है।
    जाहिर है उनका अभी तक का ज्ञान और समझ जिस तरह से कई चीज़ों से उन्हें मुक्त कर पाया है।...... अगर उनका संधान यहीं नहीं रुकता तो वे और भी कई चीज़ों से मुक्त होने की असीम संभावनाएं रखती हैं।"........ मेरे विचार में गृह-नक्षत्रों का मानव-मौसम पर प्रभाव, ज्योतिष, कर्मफल आदि पर विश्वास वह चीजें हैं जिन से मुक्त होने से पहले ही यह संधान रूक सा गया है ।

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  20. बच्चा जब पैदा होता है तो वह अज्ञानी होता है नास्तिक नहीं। नास्तिकता एक विवेकशील विचार है जो ज्ञानार्जन और चिंतन से पैदा होता है। बौद्धिकता से अछूती नास्तिकता अज्ञान है। आज न किसी परम् शक्ति के स्वरूप की पहचान(रूप, गुण) को सिद्ध किया जा सकता है न उसके अस्तित्व को निर्मूल साबित किया जा सकता है। आज ही यह दावा कर देना कि विज्ञान आने वाले समय में सृष्टि के रहस्य को खोल देगा और वह कोई परम् शक्ति नहीं होगी एक बचकाना बात है, ठीक उतनी ही जितना यह कहना कि वह है जरूर और जो कुछ हो रहा है उसकी मर्जी से हो रहा है। रहस्य के पर्दे के पीछे क्या है और क्या नहीं है, पर विचार करना मानव स्वभाव का अनिवार्य अंग है लेकिन निष्कर्ष प्रदान करना पुनः मूर्खता ही है। ईश्वर की कल्पना मनुष्य ने उन्हीं परिस्थितियों में की है जिन में ईश्वर का कोई नामलेवा नहीं था यह उसकी मेधा और कल्पनाशक्ति का प्रमाण है अंधविश्वास का नहीं है, इस विचार का अंधानुकरण अंधविश्वास है, और नास्तिक विचार का अंधानुकरण भी अंधविश्वास ही है। जिन भौतिकवादी नास्तिकों को सृष्टि के अपने आप बनमें में विश्वास है क्या किसी प्रयोग द्वारा किसी वस्तु को अपने आप बनते हुये दिखा सकते हैं, बहुत प्रगति कर लेने के बावजूद विज्ञान इसका प्रमाण् देने के आसपास भी है। और किसी वस्तु का बिना निर्माणकर्ता के, बिना किसी प्रक्रिया के,बिना किसी कच्चेमाल के अस्तित्व में होना क्या चमत्कार में यकीन करना नहीं है? जो एक चमत्कार में यकीन करता है उसे किसी दूसरे चमत्कार की संभावना में यकीन क्यूं नहीं ? मनुष्य की सृष्टि के कितने प्रतिशत भाग पर पहुंच है और उसने उसके कितने हिस्से को खंगाल लिया है !? क्या वह इतना है, जिसके आधार पर सम्पूर्ण अस्ति्व पर कोई निष्कर्षात्म टिप्पणी की जा सकती ?
    वैज्ञानिक कसौटियों पर बात करने से ज्यादा अच्छा हो यदि बात समाज और मनुष्य के प्रति नास्तिकता और आस्तिकता के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभावों की की जाये। वैज्ञानिक कसौटियों पर बात करने की योग्यता शायद इस ब्लाग के सभी सदस्यों के पास न हो और स्वयं वैज्ञानिकों के पास इस बहस का कोई सर्वमान्य निष्कर्ष भी नहीं है तो इस पर व्यर्थ जुगाली का क्या अर्थ !

    आपका किस्सा रोचक है।

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