Monday, December 26, 2011

शंकराचार्य का रचनाकर्म : एक समीक्षा

( इस ब्लॉग की सदस्या लवली गोस्वामी का यह महत्त्वपूर्ण आलेख गर्भनाल पत्रिका के दिसंबर अंक में ‘शंकराचार्य का रचनाकर्म : विज्ञानवादी दृष्टि से एक समीक्षा’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां उस आलेख का मूल प्रारूप साभार प्रस्तुत किया जा रहा है। - मोडेरेटर )

आधुनिक समय में जब दर्शन अपनी पुरातन सीमाएं लांघकर सुविकसित और सुसंगत हो चुका है, यह आवश्यक है कि भारतीय दर्शन की समीक्षा की जाए और इसमें उपस्थित बुद्धिवादी, वस्तुगत और तर्कपरक चिंतन और चिंतकों के विचारों को जनता के समक्ष रखा जाए जिससे कि वे इससे लाभान्वित हो सकें. भारतीय दर्शन की समीक्षा विज्ञान आधारित दृष्टि और तर्क के आधार पर करने पर हमें ज्ञात होता है कि यहाँ दर्शन का एक समृद्ध इतिहास रहा है और तार्किक चिंतन को प्रश्रय देने वाले कई मत और संप्रदाय रहे हैं. वहीं दूसरी ओर तर्कपूर्ण चिंतन और ज्ञान की निंदा करने वाले और विश्व की भ्रमपूर्ण व्‍याख्या करने वाले दार्शनिकों की भी कोई कमी नही रही है. इस लेख का विषय शंकराचार्य के रचनाकर्म की इसी दृष्टि से समीक्षा करने और तर्कपरक बुद्धिवादी चिंतन के प्रति उनके दृष्टिकोण की व्याख्या करना है.

शंकाराचार्य वेदांत के अद्वैत मत के व्याख्याकार थे. इनका जन्म केरल के मालबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर शिवगुरु नम्बूदरी के यहाँ हुआ था. बत्तीस वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई. शंकराचार्य ने महर्षि बादरायण के सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों तथा गीता पर भी भाष्य रचे एवं इन्होंने बौद्ध महायानियों की रणनीति का अनुसरण करते हुए देश के चारो कोनों में चार मठ स्थापित किये.इन्‍होंने ब्रह्मसूत्र पर लिखे अपने प्रसिद्ध भाष्य में वेदान्त को नया विस्तार दिया एवं अद्वैत वेदान्त के पूर्व व्याख्याकार आचार्य गौड़पाद के दर्शन को सुविकसित रूप प्रदान किया.

शंकर और उनकी सामाजिक दृष्टि

हम जानते हैं की एक धर्म शास्त्र प्रणेता के रूप में मनु के विचार शूद्रों के प्रति विद्वेषपूर्ण थे. शंकर का निरपेक्ष मूल्यांकन उन्हें एक ऐसे दार्शनिक के रूप में सामने रखता है, जो मनु द्वारा प्रतिपादित उसी ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रतिनिधि विदित होते हैं. उनके दृष्टिकोण में सामान्य लोगों एवं उनके द्वारा भौतिकता को सम्मान देने की परम्परा के प्रति गहरे विद्वेष की भावना है. शूद्रों के तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के अधिकार को ख़ारिज करने के लिए ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र-भाष्य के एक खंड में वे मनु के उस अनुच्छेद को उद्धृत करते हैं, जिसमे मनु ने शूद्रों के प्रति अपने घृणापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं. शंकर उत्तर देते हैं कि शूद्र इस दार्शनिक गूढ़ ज्ञान के अधिकारी क्यों नही हैं, शंकर कहते हैं -

इतश्च न शूद्रस्याधिकारः यदस्य स्मृतेः श्रवणाध्ययनार्थप्रति प्रतिषेधो
भवति। वेदश्रवणप्रतिषेधः , वेदाध्ययनप्रतिषेधः , तदर्थज्ञानानुष्ठानयो च
प्रतिषेधः शूद्रस्य स्मर्यते । श्रवणप्रतिषेधस्तावत् - ’अथ हास्य
वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् ’ इति: ’पद्यु ह वा
एतच्छमशनं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् ’ इति च।

अत एवाध्ययनप्रतिषेधः। यस्य हि समीपेऽपि नाध्येतव्यं भवति, स
कथमश्रुतमधीयीत। भवति च -- वेदोच्चारणे जिह्वावाच्छेदः , धरणे शरीरभेद
इति । अत एव चार्थावर्थज्ञानानुष्ठानयोः प्रतिषेधो भ वति -- ’ न शूद्राय
मतिं दद्यात् ’ इति , द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम् इति च। 
(ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥१.३.३८॥

अर्थात - शूद्र का इस कारण भी अधिकार नहीं है कि मनु स्मृति उन्हें वेद के अध्ययन, वेद-श्रवण और वैदिक विषयों के निष्पादन से भी वर्जित करती है. निम्नलिखित अवतरण के अनुसार उन्हें वेद श्रवण से वर्जित किया गया है.

- जो (शूद्र) वेदों को सुने, उसके कानों मे सीसा और लाख (पिधला हुआ) भर देना चाहिए.
- शूद्र श्मशान (के समान) हैं, इसलिए शूद्रों के निकट (वेदों का) पाठ नही करना चाहिए.

इस प्रकार एक शूद्र के लिए वेदाध्ययन वर्जित है, अतः जब शूद्रों के निकट वेदों का पाठ भी नही किया जा सकता तब भला वह वेदाध्ययन कैसे कर सकता है?(अर्थात नही कर सकता). आगे और भी..

- जो (शूद्र) वेदों का उच्चारण करे उसकी जीभ काट ली जानी चाहिए और जो वेदों को धारण करे उसका शरिर मध्य से चीर दिया जाना चाहिए.

इस प्रकार वेद श्रवण और वेदाध्ययन का निषेध वैदिक विषयों के ज्ञानार्जन का भी निषेध है.

- शूद्र को ज्ञान प्रदान नही किया जाना चाहिए - द्विजों को ही अध्ययन, और दान प्राप्ति का अधिकार है.

इस प्रकार शंकर सामान्य श्रमिको को दर्शन के अध्ययन से रोकने की मनु की व्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए सत्ता पक्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का उत्तम प्रमाण पाठकों के समक्ष रखते हैं. उन सभी अनुच्छेदों को यहाँ उद्धृत करने का कोई औचित्य नही है जिनमें शंकर ने मनु की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक ऐसा स्मृतिकार बताया है जिस पर किसी वेदांती दार्शनिक को निर्भर रहना चाहिए. यहाँ इस बात को छोड़ भी दिया जाए कि इन नियमों की परिणति क्या होती होगी और इनका पालन किस हद तक किया जाता होगा तब भी इन्हें शंकर द्वारा उद्धृत किया जाना भर ही उनकी तथाकथित "मानवता दृष्टि" के सत्तापक्षीय विद्वानों द्वारा प्रायोजित भ्रम की धज्जियाँ उडाता है. हम स्पष्ट देख सकते हैं कि परोक्ष रूप से शंकर के दर्शन का ध्येय मनु के अमानवीय और विद्वेषपूर्ण समाजशास्त्र को बौद्धिक संरक्षण देना ही है. इसक एक ऊदाहरण तब देखने को मिलता है जब सांख्य जो एक भौतिकवादी हिन्दू दर्शन है का उल्लेख करते हुए शंकर कहते हैं कि ...

"मनुना च....सर्वात्मवदर्शनं प्रशंसता कापिलं मतं निन्द् यत इति गम्यते।
कापिलस्य तंत्रस्य वेद विरुद्धत्वं वेदानुसारिमनुवचनविरुद्धत्वं च...।"  
(ब्रह्मसूत्र भाष्य(स्मृत्य धिकरणम् ॥२.११॥))

अर्थात - जहाँ मनु ने ..सर्वात्मत्व दर्शन की प्रशंसा की है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से कपिल के मत की निंदा की है. कपिल का तंत्र वेदों और वेदों का अनुसरण करने वाले मनु के वचनों के विरुद्ध है. जाहिर होता है शंकर के मन में मनु के प्रति सम्मान और सहानुभूति की भावना है जो उन्हें भौतिकवादी दर्शनों की निंदा करने पर विवश करती है और वे निष्पक्ष नही रह पाते. यहाँ से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सांख्य दर्शन जिसके प्रणेता कपिल मुनि थे मूलतः एक अवैदिक दर्शन था. वे अपनी दार्शनिक कृति में लोकायतों के मत का भी खंडन प्रस्तुत करते हैं. पर इन भौतिकवादी दर्शनों के खंडन से पूर्व वे मनु को उद्धृत करना नहीं भूलते जिससे कि पाठक उनके दर्शन की श्रेष्ठता स्वीकारने के लिए तर्कपुर्ण चितंन के पुर्व ही विवश हो जाए.

भौतिकता और प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रति शंकर का दृष्टिकोण

यथार्थ अथवा भौतिकता ही सैद्धान्तिकता की कसौटी होती है. प्रत्येक सैद्धांतिक स्थापना का परीक्षण उसके प्रति व्यावहारिक उपागम को अपनाकर ही किया जा सकता है. शंकर ज्ञान के सभी प्रमुख स्रोतों जैसे तर्क, प्रमाण, व्यावहारिक ज्ञान और कारणता को ख़ारिज करते हैं. ज्ञान के इन स्रोतों की अस्वीकृति उनके भौतिक विश्व और विज्ञान के प्रति उनकी तिरस्कारपूर्ण दृष्टि की एक बानगी उनके सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य में मिलती है. अपने शारीरक-भाष्य का आरम्भ वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कबुद्धि और प्रमाण की उपयोगिता के व्यंगपूर्ण खंडन और तिरस्कार से करते हैं। शंकर किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान की उपेक्षा करते हुए स्वप्न और भ्रम के आधार पर जगत की भौतिकता को असत्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. इस प्रकार वे जगत के प्रति एक अवैज्ञानिक और उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण स्थापित करने का प्रयास करते दृष्टिगत होते हैं. इसी प्रकार तर्क के प्रति उनके रवैये में एक अजीब सा बेतुकापन है. ब्रह्मसूत्र भाष्य में तर्क के प्रति दिए गए उनके कथनों का निचोड़ यह है कि तर्क का कोई उचित आधार नही होता. हर विद्वान दूसरे विद्वान के तर्कों को काट कर नए तर्क स्थिर करता है. इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है. नए तर्क दिए जाते हैं और अंततः वह भी गलत साबित होते हैं. यहाँ शंकर ज्ञान प्राप्ति में संशय की भूमिका को लगभग ख़ारिज करते हुए आस्था को जीवन का आधार बनाने की पूर्वपीठिका तैयार करते दृष्टिगत होते हैं.हम देखते हैं कि व्यावहारिक सत्य की जाँच के लिए तर्क की उपयोगिता को ख़ारिज करने के उपरांत भी वे उतने प्रबल तरीके से आस्था पक्षपोषण नही कर पाते जितने की अन्य भाववादी दार्शनिक करते हैं, वे मायावाद कि व्याख्या मे भी बहुत कुशलता नही दिखा पाते, जबकि यथार्थवादी चिंतन का भी भारत में समृद्ध इतिहास है जिसकी एक बानगी हमें वात्‍स्‍यायन के दार्शनिक ग्रन्थ न्याय-सूत्र में मिलती है. वात्‍स्‍यायन कहते हैं -

