‘नास्तिकता सहज है’ लिखते समय थोड़ा-सा अंदाज़ा था कि इसे पढ़कर कुछ मित्र असहज हो सकते हैं। शायद अब तक किसी ने ऐसा कहा नहीं। बहरहाल, मैंने नास्तिक के प्रचलित अर्थों को लिया। एक आदमी जिसका भगवान से कोई लेना-देना नहीं, जो अपने दैनिक कार्यों के लिए अपनी शक्ति, बुद्धि, विवेक आदि पर भरोसा करता है, उनका इस्तेमाल करता है। बच्चा अज्ञानी तो है पर इस अर्थ में नास्तिक भी है कि ईश्वर से अभी उसका कोई लेना-देना नहीं है। भविष्य में भी होने की संभावना कम है अगर ईश्वर उस पर थोपा न जाए और उसके पूरे जीवन के देशकाल में क़िस्सों से लेकर परिवार या समाज तक ईश्वर जैसी कोई कल्पना तक न हो। यकीनन इस बच्चे की नास्तिकता में तार्किकता नहीं होगी। बड़े होने पर यह तार्किकता आ भी सकती है और नहीं भी। फ़िलहाल मैं तो यह तय करने की स्थिति में नहीं ही हूं कि तार्किकता जन्मजात होती है या ज्ञान भी इसमें कोई मदद कर सकता है। नास्तिक बनने की प्रक्रिया में तर्क वहां लगभग अवश्यंभावी है जहां बचपन से आस्तिकता सीखा व्यक्ति बाद में नास्तिक हो जाता है। मैं ज्ञान की बात नहीं कर रहा। हर ज्ञानी तार्किक नहीं होता। लेकिन तार्किक अपनी सीमाओं के बीच यथासंभव ज्ञानी होता है। उसकी तर्कबुद्धि उसे ज्ञानार्जन के लिए कभी प्रेरित तो कभी मजबूर करती है। लेकिन तार्किक वह वृहत ज्ञानार्जन के बिना भी होता है, अगर यह उसका स्वभाव है।
एक वक्त था जब हमारा काम अंग्रेजी सीखे बिना भी चलता था। अपनी भाषाओं-बोलिओं में सारे काम संभव थे इसलिए उसकी ज़रुरत ही नहीं थी। अब माहौल दूसरा है। बहुत से लोग मानते हैं कि अब अंग्रेजी सीखे बिना गुज़ारा नहीं। इसी तरह एक जन्मजात नास्तिक को भी अपनी नास्तिकता के बचाव या समर्थन में तर्क और ज्ञान की ज़रुरत वहीं पड़ने वाली है जहां आस-पास के माहौल में ईश्वर अंग्रेजी की तरह स्थापित हो। अगर ऐसा नही ंहै तो उसे तर्क या ज्ञान की ज़रुरत नहीं है। हां, ऐसा नास्तिक ठोस भी हो सकता है और पिलपिला भी। यह फिर से उसकी तर्क-क्षमता पर निर्भर करेगा।
विज्ञान से उम्मीद रखने में कतई बुराई नहीं। उसे हमने बहुत कुछ करते देखा है। जबकि ईश्वर को हमने कभी कुछ करते नहीं देखा। काल्पनिक ईश्वर पर भी हम यहां वास्तविक विज्ञान की बदौलत बात कर पा रहे हैं। यहां तक कि ईश्वर की तुलना प्रेम से भी नहीं की जा सकती। भले कुछ लोग प्रेम को वासना कहें, पर उसकी उपस्थिति हर व्यक्ति कभी न कभी अपने मन और देह में महसूस करता है, बिना किसी के बताए-सिखाए भी। उसकी शारीरिक परिणति भी होती है। पर ईश्वर के मामले में ऐसा कुछ नहीं है।
ईश्वर की कल्पना मनुष्य ने किन परिस्थितियों में की थी, इस पर अब हज़ारों साल बाद तो अंदाज़े ही लगाए जा सकते हैं, कोई निर्णय कैसे दिया जा सकता है ? बहुत से लोग ईश्वर को मनुष्य की व्यापारिक और षाड्यंत्रिक बुद्धि का नतीजा भी मानते हैं। कुछ डर का परिणाम मानते हैं।
यह बात भी उठी है कि अगर यह सृष्टि ईश्वर के बिना बनी है तो यह भी तो चमत्कार है। क्यों ? यह चमत्कार क्यों है ? और इसके समकक्ष ईश्वर को चमत्कार मानना नास्तिकों के संदर्भ में इसलिए फिज़ूल है कि नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करता। सृष्टि को चमत्कार मानें या कुछ और, वह हमें दिखाई तो पड़ती है, हम उसके साथ जीते तो हैं, महसूसते तो हैं, इस्तेमाल तो करते हैं। मगर ईश्वर !?
