( इस ब्लॉग की सदस्या लवली गोस्वामी का यह
महत्त्वपूर्ण आलेख गर्भनाल पत्रिका के दिसंबर
अंक में ‘शंकराचार्य का रचनाकर्म : विज्ञानवादी दृष्टि से एक समीक्षा’’
शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां उस आलेख का मूल प्रारूप साभार प्रस्तुत
किया जा रहा है। - मोडेरेटर )
आधुनिक समय में जब दर्शन अपनी पुरातन सीमाएं लांघकर सुविकसित और सुसंगत
हो चुका है, यह आवश्यक है कि भारतीय दर्शन की समीक्षा की जाए और इसमें
उपस्थित बुद्धिवादी, वस्तुगत और तर्कपरक चिंतन और चिंतकों के विचारों को
जनता के समक्ष रखा जाए जिससे कि वे इससे लाभान्वित हो सकें. भारतीय दर्शन
की समीक्षा विज्ञान आधारित दृष्टि और तर्क के आधार पर करने पर हमें ज्ञात
होता है कि यहाँ दर्शन का एक समृद्ध इतिहास रहा है और तार्किक चिंतन को
प्रश्रय देने वाले कई मत और संप्रदाय रहे हैं. वहीं दूसरी ओर तर्कपूर्ण
चिंतन और ज्ञान की निंदा करने वाले और विश्व की भ्रमपूर्ण व्याख्या करने
वाले दार्शनिकों की भी कोई कमी नही रही है. इस लेख का विषय शंकराचार्य के
रचनाकर्म की इसी दृष्टि से समीक्षा करने और तर्कपरक बुद्धिवादी चिंतन के
प्रति उनके दृष्टिकोण की व्याख्या करना है.
शंकाराचार्य वेदांत के अद्वैत मत के व्याख्याकार थे. इनका जन्म केरल के मालबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर शिवगुरु नम्बूदरी के यहाँ हुआ था. बत्तीस वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई. शंकराचार्य ने महर्षि बादरायण के सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों तथा गीता पर भी भाष्य रचे एवं इन्होंने बौद्ध महायानियों की रणनीति का अनुसरण करते हुए देश के चारो कोनों में चार मठ स्थापित किये.इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर लिखे अपने प्रसिद्ध भाष्य में वेदान्त को नया विस्तार दिया एवं अद्वैत वेदान्त के पूर्व व्याख्याकार आचार्य गौड़पाद के दर्शन को सुविकसित रूप प्रदान किया.
शंकाराचार्य वेदांत के अद्वैत मत के व्याख्याकार थे. इनका जन्म केरल के मालबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर शिवगुरु नम्बूदरी के यहाँ हुआ था. बत्तीस वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई. शंकराचार्य ने महर्षि बादरायण के सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों तथा गीता पर भी भाष्य रचे एवं इन्होंने बौद्ध महायानियों की रणनीति का अनुसरण करते हुए देश के चारो कोनों में चार मठ स्थापित किये.इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर लिखे अपने प्रसिद्ध भाष्य में वेदान्त को नया विस्तार दिया एवं अद्वैत वेदान्त के पूर्व व्याख्याकार आचार्य गौड़पाद के दर्शन को सुविकसित रूप प्रदान किया.
शंकर और उनकी सामाजिक दृष्टि
हम
जानते हैं की एक धर्म शास्त्र प्रणेता के रूप में मनु के विचार शूद्रों के
प्रति विद्वेषपूर्ण थे. शंकर का निरपेक्ष मूल्यांकन उन्हें एक ऐसे
दार्शनिक के रूप में सामने रखता है, जो मनु द्वारा प्रतिपादित उसी
ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रतिनिधि विदित होते हैं. उनके दृष्टिकोण में
सामान्य लोगों एवं उनके द्वारा भौतिकता को सम्मान देने की परम्परा के
प्रति गहरे विद्वेष की भावना है. शूद्रों के तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के
अधिकार को ख़ारिज करने के लिए ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र-भाष्य के एक खंड में वे
मनु के उस अनुच्छेद को उद्धृत करते हैं, जिसमे मनु ने शूद्रों के प्रति
अपने घृणापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं. शंकर उत्तर देते हैं कि शूद्र इस
दार्शनिक गूढ़ ज्ञान के अधिकारी क्यों नही हैं, शंकर कहते हैं -
इतश्च न शूद्रस्याधिकारः यदस्य स्मृतेः श्रवणाध्ययनार्थप्रति प्रतिषेधो
भवति। वेदश्रवणप्रतिषेधः , वेदाध्ययनप्रतिषेधः , तदर्थज्ञानानुष्ठानयो च