"बुद्ध् या विवेचनाद् भावानां याथात्म्योपलब्धिः, यदस्ति यथा च यत्नास्ति
यथा च तत्सर्व प्रमाणत उपलब्ध्या सिध्यति, या च प्रमाणत उपलब्धिस्तद्
बुद्ध् या विवेचनं भावानाम् , तेन सर्वशास्त्राणी सर्वकर्माणि सर्वे च
शरीरिणां व्यवहारा व्याप्ताः। परी़क्षमाणो हि बुद्ध् याऽध्यवस्यति
इदमस्तीति तत न सर्वभावानुपपतिः ।" 
(न्याय सूत्र (४) २/२७)

अर्थात - यह मानना होगा की बुद्धि के द्वारा परीक्षण करके ही वस्तुओं की वास्तविक प्रवृत्ति का बोध होता है. बुद्धि द्वारा परीक्षण और प्रमाण द्वारा वस्तुओं के संज्ञान के सिवा दूसरा कोई अर्थ नही है. प्रमाण द्वारा संज्ञान के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है कि कौन सी वस्तु अस्तित्वमान है और किस प्रकार अस्तित्वमान है या कौन सी वस्तु अस्तित्वहीन है और किस अर्थ में अस्तित्वहीन है. प्रमाणों द्वारा वस्तुओं का ज्ञान ही सभी शाखाओं और जीव धारियों की सभी गतिविधियों एवं व्यवहार का आधार है. सूक्ष्म रूप से वस्तुओं की जाँच पड़ताल करने वाला दर्शनवेत्‍ता बुद्धि के आधार पर ही वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करता है. अतः यह तर्क प्रस्तुत करना निरर्थक है कि बुद्धि से किसी वस्तु का ज्ञान नही होता फिर यदि ऐसा है भी, तो भी इस तर्क का कोई आधार नही है कि वास्तविक जगत अस्तित्व शून्य है.

यहां इस विषय पर चर्चा करना हमार उद्देश्य नहीं है जिन पठकों को इस विषय मे रूची हो वे न्याय सूत्र का पाठन कर सकते हैं, हम इसे यहीं छोडकर शंकर पर वापस लौटते हैं.

शंकर का मानना है की प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियों पर आधारित है इसलिए संवेदन के आधार पर निर्मित होता है, इसलिए यह भ्रम है. कारण तर्क विज्ञान के प्रति अपने मंतव्य रखते हुए शंकर उतने मजबूत तर्क पाठकों के आगे नही रख पाते अथवा नही रखना चाहते जितने कि अन्य भाववादी दार्शनिक जैसे नागार्जुन और बुद्धपालित आदि देते हैं. कहा जा सकता है कि उन्हें इस बात का संज्ञान तो है ही कि अगर वे तर्क से विरोधियों को पराजित नही भी कर पाए तो भी राज्य सत्ता तर्क विज्ञान के पक्षधरों का उपचार करने के लिए के लिए मनु द्वारा बताये मार्गों की व्यवस्था कर ही देगी. उनके तर्कबुद्धि और प्रमाण के अस्वीकरण के लिए दिए गए तर्कों में तथ्य कम व्यंग और पूर्वाग्रह युक्त तल्खी अधिक है. शंकर स्पष्ट घोषणा करते हैं कि तर्क बुद्धि का उपयोग केवल स्मृतिओं (वह भी मनु द्वारा रचित) में लिखे गए सूत्रवाक्यों को सही साबित करने के लिए किया जा सकता है.

शंकर और लोकायत का खंडन

शंकर के लोकायत के विरुद्ध तर्क बहुत ही लचर और बेसिरपैर की आपत्तियों से भरे पड़े है. शंकर लिखते हैं कि-

"नत्वेतदस्ति यदुक्तम- अव्यतिरेको देहादात्मन इति, व्यतिरेक एवास्य
देहाद् भवितुमर्हति, तद् भावाभावित्वात्। यदि देहभावे भावात् देह
धर्मत्वम् आत्मधर्माणां मन्येत -- ततो देहभावेऽपि अभावात् अतद्धर्मत्वमेव
एषां किं न मन्येत? देहधर्मवैलक्षण्यात् । ये हि देहधर्मा रुपादय: , ते
यावद्देहं भवन्ति; प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि देहे मृतावस्थायां न भवन्ति;
देहधर्माश् च रुपादयस्ते यावद् देहं भवन्ति। प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि
देहे मृतावस्थायां न भवन्ति; देहधर्माश्च रुपादयः परैरप्युपलभ्यन्ते, न
त्वात्मधर्माश्चैतन्यस्मृत्यादयः। 
( ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥(३)३/५४॥)

स्वतंत्र अनुवाद की शैली में इसका अर्थ है कि - शरीर और आत्मा की अभिन्नता की बात तर्क संगत नही है. इसके विपरीत शरीर को आत्मा से भिन्न देखना सही है, कारण की अपनी उपस्थिति के बावजूद इसमें अनुपस्थित रहने का गुण विद्यमान है. शरीर के कथित गुण (यहाँ लोकायतियों के कथन की ओर इशारा है ) के रूप में चेतना स्वयं शरीर की उपस्थिति के बाद भी अनुपस्थित रहती है (यहाँ शंकर का तात्पर्य शव से हैं) इस प्रकार शरीर की उपस्थिति के समय आत्मा के जो लक्षण दृष्ट होते हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि ये शरीर के ही गुण हैं, (यह लोकायत मत का मूल आधार है जिसकी ओर शंकर इशारा कर रहे हैं) परन्तु यदि यह बात होती तब यह स्वीकार करने में क्या कठिनाई है कि शरीर की उपस्थिति के बाद भी (शव में) यह गुण (चेतना) अनुपस्थित है तब चेतना को शरीर से अलग क्यों न माना जाए? आत्मा (चेतना) के गुणों और शरीर के गुणों में जो भिन्न्नता दृष्ट होती है उसके आधार पर यह स्वीकार्य है. अतएव जब तक शरीर है तब तक शरीर के गुण रूप रंग आदि दिखाई देते हैं और मृत्यु के बाद शरीर में इच्छा शक्ति और प्राणशक्ति आदि नही दिखाई पड़ते हैं दूसरे लोग इन्हें नही देख पाते इसलिए शरीर के गुणों जैसे रूप रंग आदि के लिए कही गई बात चेतना और स्मृति के बारे में नही कही जा सकती.

हम इस तर्क के आधार कितने सबल हैं इसे जांचने का प्रयत्न करते हैं. जैसा कि जाहिर होता है शंकर का मुख्य तर्क जो लोकयातिओं के प्रति है वह है कि अगर चेतना (जिसे शंकर कई बार स्मृति, इच्छाशक्ति और प्राणशक्ति भी कहते हैं) शरीर का गुण होती तब वह शव में क्यों नही उपस्थित रहती? यह लोकयातिओं के पक्ष का अतिसरलीकरण है जो शंकर कर रहे हैं, यह मूलतः न्याय-वैशेषिकों का तर्क है जो शंकर बिना किसी परिवर्तन के उनसे लेकर लोकायत का खंडन करना चाहते हैं. यह अलग बात है कि इस तर्क से खुद उनकी दार्शनिक विचारधारा जिसके अनुसार "विशुद्ध चित ही सत्य है और जगत भ्रम अथवा माया है" का भी खंडन हो रहा है, क्योंकि यह तर्क उपयोग करने के लिए शंकर को यह मानना होगा कि शरीर जैसी कोई भौतिक वस्तु है और रूप रंग उसका गुण अथवा लक्षण हैं. इस प्रकार स्वयं उनका प्रतिपादित भाववाद असंगतता के भंवर में फंसता नजर आता है, यहाँ उनकी असंगतता जांचना मेरा ध्येय नही है इसलिए मैं अपने मुख्य बिंदु पर लौटती हूँ जो लोकयातितों के प्रति उनके तर्क की सबलता की जाँच करना है ।