जो नास्तिक अपनी तार्किकता की वजह से नास्तिक हैं, उनमें मत-भिन्नता स्वाभाविक है। फिर, दुनिया के किन्हीं दो लोगों में एक जैसी योग्यता हो, अव्यवहारिक ही लगता है। इस ब्लाग के सदस्यों के साथ भी ऐसा ही हो तो क्या आश्चर्य ? अगर सभी एक जैसी योग्यता रखते तो एक ही सदस्य काफी था। सौ-पचास की क्या ज़रुरत !
शब्द और भाषा बदलकर बार-बार दोहराए जाने वाले प्रश्न असहज कर देते हैं। पर नास्तिकता और आस्तिकता के बीच बहस में फ़िलहाल इसी स्थिति को सहज मानना होगा।
एक बात साफ कर दूं, ऐसी बहस से मैं बचता हूं जिसमें ‘फलां तो मेरा फेवरेट है, आराध्य है, फलां का अपमान सारे ब्रहमांड का अपमान है’ जैसे भावुकता-प्रधान तर्क शुरु हो जाते हैं। या व्यक्ति से चिढ़ के चलते हम उसकी हर बात का विरोध शुरु कर देते हैं। ऐसे में सहमति की दस्तक तक नहीं सुनाई देती बल्कि व्यक्ति के प्रति हमारी चिढ़ हमारे विवेक पर इस तरह सवार हो जाती है कि कई बार हम थोड़ी-थोड़ी देर बाद अपनी ही बातों को काटना शुरु कर देते हैं।
शुक्र है कि यहां सभी समझदार लोग हैं और अभी तक ऐसी कोई स्थिति पैदा नहीं हुई। इसके लिए सभी का आभार।
-संजय ग्रोवर
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आपसे सहमत हूँ!
ReplyDeleteबिलकुल सही ग्रोवर साहब! हमारे बीच मतभेद होना स्वाभाविक है। जो तर्क में विश्वास करता है वह तर्क से पराजित हो कर प्रसन्नता अनुभव करता है।
ReplyDelete@ दिनेशराय द्विवेदी जी
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी केवल और केवल आपकी टिप्पनी को लेकर है .
क्या आप अपने प्रॉफ़ेशन में भी ऐसा महसूस करते हैं " जो तर्क में विश्वास करता है वह तर्क से पराजित हो कर प्रसन्नता अनुभव करता है"
आज के समय में इस ब्लॉग की इतनी ही प्रासंगिकता होगी कि ये भी एक बार फिर वैसी ही बहस को आमंत्रण दे जिसमें बुद्धुजीवियों का बौद्धिक व्यायाम हुआ करेगा.
ReplyDelete"GOD IS DEAD" में जर्मनी लेखक नीत्से भी ऐसा कर चुके हैं.
ईश्वर की सत्ता को जो स्थूल नज़रिए से जब-जब देखेगा परेशान ही रहेगा. परिणामतः धीरे धीरे स्वयं से बढकर किसी को नहीं समझेगा.
इस ब्लॉग का भी मुझे भविष्य धुंधलके में नज़र आ रहा है.
एक बात रह गयी थी स्वागत करने की सो लौट आया
ReplyDelete"इस ब्लॉग का सचमुच में बहुत-बहुत स्वागत
ये ब्लॉग थोथे चनों को छाँटने में सहयोग करेगा.