प्रतिषेधः शूद्रस्य स्मर्यते । श्रवणप्रतिषेधस्तावत् - ’अथ हास्य
वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् ’ इति: ’पद्यु ह वा
एतच्छमशनं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् ’ इति च।
अत एवाध्ययनप्रतिषेधः। यस्य हि समीपेऽपि नाध्येतव्यं भवति, स
कथमश्रुतमधीयीत। भवति च -- वेदोच्चारणे जिह्वावाच्छेदः , धरणे शरीरभेद
इति । अत एव चार्थावर्थज्ञानानुष्ठानयोः प्रतिषेधो भ वति -- ’ न शूद्राय
मतिं दद्यात् ’ इति , द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम् इति च।
इतश्च न शूद्रस्याधिकारः यदस्य स्मृतेः श्रवणाध्ययनार्थप्रति प्रतिषेधो
भवति। वेदश्रवणप्रतिषेधः , वेदाध्ययनप्रतिषेधः , तदर्थज्ञानानुष्ठानयो च
प्रतिषेधः शूद्रस्य स्मर्यते । श्रवणप्रतिषेधस्तावत् - ’अथ हास्य
वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् ’ इति: ’पद्यु ह वा
एतच्छमशनं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् ’ इति च।
अत एवाध्ययनप्रतिषेधः। यस्य हि समीपेऽपि नाध्येतव्यं भवति, स
कथमश्रुतमधीयीत। भवति च -- वेदोच्चारणे जिह्वावाच्छेदः , धरणे शरीरभेद
इति । अत एव चार्थावर्थज्ञानानुष्ठानयोः प्रतिषेधो भ वति -- ’ न शूद्राय
मतिं दद्यात् ’ इति , द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम् इति च।
(ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥१.३.३८॥
अर्थात - शूद्र का इस कारण भी अधिकार नहीं है कि मनु स्मृति उन्हें वेद के अध्ययन, वेद-श्रवण और वैदिक विषयों के निष्पादन से भी वर्जित करती है. निम्नलिखित अवतरण के अनुसार उन्हें वेद श्रवण से वर्जित किया गया है.
- जो (शूद्र) वेदों को सुने, उसके कानों मे सीसा और लाख (पिधला हुआ) भर देना चाहिए.
- शूद्र श्मशान (के समान) हैं, इसलिए शूद्रों के निकट (वेदों का) पाठ नही करना चाहिए.
इस प्रकार एक शूद्र के लिए वेदाध्ययन वर्जित है, अतः जब शूद्रों के निकट वेदों का पाठ भी नही किया जा सकता तब भला वह वेदाध्ययन कैसे कर सकता है?(अर्थात नही कर सकता). आगे और भी..
- जो (शूद्र) वेदों का उच्चारण करे उसकी जीभ काट ली जानी चाहिए और जो वेदों को धारण करे उसका शरिर मध्य से चीर दिया जाना चाहिए.
इस प्रकार वेद श्रवण और वेदाध्ययन का निषेध वैदिक विषयों के ज्ञानार्जन का भी निषेध है.
- शूद्र को ज्ञान प्रदान नही किया जाना चाहिए - द्विजों को ही अध्ययन, और दान प्राप्ति का अधिकार है.
इस प्रकार शंकर सामान्य श्रमिको को दर्शन के अध्ययन से रोकने की मनु की व्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए सत्ता पक्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का उत्तम प्रमाण पाठकों के समक्ष रखते हैं. उन सभी अनुच्छेदों को यहाँ उद्धृत करने का कोई औचित्य नही है जिनमें शंकर ने मनु की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक ऐसा स्मृतिकार बताया है जिस पर किसी वेदांती दार्शनिक को निर्भर रहना चाहिए. यहाँ इस बात को छोड़ भी दिया जाए कि इन नियमों की परिणति क्या होती होगी और इनका पालन किस हद तक किया जाता होगा तब भी इन्हें शंकर द्वारा उद्धृत किया जाना भर ही उनकी तथाकथित "मानवता दृष्टि" के सत्तापक्षीय विद्वानों द्वारा प्रायोजित भ्रम की धज्जियाँ उडाता है. हम स्पष्ट देख सकते हैं कि परोक्ष रूप से शंकर के दर्शन का ध्येय मनु के अमानवीय और विद्वेषपूर्ण समाजशास्त्र को बौद्धिक संरक्षण देना ही है. इसक एक ऊदाहरण तब देखने को मिलता है जब सांख्य जो एक भौतिकवादी हिन्दू दर्शन है का उल्लेख करते हुए शंकर कहते हैं कि ...
"मनुना च....सर्वात्मवदर्शनं प्रशंसता कापिलं मतं निन्द् यत इति गम्यते।
कापिलस्य तंत्रस्य वेद विरुद्धत्वं वेदानुसारिमनुवचनविरुद्धत्वं च...।"
अर्थात - शूद्र का इस कारण भी अधिकार नहीं है कि मनु स्मृति उन्हें वेद के अध्ययन, वेद-श्रवण और वैदिक विषयों के निष्पादन से भी वर्जित करती है. निम्नलिखित अवतरण के अनुसार उन्हें वेद श्रवण से वर्जित किया गया है.