शंकर अपने विश्लेषण के आधार पर तर्क करते हैं कि शव में चेतना क्यों नही दिखाई देती. जहाँ लोकायत के अनुयायी चेतना को शरीर (देह) का गुण बताते हैं. वहीं शरीर की जगह शव को रखकर शंकर उनके दर्शन का विकृत रूप पाठकों के समक्ष रखकर लोकायतिओं को गंवार बताते हैं. कटाक्ष करने और प्रतिपक्षी की छवि विकृत करने के अपने उतावलेपन में शंकर इस तथ्य को पूर्णतः विस्मृत करते दृष्ट होते हैं कि लोकायत के विश्वोत्पत्ति विज्ञान में शरीर की परिभाषा क्या है. उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार लोकायत के अनुयायी चेतना की तुलना मद शक्ति से करते हुए अपना मत रखते थे. लोकायत मत के आधारभूत नियमो को समझने के लिए हम यहाँ इस उदाहरण की सप्रसंग व्याख्या करेंगे। जैसा की हम जनते है कि लोकायत मत के अनुसार केवल पदार्थ (भूत द्रव्य) सत्य है और विश्व की अन्य सभी वस्तुओं का उदय (चेतना का भी) पदार्थ से ही हुआ है. शरीर का निर्माण भी उन्ही चार प्रमुख भौतिक तत्वों अर्थात जल, पृथ्वी, वायु और अग्नि से मिलकर होता है. शरीर के निर्माण के लिए विशेष सहकारी कारण की आवश्यकता होती है जैसे की मद्य निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री जुटा कर एक साथ रख देने भर से उनसे मद शक्ति उत्पन्न नही हो जाती उसी प्रकार उपरोक्त चारों पदार्थों को एक साथ रख भर देने से चेतना उत्पन्न नही हो जाती. लोकायत मत के अनुसार यह एक प्रकार का असाधारण रूपांतरण है जो पदार्थ के स्वभाव और रूपांतरण के लिए आवश्यक परिस्थितिओं की अनुकूलता पर निर्भर है. लोकायत मत पदार्थ के असाधारण रूपांतरण की जिस व्याख्या के आधार पर शरीर को परिभाषित करता है उस आधार पर शव को शरीर की संज्ञा नही दी जा सकती. लोकायतिओं के अनुसार भली भांति पोषित शरीर में ही चेतना का विकास होता है. जिस असाधारण रूपांतरण की प्रक्रिया से शरीर में चेतना का निर्माण होता है, शव उस प्रक्रिया के विघटन का उदाहरण है. यह विस्मृत करते हुए शंकर लोकयातिओं के तर्क का अति सरलीकरण करते हैं जो एक दार्शनिक के लिए किसी प्रकार न्याय संगत नही माना जा सकता है. इस तर्क का एक हिस्सा जहाँ यह इंगित करता है कि जहाँ शरीर (लोकयातियों द्वारा उल्लेखित शर्तों के अनुसार) उपस्थित होता है, चेतना उपस्थित होती है वहीँ दूसरी और यह भी विदित होता है कि जहाँ शरीर उपस्थित नही होता वहां चेतना किसी प्रकार भी दृष्ट नही होती इसका कोई एक उदाहरण भी इस संसार में नही दृष्टिगोचर होता है. शंकर तर्क के दूसरे हिस्से पर क्या कहते हैं यह जानना रोचक होगा ..शंकर कहते हैं कि -

" पतितेऽपि कदचिदस्मिन्देहे देहन्तरसंचारेणात्मधर्मा अनुवर्तेरन् "
(ब्रह्मसूत्र भाष्य (३ ) ३/५४ )

अर्थात - देह का पतन होने पर कदाचित कदाचित आत्मा के गुण (जैसे चेतना, स्मृति, अनुभव क्षमता आदि) दूसरे शरीर में संचार से अनुवृत हो सकते हैं (यहाँ शंकर ऐसी संभावना व्यक्त कर रहे हैं). "कदाचित" शब्द यहाँ एक तथाकथित अपूर्व ब्रम्हज्ञानी की हिचकिचाहट का स्पष्ट परिचय दे रहा है. ध्यातव्य तथ्य यह है कि शंकर इसे ढृढ़ता के साथ क्यों नही स्वीकार रहे की मृत्यु के बाद चेतना के गुण दूसरे शरीर में संचारित होते हैं. इसका कारन यह है कि शंकर यह किसी प्रमाण के आधार पर प्रमाणित नही कर पाते इस लिए उन्होंने यह स्पष्ट तरीके से स्वीकार करने मे हिचकिचाहट दिखाई. दूसरी ओर इसी तर्क का दूसरा हिस्सा जिसे शंकर ने अछूता छोड़ दिया वह है शरीर की अनुपस्थिति में चेतना का दृष्टिगोचर होना. शंकर इस पक्ष को भी चालाकी से छोड़ते हुए अपना ध्यान लोकायतिओं को कोसने और अपमानित करने में लगाये रखते हैं. यह उनकी बौद्धिक दुर्बलता का ही परिचय देता है. इसी प्रकार कई जगह उनके तर्क बौद्ध दार्शनिकों से उधार लिए प्रतीत होते हैं. ध्यातव्य हो की शंकर, गौड़पाद के प्रशिष्य थे जिन्होंने अपना अदवैत वेदान्त दर्शन बौद्ध सम्प्रदाय के महायानियों से प्रेरित होकर रचा था. शंकर अपने शारीरक भाष्य में उन्हें "वेदान्तार्थसम्प्रदायविद् भिराचार्येः" (ब्रम्हसूत्र भाष्य ॥२.१.९॥ )कहकर संबोधित करते हैं. शंकराचार्य के तर्कों कि महायानिओं से साम्यता के कारण अनेक लोग शकंर को "प्रच्छन्न-बौद्ध" भी कहते हैं.

आज के विज्ञान सम्मत युग में ज्ञानयुक्त तर्कपरक चिन्तन अपनी सबल उपस्थिति दर्ज करा रहा है, धीरे-धीरे अंधविश्वासों और अज्ञानता का उन्मूलन हो रहा है इन सब के मध्य एक पुनरुत्थानवादी आग्रही लेखकों का तबका ऐसा भी है जो पुरातन ज्ञान और दर्शन की आड़ लेकर अंधविश्वासों, अज्ञानता और व्यक्तिगत भाववादी अनुभवों के फलस्वरूप उत्पन हुए भ्रम को सत्य के रूप में स्थापित करने के कुत्सित प्रयास मे लिप्त हैं. इन लोगों की स्पष्ट मान्यता है कि विज्ञान को आंकड़ों की गणना और पूंजीपति वर्ग के हितों तक सीमित रहना चाहिए. विज्ञान कोई जीवन दर्शन नहीं देता उसे समकालीन समाज में फैली रुढियों/अंधविश्वासों से बचते हुए ही अपना कार्य करना चाहिए. समाज विरोधी पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे विज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा को दूषित करने के दो तरीके अपनातें हैं - प्रथम तो विज्ञान की रहस्यात्मक भ्रमपूर्ण व्याख्या और द्वितीय विज्ञान पर मानवता विरोधी होने का आरोप. वहीं दूसरी ओर अन्धविश्वास और जड़पंथी विचारधारा को समकालीन समाज में स्थापित करने के लिए वे इसी विज्ञान का सहारा लेते हैं और सदियों पूर्व भी जिन अंधविश्वासों को हमारे पूर्वज पूर्णतया ख़ारिज कर गए थे उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएं करते हैं. इन दोनों प्रवृत्तियों के जवाब के लिए इतिहास की विज्ञानवादी विचारधारा का सामने आना जितना आवश्यक है, उतनी ही जरुरत इस बात की है कि वैसे दर्शन और दार्शनिक जो भ्रमपूर्ण चिन्तन और आस्था का प्रचार करते थे उनकी वास्तविकता जनता के समक्ष रखी जाए. आज आवश्यकता उन सम्प्रदायों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार की है जिन्होंने जन-सामान्य का पक्ष लेते हुए शासक वर्ग द्वारा जबरदस्ती थोपे गए दर्शन को नकारा था. अन्धविश्वास और जड़मति विचारों की एकमात्र (और संभवतः सबसे मजबूत भी) जगह इतिहास ही है, अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी विचारधाराओं का पुनर्मूल्यांकन किया जाए जिससे विज्ञानवादी सोच को बढ़ावा दिया जा सके और भ्रमों को सत्य की तरह स्थापित करने की प्रवृत्ति को मुँह-तोड़ जवाब दिया जा सके. यह सच है की ऐसा करने के लिए अधिसंख्यक की आस्थाओं के विरुद्ध जाना होगा परन्तु यह ध्यान रखा जाना चहिए कि वस्तुगत सत्य जो भ्रम से मुक्त करने की कुव्वत रखता है, आस्थाओं के विपरीत ही होता है. अब तय मनुष्य को करना है कि उसे निरपेक्ष दृष्टि और सापेक्ष विश्लेषण जनित वास्तविकता का ज्ञान चाहिए या फिर भ्रम आच्छादित आस्था का फलक? आस्थाओं के चोटिल होने के भय के कारण अगर सत्य पर भ्रमों का पर्दा पड़ा रहा तो यह प्राचीन भारतीय विज्ञानियों के साथ अन्याय होगा. अधिसंख्यक जनता के मध्य भ्रमपूर्ण परिदृश्य के निर्माण को रोकने के लिए यह जितना आवश्यक है की भारतीय दर्शन की विज्ञानवादी धारा का प्रचार प्रसार किया जाए उतना ही आवश्यक यह भी है की भारत के बौद्धिक विकास में बाधक विचारों और विचारकों की समीक्षा विज्ञानवादी दृष्टि से की जाए. एवं उनके कुत्सित मंतव्यों को जनता के समक्ष रखा जाए.
- लवली गोस्वामी

Monday, December 19, 2011

इतिहास का डूबता सूरज...

देखो इतिहास का सूरज
डूब रहा है
समय की घाटी में
देवता
धर्म की किताबों में
जा छुपे हैं
महापुरुष
गमलो में
उगने की तैयारी में हैं
घरों की दीवारों पर
चढ़ते मनीप्लांट
अमरबेल में बदल गए हैं
ज़ेहन की दीवारों पर
काई जम आई है
शास्त्रों के साथ
दियासलाई रखी है
महान मस्तिष्क
बह गए वेश्यालय के बाहर
पेशाबघरों में
सच की रात
छा रही है
सच जो काले हैं
अंधेरे से
रोशनी जो झूठी थी
खत्म हो गई है
हमारे समय के सच
व्याभिचारी बूढ़े से
घिनौने
आज़ादी से अश्लील
लोकतंत्र से
तानाशाह
गाभिन पागल महिला से
विद्रूप
ही तो हैं
आओ चलें कूद जाएं
समय की नदी में
इतिहास के
डूबते सूरज के साथ

मयंक सक्सेना

Friday, April 22, 2011

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

( इस ब्लॉग की सदस्या लवली गोस्वामी का यह महत्त्वपूर्ण आलेख समयांतर के मार्च २०११ के अंक में ‘भारत में विज्ञान’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां उस आलेख का मूल प्रारूप साभार प्रस्तुत किया जा रहा है। - मोडेरेटर )

भारत में विज्ञान का एक समृद्ध इतिहास रहा है। कई आधुनिक विद्वान ऐसा प्रचार करते हैं कि भारत में समस्त चिंतन धर्म केन्द्रित रहा है और प्राचीन भारत में विज्ञान के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। परन्तु रसायन विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र और गणित ज्योतिष के उपलब्ध ग्रन्थ इस बात को सिरे से ख़ारिज करते हैं। वहीं कई विद्वान इस मत का समर्थन करते भी नजर आते हैं कि विज्ञान मूलतः वैदिक (प्रकारांतर से उपनिषद) दर्शन के संरक्षण में फला फूला है, (यह उक्ति गणित ज्योतिष के लिए अंशत: सही हो सकती है) ये दोनों ही बातें कल्पना मूलक हैं।