उन सभी ब्लोगरों पर तिलक लगाने का कार्य कर रहा है जो अपनी भीतरी पहचान दबाये बैठे हैं."
बेहतर...
ReplyDeleteआपके साथ सभी नास्तीकोण का स्वागत है. मैं भी आपके साथ-साथ ही हूँ -
ReplyDeletehttp://atheism-and-agnosticism.blogspot.com
मैं आपसे सहमत हूँ
ReplyDeletehttp://athaah.blogspot.com/
बहुत से लोग मानते हैं कि अब अंग्रेजी सीखे बिना गुज़ारा नहीं। इसी तरह एक जन्मजात नास्तिक को भी अपनी नास्तिकता के बचाव या समर्थन में तर्क और ज्ञान की ज़रुरत वहीं पड़ने वाली है जहां आस-पास के माहौल में ईश्वर अंग्रेजी की तरह स्थापित हो। अगर ऐसा नही ंहै तो उसे तर्क या ज्ञान की ज़रुरत नहीं है। हां, ऐसा नास्तिक ठोस भी हो सकता है और पिलपिला भी। यह फिर से उसकी तर्क-क्षमता पर निर्भर करेगा।.......
ReplyDeleteबिलकुल सही सर.........
कभी कभी नाचाहते हउवे भीअपने आपको साबित करने के लिए भी बहुत सी चीजें पदनी पड़ती हैं..
ReplyDeleteदेश में अभी जनगणना चल रही है . उसमे धर्म के स्थान पर नास्तिक और जाति के स्थान पर
ReplyDelete1प्रारम्भिक
2परिवर्तित
3ठोस
4पिलपिला
या अन्य जो भी बुद्धिजीवी निर्णय लें लिखवाया जा सकता है
मैंने कहीं किसी दार्शनिक का लिखा पढ़ा था, "अगर मेढक सोच-समझ पाते तो उनके भगवान कि शक्ल मेढक जैसी ही होती"
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन आलेख संजय भाई
ReplyDeleteजहाँ तक मैं सोच पता हूँ तो भगवान् का आविष्कार राजनैतिक अधिपत्य के लिए किया गया है! और
वास्तव में भावनाओ ने इश्वर को अपने आगोश में सुरक्षित रखा है और इन्ही भावनाओं ने समूहों समाजो और व्यवस्थाओं को जनम दिया है! अब इनको प्रथम दृष्टिया सकारात्मक भले माना जाए परन्तु तमाम समूह समाज व्यवस्था शोषण की बुनयाद पर ही खड़ी हैं! गौर से देखा जाए तो अंग्रेजी का फैलाओ उसके कारक साम्राज्यवाद और असली अजेंडे को बेनकाब करेगा! आस्तिकता और नास्तिकता या इश्वर तो अपने आप पीछे चला जाता है जैसे ही राजनैतिक अजेंडा खुलके आता है!
आप अच्छी अंग्रेजी जाने दुनिया आपका स्वागत करेगी.......धर्म शांति के लिए है (बशर्ते आप मेरे दल (धर्म) में शामिल हो जाओ)
sanjay ji,
ReplyDeleteaapke post ko padhkar kuchh likhna ya kahna aawashyak nahin lag raha, aapne bahut saare sawaal aur jawaab khud hin lekh mein kah diye hain. taarkik hue bina kabhi koi baat sahaj graahya nahin hoti, chaahe wo ishwar ko maanane ki baat ho ya na maanane ki baat...
''ईश्वर की कल्पना मनुष्य ने किन परिस्थितियों में की थी, इस पर अब हज़ारों साल बाद तो अंदाज़े ही लगाए जा सकते हैं, कोई निर्णय कैसे दिया जा सकता है ? बहुत से लोग ईश्वर को मनुष्य की व्यापारिक और षाड्यंत्रिक बुद्धि का नतीजा भी मानते हैं। कुछ डर का परिणाम मानते हैं।
यह बात भी उठी है कि अगर यह सृष्टि ईश्वर के बिना बनी है तो यह भी तो चमत्कार है। क्यों ? यह चमत्कार क्यों है ?''
bahut prabhaawpurn tareeke se aapne likha hai, bahut shubhkaamnayen.