- जो (शूद्र) वेदों को सुने, उसके कानों मे सीसा और लाख (पिधला हुआ) भर देना चाहिए.
- शूद्र श्मशान (के समान) हैं, इसलिए शूद्रों के निकट (वेदों का) पाठ नही करना चाहिए.
इस प्रकार एक शूद्र के लिए वेदाध्ययन वर्जित है, अतः जब शूद्रों के निकट वेदों का पाठ भी नही किया जा सकता तब भला वह वेदाध्ययन कैसे कर सकता है?(अर्थात नही कर सकता). आगे और भी..
- जो (शूद्र) वेदों का उच्चारण करे उसकी जीभ काट ली जानी चाहिए और जो वेदों को धारण करे उसका शरिर मध्य से चीर दिया जाना चाहिए.
इस प्रकार वेद श्रवण और वेदाध्ययन का निषेध वैदिक विषयों के ज्ञानार्जन का भी निषेध है.
- शूद्र को ज्ञान प्रदान नही किया जाना चाहिए - द्विजों को ही अध्ययन, और दान प्राप्ति का अधिकार है.
इस प्रकार शंकर सामान्य श्रमिको को दर्शन के अध्ययन से रोकने की मनु की व्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए सत्ता पक्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का उत्तम प्रमाण पाठकों के समक्ष रखते हैं. उन सभी अनुच्छेदों को यहाँ उद्धृत करने का कोई औचित्य नही है जिनमें शंकर ने मनु की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक ऐसा स्मृतिकार बताया है जिस पर किसी वेदांती दार्शनिक को निर्भर रहना चाहिए. यहाँ इस बात को छोड़ भी दिया जाए कि इन नियमों की परिणति क्या होती होगी और इनका पालन किस हद तक किया जाता होगा तब भी इन्हें शंकर द्वारा उद्धृत किया जाना भर ही उनकी तथाकथित "मानवता दृष्टि" के सत्तापक्षीय विद्वानों द्वारा प्रायोजित भ्रम की धज्जियाँ उडाता है. हम स्पष्ट देख सकते हैं कि परोक्ष रूप से शंकर के दर्शन का ध्येय मनु के अमानवीय और विद्वेषपूर्ण समाजशास्त्र को बौद्धिक संरक्षण देना ही है. इसक एक ऊदाहरण तब देखने को मिलता है जब सांख्य जो एक भौतिकवादी हिन्दू दर्शन है का उल्लेख करते हुए शंकर कहते हैं कि ...
"मनुना च....सर्वात्मवदर्शनं प्रशंसता कापिलं मतं निन्द् यत इति गम्यते।
कापिलस्य तंत्रस्य वेद विरुद्धत्वं वेदानुसारिमनुवचनविरुद्धत्वं च...।"
(ब्रह्मसूत्र भाष्य(स्मृत्य धिकरणम् ॥२.११॥))
अर्थात - जहाँ मनु ने ..सर्वात्मत्व दर्शन की प्रशंसा की है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से कपिल के मत की निंदा की है. कपिल का तंत्र वेदों और वेदों का अनुसरण करने वाले मनु के वचनों के विरुद्ध है. जाहिर होता है शंकर के मन में मनु के प्रति सम्मान और सहानुभूति की भावना है जो उन्हें भौतिकवादी दर्शनों की निंदा करने पर विवश करती है और वे निष्पक्ष नही रह पाते. यहाँ से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सांख्य दर्शन जिसके प्रणेता कपिल मुनि थे मूलतः एक अवैदिक दर्शन था. वे अपनी दार्शनिक कृति में लोकायतों के मत का भी खंडन प्रस्तुत करते हैं. पर इन भौतिकवादी दर्शनों के खंडन से पूर्व वे मनु को उद्धृत करना नहीं भूलते जिससे कि पाठक उनके दर्शन की श्रेष्ठता स्वीकारने के लिए तर्कपुर्ण चितंन के पुर्व ही विवश हो जाए.
अर्थात - जहाँ मनु ने ..सर्वात्मत्व दर्शन की प्रशंसा की है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से कपिल के मत की निंदा की है. कपिल का तंत्र वेदों और वेदों का अनुसरण करने वाले मनु के वचनों के विरुद्ध है. जाहिर होता है शंकर के मन में मनु के प्रति सम्मान और सहानुभूति की भावना है जो उन्हें भौतिकवादी दर्शनों की निंदा करने पर विवश करती है और वे निष्पक्ष नही रह पाते. यहाँ से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सांख्य दर्शन जिसके प्रणेता कपिल मुनि थे मूलतः एक अवैदिक दर्शन था. वे अपनी दार्शनिक कृति में लोकायतों के मत का भी खंडन प्रस्तुत करते हैं. पर इन भौतिकवादी दर्शनों के खंडन से पूर्व वे मनु को उद्धृत करना नहीं भूलते जिससे कि पाठक उनके दर्शन की श्रेष्ठता स्वीकारने के लिए तर्कपुर्ण चितंन के पुर्व ही विवश हो जाए.