अब प्रश्न यह उठता है की भारतीय विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य आज हमें जिस रूप में उपलब्ध है, वह प्रथम दृष्टया अपने उपलब्ध रूप में उपरोक्त दोनों मतों की पुष्टि करता सा प्रतीत होता है। फिर सत्य का अन्वेषण किस प्रकार किया जाए ? क्या विज्ञान के विशुद्ध परलोक विरोधी भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मायावादियों को भयभीत नहीं किया होगा ? यदि हाँ तो इसका विज्ञान पर क्या प्रभाव हुआ ? विज्ञान जो पूर्णतः एक भौतिकवादी विषय है, क्या अपने शुद्ध परलोक विरोधी और जनपक्षीय विचारधारा के कारण विज्ञान राज्य पोषित भाववादियों में मान्य हुआ होगा ? हम जानते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ ही कार्य-कारण के बीच स्पष्ट सम्बन्ध का अवलोकन होता है। फिर प्रश्न यह है कि वेदान्त विरोधी दृष्टिकोण के साथ विज्ञान किस प्रकार उत्कर्ष पर पहुंचा। उसमें वेदान्त के तत्व कैसे आए ? प्रारंभिक उत्कर्ष के बाद उसके पतन की क्या वजहें थी ? आज जो विज्ञान विषयक ग्रन्थ हमें उपलब्ध है, वे किस सीमा तक अपने मूल स्वर में हैं ? कई प्रश्न उठते हैं, जिनका उत्तर देने का प्रयास इस लेख में आगे किया गया है।

आज जो विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य हमें उपलब्ध है, उस पर विज्ञानेतर विचारों और मतों का उबा देने वाला घालमेल किया गया और कई ऐसे क्षेपक जोड़े गए जो उसके मूल स्वर से एकदम भिन्न और हा्स्यास्पद होने की प्रतीति देते हैं। परन्तु इन ग्रंथों का बुद्धिपूर्वक और सतर्क अध्ययन हमें हमारे पूर्वजों की वस्तुपरक और भौतिकवादी धारणा का स्पष्ट परिचय देता है। इस कथन के पक्षपोषण के लिए अब आगे हम उपलब्ध प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों के मूल स्वर का भौतिक वादी विचार धारा से पोषित होने का का प्रमाण देंगे।

सर्वप्रथम प्रश्न उत्‍पन्‍न होता है, कि प्राचीन भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारा तात्पर्य क्या होना चाहिए। हम जानते हैं कि‍ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ विशुद्ध तात्विक दृष्टिकोण है, जिसमें कारण और परिणाम के मध्य संबंधों के अध्ययन का स्पष्ट विवेचन किया जाता है । प्रकृति, पृथ्वी और मनुष्य के उत्पति के सम्बन्ध में दी गई व्याख्याओं में प्रत्यक्षता को सर्वोपरि रखा जाता है । अब अगला प्रश्‍न यह है कि वैदिक दर्शन में तर्क और जगत की भौतिकता को क्या स्थान प्राप्त है। इस प्रश्न के स्पष्ट विवेचन से ही हमें विज्ञान के मूलाधार का परिचय प्राप्त हो सकता है।

वेदान्त में भौतिकता का स्थान

प्राचीनतम उपलब्ध वैदिक साहित्य ऋग्वेद है। इसमें भाववादी दर्शन के चिन्ह स्पष्ट नहीं हैंयह अपेक्षाकृत सरल धर्म संक्रमणात्मक गोत्रीय जनजाति सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। इसमें यज्ञ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भेंट और बलियाँ देने पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। इसमें मंदिरों का भी उल्लेख नही मिलता। ऐसी प्रतीति होती है कि यज्ञ घर में ही अथवा किसी खुली जगह पर विशेष वेदिका बनाकर किए जाते थे । प्रतिमाओं का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नही है। यह ग्रन्थ मुख्यतः आदिम मनुष्यों के सामूहिक दैनिक जीवन संबंधित कार्यों का उल्लेख करता है जो आज के आधुनिक विद्वानों के लिए आदि पूर्वजों की जीवन शैली और उनके कार्यकलापों को समझने की कुंजी बना हुआ है ।

कहा जा सकता है कि ऋग्वेद कहीं से भौतिकता का विरोधी नहीं प्रतीत होता. भौतिकता विरोधी भाववादी दर्शन की पहली झलक हमें उपनिषद काल में मिलती है. इस समय राज्य सत्ता भी पूर्ण गति से परिपक्वता की ओर अग्रसर थी और राज्य की सत्ता को अक्षुण रखने के लिए सामान्य जनता को परलोक, आत्मा के अस्तित्व , मृत्यु के बाद जीवन, संसार की भौतिकता ( प्रकारांतर से सामाजिकता) और सामाजिक सरोकारों के प्रति घृणा, आदि पर विश्वाश के लिए प्रेरित किया जा रहा था। इसी काल में सभी पुरातन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त ग्रंथो पर भाववादी मत थोपने का प्रयास किया गया। लेख में हम आगे देखेंगे कि इस कार्य में राज्य के संरक्षक/विचारक कितने सफल रहे । इस तथ्य को उद्धृत करने के पीछे मेरा मंतव्य सिर्फ भाववाद से राज्य सत्ता के सम्बन्ध की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का था।

उपनिषद काल के प्रमुख वेदांती दार्शनिकों ने जगत की भौतिकता को निरर्थक बताने के लिए मुख्यतः दो युक्तिओं का प्रयोग किया है - तर्क बुद्धि, प्रमाण और प्रत्यक्ष ज्ञान (प्रकारांतर से भौतिकता) की अस्वीकृति एवं कार्य-कारण सिद्धांत का खंडन जो विज्ञान का आधार भी है। उपरोक्त कथन के सत्यापन के लिए हम आगे औपनिषद काल के कई प्रसिद्द राज्य पोषित वेदांती दार्शनिकों का इस विषय पर विचारों का विवरण प्रस्तुत करेंगे।

प्रसिद्ध भाववादी विद्वान शंकर का दर्शन जिसे शारीरक नाम से संबोधित किया जाता है एक प्रखर भौतिकता विरोधी दर्शन था। "शारीरक" (वि० [सं० शरीर+कन्-अण्]) संज्ञा में औपनिषद दर्शन का जो परिचय मिलता है वह संसार और भौतिकता के प्रति उनके दृष्टिकोण की स्पष्ट घोषणा है। शारीरक शब्द शरीर शब्द से बना है जिसमे कन् प्रत्यय लगाया गया है, इस प्रत्यय से अपकर्ष का बोध होता है। इसी प्रकार शारीरक शब्द से दोष से भरे शरीर का बोध होता है। वेदान्त (उपनिषद) दर्शन के लिए इस नामकरण का कारण यह है कि शुद्ध चित्त अथवा आत्मा शरीर रूपी दूषित कारा में कैद होती है और मृत्यु मुक्ति है। यह इस दर्शन का मूल स्वर है. यह दर्शन मृत्यु को महिमंडित करता है और ज्ञान के सभी भौतिक स्रोतों को अस्वीकृतइसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैंयाज्ञवल्क्य जो एक प्रमुख वेदांती दार्शनिक थे, बृहदारण्यक उपनिषद (बृहदारण्यक उपनिषद () ४२ ) में इस दर्शन के मूल स्वर को एक मरणासन्न व्यक्ति के स्पृहणीय वर्णन द्वारा प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि उनका मत था कि वह मरता हुआ व्यक्ति शरीर के बंधन से उत्तरोतर छुटकारा प्राप्त करता जा रहा है। यह एक आग्रही विद्वान का जगत की भौतिकता और संसार के प्रति अवहेलना की दृष्टि का स्पष्ट प्रमाण है

अब हम तर्क विद्या के प्रति इन दार्शनिकों की घृणा पर दृष्टिपात करते हैं। अद्वैत वेदांत दार्शनिक शंकर स्पष्ट लिखते हैं की तर्क-वितर्क द्वारा तत्व ज्ञान होना असंभव है, तर्क की सार्थकता सिर्फ इतनी है कि उसका उपयोग धर्म शास्त्रों में लिखी गई बातों को सत्य सिद्ध करने के लिए किया जाएइन्ही विचारों के कारण शंकराचार्य ने तर्क, प्रमाण और अनुभवजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान को अविद्या की श्रेणी में रख छोड़ा है (शंकर अध्याय - भव्य)। यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है, शंकर निर्विवाद रूप से प्रतिभाशाली थे। वे सांसारिकता को सिरे से खारिज करने के स्थान पर लौकिकता को स्थान देते हुए पारलौकिकता को सर्वोच्च सत्य बताते हैंयह उनकी दूरदर्शिता ही दर्शाता है, परन्तु फिर भी वे भाववाद को अपने दर्शन से निकाल नही पाते और अंततः भौतिकता का अस्वीकरण करके पारलौकिकता को एकमात्र सत्य के रूप में स्थापित कर जाते हैं

वहीं दूसरी ओर प्राचीन नीतिशास्त्र के रचयिता मनु ने तर्क विद्याविदों के विरुद्ध कठोर क़ानूनी नियम लागू करने को कहा है. उन्होंने स्पष्ट घोषणा की है कि किसी भी व्यक्ति को इन नास्तिकों (पाखंडी:), वर्णधर्म/वेद विरुद्ध आचरण करने वालों (विकर्मस्थ:), पाखंडियों (वैडाल वृतिकों) और हेतुकों (तर्क शास्त्रियो) से बात तक नही करनी चाहिएयहाँ ध्यातव्य है कि स्मृतिकार मूलतः उस वर्ग से सम्बंधित है जिसकी पहुँच सत्ता प्रतिष्ठान तक है, और राज्य सत्ता के दबाव के कारण जनसामान्य उनके द्वारा निर्मित नियमो को मानने के लिए बाध्य है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस स्थान पर हम भाववादी/मायावादी दर्शनवेत्‍ताओं और स्मृतिकारों को वैचारिक स्तर पर एक साथ देख सकते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि स्मृतिकार तर्क में विश्वाश न करने की बात को राजाज्ञा की तरह "घोषित " करते हैं और दार्शनिक तत्व मीमांसक तर्क करने वालों के प्रति निंदा की भावना को पुष्ट करने का पूर्वाग्रह ग्रसित दार्शनिक आधार खोजते हैं।

संक्षेप में कह सकते हैं कि उपनिषद दर्शन को पूर्ण रूप से राज्याश्रय प्राप्त था और राज्य अपनी सत्ता के संरक्षण हेतु जनसामान्य को भ्रमित करने और अन्धविश्वाश के सृजन के लिए कटिबद्ध था। जहाँ एक तरफ इसके लिए उसने धर्मशास्त्रियों/विचारकों से भौतिकवादी तर्कशास्त्रियों का सामाजिक/वैचारिक बहिष्‍कार करवाया वहीं दूसरी ओर नीतिशास्त्रियों ने तर्कशास्त्रियों के लिए नैतिक आचार संहिता के उलंघन के अपराध में दंड की व्यवस्था की। यह तथ्य उपनिषद दर्शन के भौतिकता विरोधी और प्रकारांतर से जनविरोधी होने का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है।

चिकित्सा विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य

अब हम प्राचीन विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य देखते हैं। चिकित्सा विज्ञान के दो प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ आज हमारे पास उपलब्ध हैं - चरक संहिता और सुश्रुत संहिता। चरक संहिता में जो चिकित्सा पद्धति है, वह द्रव्य/औषध और अन्नपान पर आधारित है। शल्य चिकित्सा की आवश्यकता केवल कुछ ही स्थानों पर बताई गई है। इसके विपरीत सुश्रुत संहिता मुख्यतः शल्य चिकित्सा पर बल देती है। इन दोनों संहिताओं में प्राचीन चिकित्सकों द्वारा दिए गए कथनों में पर्याप्त विरोधाभाष है जैसे एक स्थान पर लिखा है - देवगोब्राह्मणगुरुवृद्ध सिद्धाचार्यानचेत् (चरक संहिता iv.4.12) अर्थात देवता, गौ, ब्रह्मण, गुरु, सिद्ध पुरुष तथा आचार्य की पूजा करनी चाहिए। पर वहीं दूसरी ओर चिकित्सकों द्वारा एक अन्य परिच्छेद में गौ मांस को भक्षण योग्य खाद्य पदार्थ में रखा गया है और पुष्टिकारक बताया गया है।

ग्व्यं केवलवातेषु पीनसे विषमज्वरे। शुष्ककासश्रमत्य अग्निमांसक्षयहितं च तत्॥
(सुश्रुत संहिता i.४२.३ काशी संस्कृत सीरिज संस्करण)

अर्थात गौ का मांस केवल वातजन्य रोगों में, पीनस रोग में, विषम ज्वर में, सूखी खांसी में, परिश्रम वाले कार्य करने पर, भस्मक रोग में, मांसक्षयजन्य रोग में लाभप्रद होता है। एक अन्य प्रसंग ब्रह्मचर्य का है। जहां एक ओर चरक संहिता ब्रह्मचर्य को मोक्ष के एकमात्र मार्ग की तरह बताती है, वहीं दूसरी ओर पूर्णतः भौतिकवादी दृष्टि से वाजीकरण नाम के अध्याय में, जो चार उप अध्यायों में बँटा है संभोग क्षमता बढ़ने के लिए रसायन सेवन का निर्देश देती हुए स्पष्ट स्थापना देती है की "प्रकामं च निषेवेत मैथुन शिशिरागमे..". यह और इस तरह के कई उदाहरण हैं जिससे साफ जाहिर होता है की इन ग्रंथों की रचना करने वाला कोई भाव वादी तो नही ही हो सकता है। 

कालांतर में इस ग्रन्थ की उत्पति वेदान्त से बताने के लिए इनपर बलपूर्वक औपनिषद दर्शन को थोपा गया है। इस ग्रन्थ का मूल स्वर पूर्णतया भौतिकवादी है जिसपर भाववाद का मुल्लमा चढ़ाने की व्यर्थ कोशिशें की गई हैजहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की - शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीर मूलश्व पुरुषो भवती - अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष हैयहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की यह पुरुष कोई प्रत्यय नही है, सुश्रुत संहिता स्पष्ट उल्लेख करती है की यह पुरुष पंचभूतों से बना हुआ है, जो स्पष्टवक्ता आद्य भौतिवादियों लोकायतों के मत से मिलता है।

यहाँ उल्लेखनीय है की लोकायतों का स्पष्ट मत था - पृथिव्यापस्तेजो तत्वानि, अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार ही तत्व हैं, और "भूतान्येव चेतयन्ते.." अर्थात ये चार भूत ही चेतना पैदा करते हैंये भौतिकवादी दार्शनिक शरीर को ही आत्मा मानते थेहमारे प्राचीन चिकित्सक जहाँ रोगों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने इसके लिए "देव व्यापाश्रय भेषज " के स्थान पर "युक्ति व्यापाश्रय भेषज " को महत्व दियायुक्ति ( तर्कपूर्ण निर्णय ) को चिकित्सा का आधार बताया। वहीं पूरे वेदान्त दर्शन में दर्शनशास्त्र की निंदा और स्मृतियों में तर्क की निंदा और तर्कशास्त्रियों के बहिष्कार और दंड की घोषणाएं की जाती रहींरोग की मुक्ति को कर्म सिद्धांत के विरुद्ध देखा जाता था, इस कारण चिकित्सा कर्म में लगे व्यक्तियों की निंदा करने में उपनिषद रचयिता बढ़-चढ़ कर लगे रहेयजुर्वेद में चिकित्सा कर्म में लगे मनुष्यों की निंदा की गई। आगे इस प्रक्रिया में आपस्तंब गौतम से लेकर कुल्लूक भट्ट जैसे परवर्ती भाववादी व्याख्याकारों तक सभी ने अपनी पूर्ण प्रतिभा का प्रदर्शन किया

प्रारम्भिक वेदांत साहित्य अर्थात वेद में चिकित्सक का स्थान

यहाँ एक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है की ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की उनकी चिकित्सा कौशल के लिए भूरी भूरी प्रशंसा की गई है और अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण अंश चिकित्सा विद्या से सम्बंधित हैइसमें मुख्यतः तंत्र मंत्र और टोने-टोटकों का उल्लेख है. यह किस प्रकार संभव हुआ होगा इसका उत्तर बहुत ही साधारण है जैसा की पहले उल्लेख किया जा चूका है प्रारंभिक ऋग्वैदिक काल में राज्य व्यवस्था का उदय नही हुआ था और इस कारन भाव वादी दर्शन का कोई स्पष्ट प्रभाव इन प्राचीन ग्रंथो में नही दृष्टिगोचर होतायह मुख्यतः यजुर्वेद के काल से आरम्भ हुआ, अब जिन अश्विनी कुमारों की स्तुति की गई थी उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाने लगा, उन्हें "देवता " के पद से पदच्युत कर दिया गया। यह उस व्यापक सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन का परोक्ष प्रमाण है जो राज्यसत्ता और मायावाद (भाव वाद ) की उत्पति से विज्ञान के विरोध को प्रमाणित करती हैयह तथ्य शासक वर्ग का भौतिक वादी विचार धारा से विरोध भी, अप्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करता है।

राज्य सत्ता के उदय के साथ दृश्य बदलता है, जहाँ आदिम चिकित्सकों (अश्विनी कुमारों) के चिकित्सा कौशल की प्रशंसा की जाती थी, वह निंदा में बदलती हैराज्य का उदय चिकित्सकों के प्रति, जो जनसामान्य के हितैषी और कर्म फल और पूर्व जन्म की भाववादी व्याख्या के विरुद्ध थे, घृणा का नया अध्याय खोलता हैस्मृतिकार, धर्म शास्त्रकार यह घोषणा करते हैं कि यह कार्य केवल अंत्यजो को करना चाहिए, वैदिक विचारधारा के समर्थकों को चाहिए की जिस भूभाग में उनकी संख्या अपरिमित हो यह पेशा अपनाने की किसी को सुविधा न दी जाए

इस प्रकार अथर्ववेद का अंश मुख्यतः इस विद्या का आरंभिक रूप माना जा सकता हैअथर्ववेद के समय चिकित्सा का जो तरीका प्रचलित था वह बहुत ही पिछड़ा एवं टोने टोटके पर आधारित थावे लोग समाज के आदिम चरण में रह रहे थे और तत्कालीन उपलब्ध ज्ञान के आधार पर रोगों के निवारण के लिए टोने टोटके जादू और तंत्र मंत्र पर आश्रित थेअथर्ववेद में जिन औषधियों की चर्चा मिलती है वे मुख्यतः शत्रु द्वारा किये अथवा कराये गए जादू टोने से रक्षा हेतु ताबिजो (रक्षा कवचों )के रूप में उपयोग किये जाते थेयह मुख्यतः इस तथ्य को प्रमाणित करता है की चिकित्सा कर्म उन दिनों अपने पुरातन स्वरुप में था और उन आदिम पूर्वजों में जादुई - धर्मिक क्रियाकलाप के रूप में प्रचलित थायह जादू टोना मुख्यतः आदिवासी समाज का गुण माना जाता है

इस ग्रन्थ में आयुर्वेद की प्राचीनतम जड़े मिलने के कारण ही, इसे वेद समूह का अंग मानने से श्रेणीबद्ध समाज के चिंतकों ने इंकार कियापरवर्ती काल के ब्राह्मण ग्रंथो ने भी वेदत्रयी को ही प्रतिष्ठा दी, अथर्ववेद को घृणा की दृष्टि से देखातैत्तिरीय संहिता में भी ऋक् (ऋग्वेद ), सामन् (सामवेद ) , यजु: (यजुर्वेद) का ही उल्लेख हैशतपथ ब्रह्मण की भी यही स्थिति है या तो इसे घृणा से देखा गया है या फिर इसका उल्लेख जरुरी नही समझा गयावर्णाश्रम व्यवस्था के पोषकों ने भी अथर्ववेद को वेद मानाने से सिर्फ इसलिए इंकार किया क्योंकि चिकित्सा शास्त्र की जड़े उस तक जाती थीजिस चिकित्सा कर्म को इस वेद में स्थान दिया गया, वही इसके श्रेणीबद्ध समाज में असम्मान का कारण बना