भौतिकता और प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रति शंकर का दृष्टिकोण
यथार्थ
अथवा भौतिकता ही सैद्धान्तिकता की कसौटी होती है. प्रत्येक सैद्धांतिक
स्थापना का परीक्षण उसके प्रति व्यावहारिक उपागम को अपनाकर ही किया जा
सकता है. शंकर ज्ञान के सभी प्रमुख स्रोतों जैसे तर्क, प्रमाण, व्यावहारिक
ज्ञान और कारणता को ख़ारिज करते हैं. ज्ञान के इन स्रोतों की अस्वीकृति
उनके भौतिक विश्व और विज्ञान के प्रति उनकी तिरस्कारपूर्ण दृष्टि की एक
बानगी उनके सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य में मिलती है. अपने शारीरक-भाष्य
का आरम्भ वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कबुद्धि और प्रमाण की उपयोगिता के
व्यंगपूर्ण खंडन और तिरस्कार से करते हैं। शंकर किसी भी प्रकार के
प्रत्यक्ष ज्ञान की उपेक्षा करते हुए स्वप्न और भ्रम के आधार पर जगत की
भौतिकता को असत्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. इस प्रकार वे जगत के
प्रति एक अवैज्ञानिक और उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण स्थापित करने का प्रयास
करते दृष्टिगत होते हैं. इसी प्रकार तर्क के प्रति उनके रवैये में एक अजीब
सा बेतुकापन है. ब्रह्मसूत्र भाष्य में तर्क के प्रति दिए गए उनके कथनों
का निचोड़ यह है कि तर्क का कोई उचित आधार नही होता. हर विद्वान दूसरे
विद्वान के तर्कों को काट कर नए तर्क स्थिर करता है. इस प्रकार यह क्रम
चलता रहता है. नए तर्क दिए जाते हैं और अंततः वह भी गलत साबित होते हैं.
यहाँ शंकर ज्ञान प्राप्ति में संशय की भूमिका को लगभग ख़ारिज करते हुए
आस्था को जीवन का आधार बनाने की पूर्वपीठिका तैयार करते दृष्टिगत होते
हैं.हम देखते हैं कि व्यावहारिक सत्य की जाँच के लिए तर्क की उपयोगिता को
ख़ारिज करने के उपरांत भी वे उतने प्रबल तरीके से आस्था पक्षपोषण नही कर
पाते जितने की अन्य भाववादी दार्शनिक करते हैं, वे मायावाद कि व्याख्या मे
भी बहुत कुशलता नही दिखा पाते, जबकि यथार्थवादी चिंतन का भी भारत में
समृद्ध इतिहास है जिसकी एक बानगी हमें वात्स्यायन के दार्शनिक ग्रन्थ
न्याय-सूत्र में मिलती है. वात्स्यायन कहते हैं -
"बुद्ध् या विवेचनाद् भावानां याथात्म्योपलब्धिः, यदस्ति यथा च यत्नास्ति
यथा च तत्सर्व प्रमाणत उपलब्ध्या सिध्यति, या च प्रमाणत उपलब्धिस्तद्
बुद्ध् या विवेचनं भावानाम् , तेन सर्वशास्त्राणी सर्वकर्माणि सर्वे च
शरीरिणां व्यवहारा व्याप्ताः। परी़क्षमाणो हि बुद्ध् याऽध्यवस्यति
इदमस्तीति तत न सर्वभावानुपपतिः ।"
"बुद्ध् या विवेचनाद् भावानां याथात्म्योपलब्धिः, यदस्ति यथा च यत्नास्ति
यथा च तत्सर्व प्रमाणत उपलब्ध्या सिध्यति, या च प्रमाणत उपलब्धिस्तद्
बुद्ध् या विवेचनं भावानाम् , तेन सर्वशास्त्राणी सर्वकर्माणि सर्वे च
शरीरिणां व्यवहारा व्याप्ताः। परी़क्षमाणो हि बुद्ध् याऽध्यवस्यति
इदमस्तीति तत न सर्वभावानुपपतिः ।"
(न्याय सूत्र (४) २/२७)
अर्थात - यह मानना होगा की बुद्धि के द्वारा परीक्षण करके ही वस्तुओं की वास्तविक प्रवृत्ति का बोध होता है. बुद्धि द्वारा परीक्षण और प्रमाण द्वारा वस्तुओं के संज्ञान के सिवा दूसरा कोई अर्थ नही है. प्रमाण द्वारा संज्ञान के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है कि कौन सी वस्तु अस्तित्वमान है और किस प्रकार अस्तित्वमान है या कौन सी वस्तु अस्तित्वहीन है और किस अर्थ में अस्तित्वहीन है. प्रमाणों द्वारा वस्तुओं का ज्ञान ही सभी शाखाओं और जीव धारियों की सभी गतिविधियों एवं व्यवहार का आधार है. सूक्ष्म रूप से वस्तुओं की जाँच पड़ताल करने वाला दर्शनवेत्ता बुद्धि के आधार पर ही वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करता है. अतः यह तर्क प्रस्तुत करना निरर्थक है कि बुद्धि से किसी वस्तु का ज्ञान नही होता फिर यदि ऐसा है भी, तो भी इस तर्क का कोई आधार नही है कि वास्तविक जगत अस्तित्व शून्य है.