वेदांत दर्शन में इसकी अवमानना इस हद तक बढ़ आई की जब मध्यकाल में भारतीय दर्शन विषयक सर्वमत संग्रह तैयार हुआ तो उसमे स्पष्ट घोषणा की गई कि जो व्यक्ति अथर्ववेद में आस्था रखेगा वह वैसे ही अनादर का भागी माना जायेगा जैसा की नास्तिक या भौतिकवादी माने जाते हैंइस ग्रन्थ में चावार्कों के सन्दर्भ में यह बात कही गई है कि चावार्कों के अनुसार अथवर्वेद और गांधर्व वेद ही वेद माने जाने चाहिएवहीं दूसरी और नास्तिकों द्वारा अनुमोदित होने के कारण इस वेद को परवर्ती वेदांती व्याख्याकारों ने घृणा की दृष्टि से देखा और इसकी अवमानना की

अथर्व वेद के सम्मान के पतन का यह प्रकरण दो तथ्यों को प्रमाणित करता है, नास्तिकों द्वारा अनुमोदित की गई हर कृति को मायावादियों ने या तो नष्ट कर दिया और जिन्हें नष्ट करना संभव न हो सका उन्हें भाव वादी विचारधारा में प्रक्षिप्त करने तथा उनकी अवमानना की घोषणा का पूर्ण प्रबंध कर दियासम्पूर्ण उपनिषद साहित्य में एक भी ऐसे ऋषि का नाम नही मिलता तो चिकित्सक हो और विद्या शाखाओं में जिन विद्याओं को प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था उनमे आयुर्वेद का नाम नदारद हैज्यों-ज्यों राज्य पोषित वर्ण व्यवस्था सुदृढ होती गई चिकित्सा शास्त्र के प्रति घृणा बढ़ती गई भौतिकवाद को बलपूर्वक नष्ट किया जाता रहा और इसके परिणाम स्वरुप विज्ञान का पूर्ण विनाश हो गयाआयुर्वेद आचार्यों का मानना था की मनुष्य का शरीर उसी सूक्ष्म विश्व का प्रतिनिधित्व करता है जो पंच महाभूतों से निर्मित है, और रोगों का कारण इन्ही आधारभूत द्रवों में असंतुलन की स्थिति हैवे लोग स्पष्ट घोषणा करते हैं कि युक्तिपरक चिकित्सा से ही रोगमुक्ति संभव है और प्रत्यक्षता को वे ज्ञान प्राप्त करने के साधन के रूप में गिनाते हैं।

यहाँ बार बार उपनिषद दर्शन से तर्क और प्रत्यक्ष ज्ञान के विरोध को दोहराने की आवश्यकता नही रह जाती। आधुनिक विद्वान वेदान्त से आयुर्वेद की उत्पति बताते समय इस तथ्य को विस्मृत करके अपनी जनविरोधी मानसिकता का परिचय देने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। इसी कारण किसी प्राचीन स्रोत ग्रन्थ के अध्ययन के लिए नीर क्षीर का विवेक अत्यंत आवश्यक है, ग्रंथ के मूल के साथ जो संसोधन किये गए हैं उन्हें ध्यान में रखना ही एकमात्र सूत्र है जो हमें प्राचीन भारत में विज्ञान और उससे भौतिकवाद के सम्बन्ध का स्पष्ट परिचय दे सकता है और प्राचीन भारतीय विज्ञान एवं चिंतन पर लौकिकता विरोधी होने के दाग को धो सकता हैइन स्रोत ग्रंथो में ऐसे कई विरोधाभास भरे पड़े हैं, इन सब पर एक एक कर लिखने की न आवश्यकता है न ही प्रासंगिकता।

आधुनिक खोजकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है की प्राचीन चिकित्सा सम्बंधित स्रोत ग्रन्थ चरक संहिता के रचयिता चरक कोई एक मनुष्य न होकर प्राचीन भारत का एक घुमंतू (भ्रमणशील) संप्रदाय था (जिन सुधि पाठकों को इस विषय में रूचि है वे देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय कृत ग्रन्थ Science and Society in Ancient India का अध्ययन कर सकते हैं)। यह मान्यता इस आधार पर भी सटीक है की अथर्ववेद के एक लुप्त संशोधित संस्करण को चारण वैद्य कहा जाता थाचरक संहिता के उपलब्ध रूप में उसके इतिहास पर दी गई जानकारी के अनुसार एक प्राचीन वैद्य का नाम आता है जो वैज्ञानिक विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पित थाभरद्वाज नामक ऋषि मूलतः एक स्वभाव वादी थे, चरक संहिता भी मूल रूप से द्रव्यों के स्वभाव का अध्ययन करती है। यह स्वभाववाद मुख्यतः इन्ही भौतिकवादी लोकयातियों का मत माना जाता है.इस प्रकार इस तथ्य में कोई संदेह नही कि प्राचीन चिकित्सक मुख्यतः भौतिकवादी थे जिनका वैदिक परम्परा से कोई सम्बन्ध नही थाफिर प्रश्न यह उठता है की ये भौतिकवादी कौन थे ? उनका मूलस्थान क्या था ? इस प्रश्न का उत्तर हम आगे देखेंगे।

तंत्र में देहवाद , भौतिकता और विज्ञान

जिन क्षेत्रों में भाववादी दर्शन और ब्रह्मणवाद का प्रभाव कम था वहां मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न और संसार के उत्पति के प्रश्न को सुलझाने का काम तर्क द्वारा हुआ हैइस तथ्य को प्राचीन भारतीय दर्शनों में से एक सांख्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। हम सब जानते हैं कि शंकर ने सांख्य को अवैदिक मत बताया हैप्राचीन परम्परा के अनुसार सांख्य कपिल के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। कपिल इस देश के उतरी क्षेत्र अर्थात बंगों, मागधों और चेरों के क्षेत्र के रहने वाले थे और यह स्थान गंगा सागर जाने वाले मार्ग पर थाकपिल का ग्राम कपिलवस्तु भारत के उत्तरपूर्व में हैं, इसी क्षेत्र में तंत्र वाद के अवशेष आज तक विद्यमान हैंसांख्य तंत्रवाद का विकसित रूप हैइस तथ्य का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया की आगे जब हम तंत्रवाद से विज्ञान के सम्बन्ध का विवेचन करेंगे तो विज्ञान के आधार विचारों को जानने में और उसमे निहित मूल विचारधारा को समझाने मेंमें आसानी होगी

इसी क्रम में सबसे पहले हम भारत में रसविद्या (रसायन शास्त्र ) से तंत्रवाद के सम्बन्ध का अवलोकन करते हैं। "ब्रह्मांडे ये गुणा: संति ते तिष्ठान्ति कलेवरे ..." अर्थात मानव देह सूक्ष्म ब्रह्मांड है। यह निष्कर्ष तंत्रवाद का हैइनके मत को देहवाद इस कारण कहा जाता है क्योंकि इन्होंने देह से इतर किसी सत्ता के अस्तित्व को नाकारा हैशरीर में इसी रूचि के कारण भौतिकवादी विज्ञान में योगदान करने में सफल हो पाए जैसे रसायन विज्ञान , आयुर्विज्ञान विज्ञान आदिजबकि देह की उपेक्षा के कारन भाववादी शरीर रचना ज्ञान एवं द्रव्य ज्ञान के प्रति उदासीन बने रहेयहाँ यह तथ्य ध्यातव्य हो कि भारतीय रसायन विज्ञान के पौराणिक ग्रन्थ इन्ही प्राचीन भौतिकवादियों के लिखे हुए हैं।

रसायन शास्त्र की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ईसवी सन की आठवीं शताब्दी का है जिसका नाम है रसरत्नाकरविद्वानों ने ऐसे और भी कई ग्रंथो की सूचि बनाई है जिनमे रसरत्नाकर, रसाणर्व, काक चन्देश्वरी मततंत्र, रसेन्द्रचिंतामणि आदि हैं। तांत्रिक रसविज्ञानियों ने न केवल रसायन के ये सुप्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे बल्कि उन्होंने वास्तविक प्रयोगशालाओं में कई यंत्रों का अविष्कार भी किया जैसे दोल यंत्रम, स्वेदनी यंत्रम, पातन यंत्रम, धूप यंत्रम , कोष्ठी यंत्रम, विद्याधर यंत्रम, तिर्यक पातन यंत्रम आदि हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है की तांत्रिक रस विज्ञानियों ने न केवल इनका अविष्कार किया वरन इनके उपयोग को सैद्धांतिक रूप भी दिया और यह स्पष्ट घोषणा भी की - उपरोक्त प्रयोग मैंने अपने हांथो से किये हैं, ये केवल सुनी सुनाई बातो को आधार बना कर नही लिखे गए हैं और इनका उपयोग जन कल्याण के लिए किया जायेगा (History of chemistry in ancient and medieval India - लेखक - Priyadaranjan Rây, Prafulla Chandra Rāy)। इस वाक्य से दो बाते स्पष्ट होती है प्रथम तो यह की प्रयोगकर्ता तांत्रिक ने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखे हैं, द्वितीय इस वाक्य में उसकी जनता के प्रति सेवा भाव और प्रतिबद्धता का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है

हम जानते हैं कि भारत में मायावादियों/प्रत्यय वादियों के विरुद्ध और पदार्थ से जगत की उत्पति के सिद्धांत के समर्थक मुख्यतः तीन मतावलंबी थे। प्रथम लोकायत मत के प्रतिनिधि जो बाद में चार्वाक के नाम से प्रसिद्द हुए। वे न तो अदृष्ट में विश्वाश करते थे न ही भौतिक विश्व से अलग किसी परलोक को मान्यता देते थे। यह एक पूर्णत भौतिकवादी सिद्धांत है जिसके अनुसार चार तत्व (भूत ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु से पूरे संसार की रचना हुई बताई जाती हैये उनकी स्पष्ट मान्यता थी की मानव शरीर का निर्माण भी संसार की तरह इन्ही चार महाभूतों से होता है। द्वितीय, प्रधान अथवा प्रकृति का सिद्धांत, यह सांख्य मत के नाम से प्रसिद्ध है जो अवैदिक और लोकायत की अपेक्षा सुस्पष्ट तरीके से भारतीय भौतिकवादी चिंतन प्रणाली के अनुरूप है। आधुनिक विद्वानों ने इसका उद्भव तंत्र से बताया है, शंकर इसके खंडन के क्रम में वेदान्त दर्शन का सबसे प्रमुख विरोधी बताने की स्थिति में पहुँच जाते हैं। तृत्तीय मत परमाणु वादियों का माना जाता है जिनमे मुख्यतः न्याय-वैशेषिक प्रमुख हैं। इनमे लोकयातिकों को मूलतः जनसामान्य का दर्शन माना जाता है और लोकायत मत और परवर्ती भौतिकवादी दर्शन सांख्य का उद्भव तंत्र से हुआ माना जाता  है।

विज्ञान के संरक्षक के रूप में नास्तिक भौतिकवादी

वेदान्त की प्रत्ययवादी विचारधारा में विज्ञान के लिए कोई जगह नही थी। भारतीय वेदांती आदर्शवादियों ने जहाँ स्पष्ट घोषणा की है की विश्व के होने का एकमात्र कारण कोई अलौकिक शक्ति है। अर्थात विशुद्ध चित्त ही अंतिम सत्य है। इसे कई संज्ञाओं से नवाजा गया है जैसे अंत:करण, परम ब्रह्मा, चेतना पुंज आदि। भारतीय मायावादी/प्रत्ययवादी चेतना या विचार को ही विश्व के होने का कारण मानते हैं। यह संज्ञाएँ भिन्न भिन्न आदर्शवादी दार्शनिकों के लिए अलग - अलग हो सकती है परन्तु हमारा ध्यान इस तथ्य पर होना चाहिए की जिन दार्शनिकों ने विशुद्ध रूप से प्रत्यय (विचार ) को जगत का आधार बताया और जगत की भौतिकता को तिरस्कार-पूर्ण दृष्टि से देखा उन सब में कौन सी धारणा सर्वनिष्ठ है? उत्तर साफ है जब किसी विचार को जगत का आधार बताना हो तब जगत की भौतिकता को बलपूर्वक नकारना आवश्यक हो जाता हैयहीं इस तथ्य को भी स्पष्ट समझा जा सकता है की जब राजनितिक कारणों से कोई दर्शनवेता अनुभूत जगत को मिथ्या साबित करने का प्रयास करे तो उसका सर्वाधिक तीव्र प्रहार इसी भौतिकता पर होगा, और इसके लिए वह प्रत्यक्षता और तर्क की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाएगा

भारतीय भाववादी दार्शनिकों ने इसी युक्ति का प्रयोग किया भी है जैसा की हम लेख में पहले देख चुके हैं। अनुभव, विवेक और तर्क को अस्वीकार करते हुए भारतीय मायावाद के समर्थक भी रहस्यात्मक भाव समाधी की आत्म मुग्धता और विभ्रम की स्थिति को अंतिम आध्यात्मिक सत्य बताते हैं यह सर्वज्ञात तथ्य है एवं यहाँ हमारे विवेचन का विषय नही है इन्द्रियों और संवेदनो द्वारा जो अनुभूत करते हैं वह निर्विवाद रूप से जगत की भौतिकता और सत्यता को प्रमाणित करता है। अब सवाल है फिर वे कौन से लोग थे जिन्होंने विज्ञान को तमाम विरोधों और उग्र प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही के बावजूद जीवित रखा ? इसका जवाब साफ है वे भौतिकवादी ही थे जिन्होंने देहवाद को प्रश्रय दिया और विज्ञान के उत्कर्ष को सुनिश्चित कियापरन्तु जब आदिम सामुदायिक गण-लोकतंत्र व्यवस्था का पतन हुआ एवं राज्य सत्ता का प्रभाव बढ़ा और मायावाद को प्रतिष्ठा हासिल हुई और विज्ञान को प्रश्रय देने वाली विचारधारा शेष न रही, तब वैज्ञानिक ग्रंथों में धर्म और परलोक के कचड़े को ठूंस कर उसे वेदांती रूप देने का प्रयास किया गयायह राज्य सत्ता के बंधक के रूप में विज्ञान और भौतिकवादियों के विचारों को दिया गया दंड था , जो "विजेता के न्याय" को परिभाषित करता हैयहाँ ध्यातव्य है की महाभारत के शांति पर्व (अध्याय -१०७ ) में गणों के लोक तंत्र का उल्लेख युधिष्ठिर के किसी प्रश्न के उत्तर में भीष्म करते हैं और अथर्व वेद में भी इसी लोकतंत्र का गुणगान करते हुए आदेश दिया गया है ..
           हे राजन, तुझे राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुने एवं स्वीकारें
          (अथर्व वेद ,तृतीय कांड, सूक्त ४ ,श्लोक २ )

कहा जा सकता है की अथर्ववेद के समाज के सम्मानीय तबके में हुई अवमानना के पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण थे जब लोकतंत्र का पूर्णतः विनाश हुआ जनता के हित को परिभषित करती भौतिकवाद को प्रश्रय देती हर कृति का मूल स्वर या तो भाव वाद में प्रक्षिप्त कर दिया गया या जिन्हें प्रक्षिप्त न किया जा सके उन्हें समूल नष्ट कर दिया गया। लोकायत के कई नष्ट ग्रन्थ जिनका उल्लेख कई बौद्ध ग्रंथों में खंडनार्थ किया गया है इसका ज्वलंत उदहारण है

विज्ञान एक बंधक के रूप में

विज्ञान राज्यपोषित भाववाद के सामने किस प्रकार पंगु हुआ इसका एक उदाहरण हमें खगोल विज्ञान (ज्योतिष) के दो प्रसिद्ध विद्वानों वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त के स्रोत साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है। सर्वज्ञात तथ्य है कि अलबरुनी (दसवीं शताब्दी) ने भारत आकर इन दोनों के विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य का अध्ययन किया था और उसने वराहमिहिर की तुलना में ब्रह्मगुप्त को अधिक बड़ा विद्वान बताया था। अलबरुनी स्पष्ट लिखते हैं कि भारतीय गणित ज्योतिषियों को सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के वैज्ञानिक कारण का ज्ञान था (एडवर्ड सची  ii.107। हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्मा, आदर्श हिंदी पुस्तकालय - 1967)। उसने लिखा - ‘भारतीय वैज्ञानिक जानते हैं की पृथ्वी की छाया से चंद्रग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्यग्रहण होता है। इसी तथ्य पर उन्होंने ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथों में अपने परिसंख्यानों की नीव रखी है।’ अलबरुनी को यह बात बहुत विचित्र प्रतीत होती है कि एक तरफ ये दोनों विज्ञानी प्रत्यक्ष ज्ञान और कार्य - कारण सम्बन्ध के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखते हैं और दूसरी तरफ तात्कालीन समाज में प्रचलित ग्रहण सम्बन्धी पुरोहित पोषित मिथकों जिनमें ग्रहण का कारण राहु-केतु को बताया गया है, को समर्थन और सम्मान देते नजर आते हैं।

अलबरुनी कहते हैं - ‘मिथकीय कथा का समर्थन करने से पहले वाराह मिहिर खुद को एक ऐसे विज्ञानी के रूप में सामने लाते हैं, जो इस मिथकीय कथा को न मानकर शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार पर ग्रहण के वैज्ञानिक कारण की विवेचना करते हैं, परन्तु उसके ठीक बाद वह उस मिथकीय कथा का उल्लेख भी करते हैं।’ इसका कारण बताते हुए अलबरुनी कहते हैं - ‘वराह मिहिर क्योंकि ब्राह्मणों थे और खुद को उनसे अलग न कर पाने की दशा में उसने वैज्ञानिक विवेचन को मिथकीय आवरण से ढंका है।’ अल बरुनी आगे कहते हैं - ‘फिर भी वे दोष देने योग्य नही हैं क्योंकि उनकी विवेचन सत्य के दृढ आधार पर खड़ा है और तमाम अन्य बातों के बावजूद वे स्पष्ट रूप से सत्य कह देते हैं।’ यह छठी शताब्दी का आरम्भिक काल माना जाता है। ब्रह्मगुप्त के काल तक राज्यसत्ता की जड़ें और मजबूत हो चुकी थीं और विज्ञान पर अवैज्ञानिक मायावादी विचारधारा का दबाव भी बहुत बढ़ चुका था।

इस काल में विज्ञानेतर विचारधारा के समर्थक यह समझ चुके थे कि अगर विज्ञान का प्रभाव बढ़ता रहा प्रकृति की घटनाओं को  कार्य-कारण सम्बन्ध और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर विवेचित जाता रहा तो अन्धविश्वास और पारलौकिकता की अवधारणा को विज्ञान से चुनौती मिलनी ही है  और इससे उनके द्वारा अर्थोपार्जन एवं राज्य सत्ता के संरक्षण हेतु फैलाये गए मायावाद को हानि हो सकती है। इस कारण वे बहुत सतर्क हो चुके थे और विज्ञान के दमन के लिए प्रतिबद्ध भी। इसीलिए ब्रह्मगुप्त ने अपनी अनुपम कृति ब्रह्म सिद्धांत की प्रारंभिक पंक्तियों में ही प्रतिविचार धारा को मान्यता प्रदान की

कई आधुनिक विद्वानों का मत है कि हो सकता है यह अंश बाद में क्षेपक के रूप में जोड़े गए हों। अलबरुनी का स्पष्ट मत है कि ब्रह्मगुप्त जो इस कृति की रचना के समय मात्र ३० वर्ष के थे, ने अपनी प्राणों की रक्षा के लिए विज्ञानेतर विचारधारा के सामने आत्म समर्पण कर दिया हो। यहाँ तक कि अलबरुनी इस घटना की तुलना सुकरात को दिए गए विष से करते हैं जो उन्हें धर्म सत्ता के विरुद्ध जाने के अपराध में दिया गया था। यह स्थिति गणित ज्योतिष और ज्यामिति की थी जो किसी न किसी रूप से वेद विद्या से सबद्ध रही थी। जब वि‍ज्ञानेतर विचारधारा का प्रभाव इन विद्याओं पर इतना भयंकर पड़ा तब चिकित्सा शास्त्र जैसा विषय जो मूलत: घुमंतू जनजातियों के द्वारा विकसित था और जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा किये बैठा था, उस पर पड़े प्रभाव की कल्पना सहज ही की जा सकती है। आज उपलब्ध चिकित्सा विज्ञान एवं रसविज्ञान सम्बन्धी स्रोत साहित्य के अध्ययन से हम स्पष्ट रूप से उन पर आरोपित विज्ञानेतर कचरे की जाँच और पहचान कर सकते हैं।