यहां इस विषय पर चर्चा करना हमार उद्देश्य नहीं है जिन पठकों को इस विषय मे रूची हो वे न्याय सूत्र का पाठन कर सकते हैं, हम इसे यहीं छोडकर शंकर पर वापस लौटते हैं.
शंकर का मानना है की प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियों पर आधारित है इसलिए संवेदन के आधार पर निर्मित होता है, इसलिए यह भ्रम है. कारण तर्क विज्ञान के प्रति अपने मंतव्य रखते हुए शंकर उतने मजबूत तर्क पाठकों के आगे नही रख पाते अथवा नही रखना चाहते जितने कि अन्य भाववादी दार्शनिक जैसे नागार्जुन और बुद्धपालित आदि देते हैं. कहा जा सकता है कि उन्हें इस बात का संज्ञान तो है ही कि अगर वे तर्क से विरोधियों को पराजित नही भी कर पाए तो भी राज्य सत्ता तर्क विज्ञान के पक्षधरों का उपचार करने के लिए के लिए मनु द्वारा बताये मार्गों की व्यवस्था कर ही देगी. उनके तर्कबुद्धि और प्रमाण के अस्वीकरण के लिए दिए गए तर्कों में तथ्य कम व्यंग और पूर्वाग्रह युक्त तल्खी अधिक है. शंकर स्पष्ट घोषणा करते हैं कि तर्क बुद्धि का उपयोग केवल स्मृतिओं (वह भी मनु द्वारा रचित) में लिखे गए सूत्रवाक्यों को सही साबित करने के लिए किया जा सकता है.
शंकर और लोकायत का खंडन
शंकर के लोकायत के विरुद्ध तर्क बहुत ही लचर और बेसिरपैर की आपत्तियों से भरे पड़े है. शंकर लिखते हैं कि-
"नत्वेतदस्ति यदुक्तम- अव्यतिरेको देहादात्मन इति, व्यतिरेक एवास्य
देहाद् भवितुमर्हति, तद् भावाभावित्वात्। यदि देहभावे भावात् देह
धर्मत्वम् आत्मधर्माणां मन्येत -- ततो देहभावेऽपि अभावात् अतद्धर्मत्वमेव
एषां किं न मन्येत? देहधर्मवैलक्षण्यात् । ये हि देहधर्मा रुपादय: , ते
यावद्देहं भवन्ति; प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि देहे मृतावस्थायां न भवन्ति;
देहधर्माश् च रुपादयस्ते यावद् देहं भवन्ति। प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि
देहे मृतावस्थायां न भवन्ति; देहधर्माश्च रुपादयः परैरप्युपलभ्यन्ते, न
त्वात्मधर्माश्चैतन्यस्मृत्या दयः।
अर्थात - यह मानना होगा की बुद्धि के द्वारा परीक्षण करके ही वस्तुओं की वास्तविक प्रवृत्ति का बोध होता है. बुद्धि द्वारा परीक्षण और प्रमाण द्वारा वस्तुओं के संज्ञान के सिवा दूसरा कोई अर्थ नही है. प्रमाण द्वारा संज्ञान के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है कि कौन सी वस्तु अस्तित्वमान है और किस प्रकार अस्तित्वमान है या कौन सी वस्तु अस्तित्वहीन है और किस अर्थ में अस्तित्वहीन है. प्रमाणों द्वारा वस्तुओं का ज्ञान ही सभी शाखाओं और जीव धारियों की सभी गतिविधियों एवं व्यवहार का आधार है. सूक्ष्म रूप से वस्तुओं की जाँच पड़ताल करने वाला दर्शनवेत्ता बुद्धि के आधार पर ही वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करता है. अतः यह तर्क प्रस्तुत करना निरर्थक है कि बुद्धि से किसी वस्तु का ज्ञान नही होता फिर यदि ऐसा है भी, तो भी इस तर्क का कोई आधार नही है कि वास्तविक जगत अस्तित्व शून्य है.
यहां इस विषय पर चर्चा करना हमार उद्देश्य नहीं है जिन पठकों को इस विषय मे रूची हो वे न्याय सूत्र का पाठन कर सकते हैं, हम इसे यहीं छोडकर शंकर पर वापस लौटते हैं.
शंकर का मानना है की प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियों पर आधारित है इसलिए संवेदन के आधार पर निर्मित होता है, इसलिए यह भ्रम है. कारण तर्क विज्ञान के प्रति अपने मंतव्य रखते हुए शंकर उतने मजबूत तर्क पाठकों के आगे नही रख पाते अथवा नही रखना चाहते जितने कि अन्य भाववादी दार्शनिक जैसे नागार्जुन और बुद्धपालित आदि देते हैं. कहा जा सकता है कि उन्हें इस बात का संज्ञान तो है ही कि अगर वे तर्क से विरोधियों को पराजित नही भी कर पाए तो भी राज्य सत्ता तर्क विज्ञान के पक्षधरों का उपचार करने के लिए के लिए मनु द्वारा बताये मार्गों की व्यवस्था कर ही देगी. उनके तर्कबुद्धि और प्रमाण के अस्वीकरण के लिए दिए गए तर्कों में तथ्य कम व्यंग और पूर्वाग्रह युक्त तल्खी अधिक है. शंकर स्पष्ट घोषणा करते हैं कि तर्क बुद्धि का उपयोग केवल स्मृतिओं (वह भी मनु द्वारा रचित) में लिखे गए सूत्रवाक्यों को सही साबित करने के लिए किया जा सकता है.
शंकर और लोकायत का खंडन
शंकर के लोकायत के विरुद्ध तर्क बहुत ही लचर और बेसिरपैर की आपत्तियों से भरे पड़े है. शंकर लिखते हैं कि-
"नत्वेतदस्ति यदुक्तम- अव्यतिरेको देहादात्मन इति, व्यतिरेक एवास्य
देहाद् भवितुमर्हति, तद् भावाभावित्वात्। यदि देहभावे भावात् देह
धर्मत्वम् आत्मधर्माणां मन्येत -- ततो देहभावेऽपि अभावात् अतद्धर्मत्वमेव
एषां किं न मन्येत? देहधर्मवैलक्षण्यात् । ये हि देहधर्मा रुपादय: , ते
यावद्देहं भवन्ति; प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि देहे मृतावस्थायां न भवन्ति;
देहधर्माश् च रुपादयस्ते यावद् देहं भवन्ति। प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि
देहे मृतावस्थायां न भवन्ति; देहधर्माश्च रुपादयः परैरप्युपलभ्यन्ते, न
त्वात्मधर्माश्चैतन्यस्मृत्या
( ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥(३)३/५४॥)
स्वतंत्र अनुवाद की शैली में इसका अर्थ है कि - शरीर और आत्मा की अभिन्नता की बात तर्क संगत नही है. इसके विपरीत शरीर को आत्मा से भिन्न देखना सही है, कारण की अपनी उपस्थिति के बावजूद इसमें अनुपस्थित रहने का गुण विद्यमान है. शरीर के कथित गुण (यहाँ लोकायतियों के कथन की ओर इशारा है ) के रूप में चेतना स्वयं शरीर की उपस्थिति के बाद भी अनुपस्थित रहती है (यहाँ शंकर का तात्पर्य शव से हैं) इस प्रकार शरीर की उपस्थिति के समय आत्मा के जो लक्षण दृष्ट होते हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि ये शरीर के ही गुण हैं, (यह लोकायत मत का मूल आधार है जिसकी ओर शंकर इशारा कर रहे हैं) परन्तु यदि यह बात होती तब यह स्वीकार करने में क्या कठिनाई है कि शरीर की उपस्थिति के बाद भी (शव में) यह गुण (चेतना) अनुपस्थित है तब चेतना को शरीर से अलग क्यों न माना जाए? आत्मा (चेतना) के गुणों और शरीर के गुणों में जो भिन्न्नता दृष्ट होती है उसके आधार पर यह स्वीकार्य है. अतएव जब तक शरीर है तब तक शरीर के गुण रूप रंग आदि दिखाई देते हैं और मृत्यु के बाद शरीर में इच्छा शक्ति और प्राणशक्ति आदि नही दिखाई पड़ते हैं दूसरे लोग इन्हें नही देख पाते इसलिए शरीर के गुणों जैसे रूप रंग आदि के लिए कही गई बात चेतना और स्मृति के बारे में नही कही जा सकती.