यह साबित करने के लिए इतने प्रमाण पर्याप्त होंगे कि विज्ञान न कभी धर्म की छत्रछाया में था और ना ही प्राचीन भारतीय ज्ञान को प्रतिविचारधरा द्वारा आरोपित सिद्धांतों के आलोक में देखा जाना चाहिए। वे स्पष्टवादी भौतिकवादी ही थे जिन्होंने प्राचीन भारत में विज्ञान की लौ को तमाम विरोधों और अपमान के बाद भी जलाए रखा। वे नास्तिकता को पोषित करते रहे और विज्ञान इसी आलोक में तब तक फूलता-फलता रहा जब तक राज्य सत्ता इसके दमन के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध न हुई। अंततः विज्ञान का गला इसी मायावादी विचारधारा के नुमाइंदों ने राज्यसत्ता के पूर्ण समर्थन के आलोक में घोंटा और राज्य सत्ता के पूर्ण विकास के साथ ही विज्ञान का भी पूर्ण रूप से पतन हो गया। यह वही वक्त था जब राज्य सत्ता अपने पूर्ण दमनकारी अवस्था में थी और जनतंत्र का पूर्ण विनाश हो चुका था। इसी सन्दर्भ में हम यह भी देख सकते हैं कि जिन देशों में लोकतंत्र भारत से पहले आया वहां विज्ञान का स्तर आज भारत के सापेक्ष अधिक आगे है। 

विज्ञान मूलतः जनकल्याण और मानवता वाद की पैरवी करता है इसी प्रकार कहा जा सकता है विज्ञान को फलने-फूलने के लिए लोकतान्त्रिक और सजग समाज की आवश्यकता होती है परन्तु शायद यह हमारा दुर्भाग्य ही है की आज भी भारत में पुनरुत्थानवादी ताकतें विज्ञान के भौतिकवादी दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध कर रही हैं। कई अवैज्ञानिक मतों को और अंधविश्वासों को विज्ञान का नाम दिया जा रहा है। प्रत्यक्षता की अवहेलना की जा रही है और वैज्ञानिक सोच के प्रति घृणा फ़ैलाने, विज्ञान को गरीबी, विनाश, युद्ध आदि के लिए दोषी ठहराने का प्रपंच रचा जा रहा है। आधुनिक ज्ञान जो पुरातन का ही विकसित स्वरुप है, की अवहेलना घातक हो सकती है. भारत को कभी अपनी वैज्ञानिक खोजों के लिए विश्व भर में प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यदि हम उस प्रतिष्ठा को वापस पाना चाहते हैं तों हमें भ्रमों और अन्धाविश्वासों की तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्याओं से परहेज करना चाहिए और प्रत्यक्षता और कार्य कारण समबन्ध के आधार पर किये गए वस्तुगत विवेचन को ही मान्यता देनी चाहिए शायद तब ही हम भारत की प्रतिष्ठा को वापस पा सकेंगे। 

- लवली गोस्वामी

Tuesday, March 1, 2011

क्या लिंग पूजन भारतीय संस्कृति है ?


           आज 'शिवरात्री' है। एक ऐसे भगवान की पूजा आराधना का दिन जिसे आदि शक्ति माना जाता है, जिसकी तीन आँखें हैं और जब वह मध्य कपाल में स्थित अपनी तीसरी आँख खोलता है तो दुनिया में प्रलय आ जाता है। इस भगवान का रूप बड़ा विचित्र है। शरीर पर मसान की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटा में गंगा नदी तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को उन्होंने अपना वाहन बना रखा है।
          भारत में तैतीस करोड़ देवी देवता हैं, मगर यह देव अनोखा है। सभी देवताओं का मस्तक पूजा जाता है, चरण पूजे जाते हैं, परन्तु इस देवता का 'लिंग' पूजा जाता है। बच्चेबूढ़ेनौजवान, स्त्रीपुरुष, सभी बिना किसी शर्म लिहाज़ के , योनी एवं लिंग की एक अत्यंत गुप्त गतिविधि को याद दिलाते इस मूर्तिशिल्प को पूरी श्रद्धा से पूजते हैं और उपवास भी रखते हैं।
          यह भगवान जिसकी बारात में भूतप्रेतपिशाचों जैसी काल्पनिक शक्तियाँ शामिल होती हैं, एक ऐसा शक्तिशाली देवता जो अपनी अर्धांगिनी के साथ एक हज़ार वर्षों तक संभोग करता है और जिसके वीर्य स्खलन से हिमालय पर्वत का निर्माण हो जाता है। एक ऐसा भगवान जो चढ़ावे में भाँगधतूरा पसंद करता है और विष पीकर नीलकण्ठ कहलाता है। ओफ्फोऔर भी न जाने क्याक्या विचित्र बातें इस भगवान के बारे में प्रचलित हैं जिन्हें सुनजानकर भी हमारे देश के लोग पूरी श्रद्धा से इस तथाकथित शक्ति की उपासना में लगे रहते है।
          हमारी पुरा कथाओं में इस तरह के बहुत से अदृभुत चरित्र और उनसे संबधित अदृभुत कहानियाँ है जिन्हें पढ़कर हमारे पुरखों की कल्पना शक्ति पर आश्चर्य होता है। सारी दुनिया ही में एक समय विशेष में ऐसी फेंटेसियाँ लिखी गईं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों से परे कल्पनातीत पात्रों, घटनाओं के साथ रोचक कथाओं का तानाबाना बुना गया है। सभी देशों में लोग सामंती युग की इन कथाओं को सुनसुनकर ही बड़े हुए हैं जो वैज्ञानिक चिंतन के अभाव में बेसिर पैर की मगर रोचक हैं। परन्तु, कथाकहानियों के पात्रों को जिस तरह से हमारे देश में देवत्व प्रदान किया गया है, अतीत के कल्पना संसार को ईश्वर की माया के रूप में अपना अंधविश्वास बनाया गया है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी देश में नहीं देखा जाता। अंधविश्वास किसी न किसी रूप में हर देश में मौजूद है मगर भारत में जिस तरह से विज्ञान को ताक पर रखकर अंधविश्वासों को पारायण, जपतप, व्रतत्योहारों के रूप में किया जाता है यह बेहद दयनीय और क्षोभनीय है।
          देश की आज़ादी के समय गाँधी के तथाकथित 'सत्य' का ध्यान इस तरफ बिल्कुल नहीं गया। नेहरू से लेकर देश की प्रत्येक सरकार ने विज्ञान के प्रचार-प्रसार, शिक्षा और भारतीय जनमानस के बौद्धिक विकास में किस भयानक स्तर की लापरवाही बरती है, वह इन सब कर्मकांडों में जनमानस की, दिमाग ताक पर रखकर की जा रही गंभीरतापूर्ण भागीदारी से पता चलता है। आम जनसाधारण ही नहीं पढ़े लिखे शिक्षित दीक्षित लोग भी जिस तरह से आँख मूँदकर 'शिवलिंग' को भगवान मानकर उसकी आराधना में लीन दिखाई देते हैं, वह सब देखकर इस देश की हालत पर बहुत तरस आता है।
          यह भारतीय संस्कृति है! अंधविश्वासों का पारायण भारतीय संस्कृति है ! वे तथाकथित शक्तियाँ, जिन्होंने तथाकथित रूप से विश्व रचा, जो वस्तुगत रूप से अस्तित्व में ही नहीं हैं, उनकी पूजा-उपासना भारतीय संस्कृति है! जो लिंग 'मूत्रोत्तसर्जन' अथवा 'कामवासना' एवं 'संतानोत्पत्ति' के अलावा किसी काम का नही, उसकी आराधना, पूजन, नमन भारतीय संस्कृति है?
          चिंता का विषय है !! कब भारतीय जनमानस सही वैज्ञानिक चिंतन दृष्टि सम्पन्न होगा !! कब वह सृष्टी में अपने अस्तित्व के सही कारण जान पाएगा!! कब वह इस सृष्टि से काल्पनिक शक्तियों को पदच्यूत कर अपनी वास्तविक शक्ति से संवार पाएगा ?

Sunday, February 6, 2011

क्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है !?

सरल मेरा दोस्त है। अपनी सरलता की ही वजह से मेरा दुश्मन भी है। मौलिक है, नास्तिक है, विद्रोही है। जाहिर है ऐसे आदमी के रिश्ते सहज ही किसी से नहीं बनते। बनते हैं तो तकरार, वाद-विवाद, तूतू मैंमैं भी लगातार बीच में बने रहते हैं। यानि कि रिश्ता टूटने का डर लगातार सिर पर लटकता रहता है।
अभी हाल ही में सरल के दो बहनोईयों का निधन 6-8 महीनों के अंतराल में हो गया। कुछेक मित्रों की प्रतिक्रिया थोड़ी दिल को लगने वाली तो थी पर सरल को वह स्वाभाविक भी लगी। संस्कारित सोच के अपने दायरे होते हैं। मित्रों का इशारा था कि अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आया कि तुम ईश्वर को नहीं मानते, इसलिए यह सब हुआ ?

यह सोच सरल के साथ मुझे भी बहुत अजीब लगी।

पहली अजीब बात तो यह थी कि सरल माने न माने पर उसके दोनों बहनोई ईश्वर में पूरा विश्वास रखते थे। फिर ईश्वर ने सरल के किए का बदला उसके बहनोईयों और बहिन-बच्चों से क्यों लिया ?

दूसरी अजीब बात मुझे यह लगी कि अगर ईश्वर को न मानने से आदमी इस तरह मर जाता है तो फिर ईश्वर को मानने वाले को तो कभी मरना ही नहीं चाहिए ! वैसे अगर सब कुछ ईश्वर के ही हाथ में है तो ईश्वर नास्तिकों को बनाता ही क्यों है !? पहले बनाता है फिर मारता है ! ऐसे ठलुओं-वेल्लों की तरह टाइम-पास जैसी हरकतें कम-अज़-कम ईश्वर जैसे हाई-प्रोफाइल आदमी (मेरा मतलब है ईश्वर) को तो शोभा नहीं देतीं।

इससे भी अजीब बात यह है कि ईश्वर क्या किसी मोहल्ले के दादा की तरह अहंकारी और ठस-बुद्धि है जो कहता है कि सालो अगर मुझे सलाम नहीं बजाओगे तो जीने नहीं दूंगा ! मार ही डालूंगा ! क्या ईश्वर किसी सतही स्टंट फिल्म का माफिया डान है कि तुम्हारे किए का बदला मैं तुम्हारे पूरे खानदान से लूंगा !

क्या ईश्वर को ऐसा होना चाहिए ?

ईश्वर को मानने वालों की सतही सोच ने उसे किस स्तर पर ला खड़ा किया है!

वैसे अगर ईश्वर वाकई है तो क्या उसे यह अच्छा लगता होगा !?

संवादघर पर पूर्व-प्रकाशित