हम इस तर्क के आधार कितने सबल हैं इसे जांचने का प्रयत्न करते हैं. जैसा कि जाहिर होता है शंकर का मुख्य तर्क जो लोकयातिओं के प्रति है वह है कि अगर चेतना (जिसे शंकर कई बार स्मृति, इच्छाशक्ति और प्राणशक्ति भी कहते हैं) शरीर का गुण होती तब वह शव में क्यों नही उपस्थित रहती? यह लोकयातिओं के पक्ष का अतिसरलीकरण है जो शंकर कर रहे हैं, यह मूलतः न्याय-वैशेषिकों का तर्क है जो शंकर बिना किसी परिवर्तन के उनसे लेकर लोकायत का खंडन करना चाहते हैं. यह अलग बात है कि इस तर्क से खुद उनकी दार्शनिक विचारधारा जिसके अनुसार "विशुद्ध चित ही सत्य है और जगत भ्रम अथवा माया है" का भी खंडन हो रहा है, क्योंकि यह तर्क उपयोग करने के लिए शंकर को यह मानना होगा कि शरीर जैसी कोई भौतिक वस्तु है और रूप रंग उसका गुण अथवा लक्षण हैं. इस प्रकार स्वयं उनका प्रतिपादित भाववाद असंगतता के भंवर में फंसता नजर आता है, यहाँ उनकी असंगतता जांचना मेरा ध्येय नही है इसलिए मैं अपने मुख्य बिंदु पर लौटती हूँ जो लोकयातितों के प्रति उनके तर्क की सबलता की जाँच करना है ।
शंकर अपने विश्लेषण के आधार पर तर्क करते हैं कि शव में चेतना क्यों नही दिखाई देती. जहाँ लोकायत के अनुयायी चेतना को शरीर (देह) का गुण बताते हैं. वहीं शरीर की जगह शव को रखकर शंकर उनके दर्शन का विकृत रूप पाठकों के समक्ष रखकर लोकायतिओं को गंवार बताते हैं. कटाक्ष करने और प्रतिपक्षी की छवि विकृत करने के अपने उतावलेपन में शंकर इस तथ्य को पूर्णतः विस्मृत करते दृष्ट होते हैं कि लोकायत के विश्वोत्पत्ति विज्ञान में शरीर की परिभाषा क्या है. उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार लोकायत के अनुयायी चेतना की तुलना मद शक्ति से करते हुए अपना मत रखते थे. लोकायत मत के आधारभूत नियमो को समझने के लिए हम यहाँ इस उदाहरण की सप्रसंग व्याख्या करेंगे। जैसा की हम जनते है कि लोकायत मत के अनुसार केवल पदार्थ (भूत द्रव्य) सत्य है और विश्व की अन्य सभी वस्तुओं का उदय (चेतना का भी) पदार्थ से ही हुआ है. शरीर का निर्माण भी उन्ही चार प्रमुख भौतिक तत्वों अर्थात जल, पृथ्वी, वायु और अग्नि से मिलकर होता है. शरीर के निर्माण के लिए विशेष सहकारी कारण की आवश्यकता होती है जैसे की मद्य निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री जुटा कर एक साथ रख देने भर से उनसे मद शक्ति उत्पन्न नही हो जाती उसी प्रकार उपरोक्त चारों पदार्थों को एक साथ रख भर देने से चेतना उत्पन्न नही हो जाती. लोकायत मत के अनुसार यह एक प्रकार का असाधारण रूपांतरण है जो पदार्थ के स्वभाव और रूपांतरण के लिए आवश्यक परिस्थितिओं की अनुकूलता पर निर्भर है. लोकायत मत पदार्थ के असाधारण रूपांतरण की जिस व्याख्या के आधार पर शरीर को परिभाषित करता है उस आधार पर शव को शरीर की संज्ञा नही दी जा सकती. लोकायतिओं के अनुसार भली भांति पोषित शरीर में ही चेतना का विकास होता है. जिस असाधारण रूपांतरण की प्रक्रिया से शरीर में चेतना का निर्माण होता है, शव उस प्रक्रिया के विघटन का उदाहरण है. यह विस्मृत करते हुए शंकर लोकयातिओं के तर्क का अति सरलीकरण करते हैं जो एक दार्शनिक के लिए किसी प्रकार न्याय संगत नही माना जा सकता है. इस तर्क का एक हिस्सा जहाँ यह इंगित करता है कि जहाँ शरीर (लोकयातियों द्वारा उल्लेखित शर्तों के अनुसार) उपस्थित होता है, चेतना उपस्थित होती है वहीँ दूसरी और यह भी विदित होता है कि जहाँ शरीर उपस्थित नही होता वहां चेतना किसी प्रकार भी दृष्ट नही होती इसका कोई एक उदाहरण भी इस संसार में नही दृष्टिगोचर होता है. शंकर तर्क के दूसरे हिस्से पर क्या कहते हैं यह जानना रोचक होगा ..शंकर कहते हैं कि -
" पतितेऽपि कदचिदस्मिन्देहे देहन्तरसंचारेणात्मधर्मा अनुवर्तेरन् "
(ब्रह्मसूत्र भाष्य (३ ) ३/५४ )
अर्थात - देह का पतन होने पर कदाचित कदाचित आत्मा के गुण (जैसे चेतना, स्मृति, अनुभव क्षमता आदि) दूसरे शरीर में संचार से अनुवृत हो सकते हैं (यहाँ शंकर ऐसी संभावना व्यक्त कर रहे हैं). "कदाचित" शब्द यहाँ एक तथाकथित अपूर्व ब्रम्हज्ञानी की हिचकिचाहट का स्पष्ट परिचय दे रहा है. ध्यातव्य तथ्य यह है कि शंकर इसे ढृढ़ता के साथ क्यों नही स्वीकार रहे की मृत्यु के बाद चेतना के गुण दूसरे शरीर में संचारित होते हैं. इसका कारन यह है कि शंकर यह किसी प्रमाण के आधार पर प्रमाणित नही कर पाते इस लिए उन्होंने यह स्पष्ट तरीके से स्वीकार करने मे हिचकिचाहट दिखाई. दूसरी ओर इसी तर्क का दूसरा हिस्सा जिसे शंकर ने अछूता छोड़ दिया वह है शरीर की अनुपस्थिति में चेतना का दृष्टिगोचर होना. शंकर इस पक्ष को भी चालाकी से छोड़ते हुए अपना ध्यान लोकायतिओं को कोसने और अपमानित करने में लगाये रखते हैं. यह उनकी बौद्धिक दुर्बलता का ही परिचय देता है. इसी प्रकार कई जगह उनके तर्क बौद्ध दार्शनिकों से उधार लिए प्रतीत होते हैं. ध्यातव्य हो की शंकर, गौड़पाद के प्रशिष्य थे जिन्होंने अपना अदवैत वेदान्त दर्शन बौद्ध सम्प्रदाय के महायानियों से प्रेरित होकर रचा था. शंकर अपने शारीरक भाष्य में उन्हें "वेदान्तार्थसम्प्रदायविद् भिराचार्येः" (ब्रम्हसूत्र भाष्य ॥२.१.९॥ )कहकर संबोधित करते हैं. शंकराचार्य के तर्कों कि महायानिओं से साम्यता के कारण अनेक लोग शकंर को "प्रच्छन्न-बौद्ध" भी कहते हैं.
आज के विज्ञान सम्मत युग में ज्ञानयुक्त तर्कपरक चिन्तन अपनी सबल उपस्थिति दर्ज करा रहा है, धीरे-धीरे अंधविश्वासों और अज्ञानता का उन्मूलन हो रहा है इन सब के मध्य एक पुनरुत्थानवादी आग्रही लेखकों का तबका ऐसा भी है जो पुरातन ज्ञान और दर्शन की आड़ लेकर अंधविश्वासों, अज्ञानता और व्यक्तिगत भाववादी अनुभवों के फलस्वरूप उत्पन हुए भ्रम को सत्य के रूप में स्थापित करने के कुत्सित प्रयास मे लिप्त हैं. इन लोगों की स्पष्ट मान्यता है कि विज्ञान को आंकड़ों की गणना और पूंजीपति वर्ग के हितों तक सीमित रहना चाहिए. विज्ञान कोई जीवन दर्शन नहीं देता उसे समकालीन समाज में फैली रुढियों/अंधविश्वासों से बचते हुए ही अपना कार्य करना चाहिए. समाज विरोधी पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे विज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा को दूषित करने के दो तरीके अपनातें हैं - प्रथम तो विज्ञान की रहस्यात्मक भ्रमपूर्ण व्याख्या और द्वितीय विज्ञान पर मानवता विरोधी होने का आरोप. वहीं दूसरी ओर अन्धविश्वास और जड़पंथी विचारधारा को समकालीन समाज में स्थापित करने के लिए वे इसी विज्ञान का सहारा लेते हैं और सदियों पूर्व भी जिन अंधविश्वासों को हमारे पूर्वज पूर्णतया ख़ारिज कर गए थे उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएं करते हैं. इन दोनों प्रवृत्तियों के जवाब के लिए इतिहास की विज्ञानवादी विचारधारा का सामने आना जितना आवश्यक है, उतनी ही जरुरत इस बात की है कि वैसे दर्शन और दार्शनिक जो भ्रमपूर्ण चिन्तन और आस्था का प्रचार करते थे उनकी वास्तविकता जनता के समक्ष रखी जाए. आज आवश्यकता उन सम्प्रदायों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार की है जिन्होंने जन-सामान्य का पक्ष लेते हुए शासक वर्ग द्वारा जबरदस्ती थोपे गए दर्शन को नकारा था. अन्धविश्वास और जड़मति विचारों की एकमात्र (और संभवतः सबसे मजबूत भी) जगह इतिहास ही है, अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी विचारधाराओं का पुनर्मूल्यांकन किया जाए जिससे विज्ञानवादी सोच को बढ़ावा दिया जा सके और भ्रमों को सत्य की तरह स्थापित करने की प्रवृत्ति को मुँह-तोड़ जवाब दिया जा सके. यह सच है की ऐसा करने के लिए अधिसंख्यक की आस्थाओं के विरुद्ध जाना होगा परन्तु यह ध्यान रखा जाना चहिए कि वस्तुगत सत्य जो भ्रम से मुक्त करने की कुव्वत रखता है, आस्थाओं के विपरीत ही होता है. अब तय मनुष्य को करना है कि उसे निरपेक्ष दृष्टि और सापेक्ष विश्लेषण जनित वास्तविकता का ज्ञान चाहिए या फिर भ्रम आच्छादित आस्था का फलक? आस्थाओं के चोटिल होने के भय के कारण अगर सत्य पर भ्रमों का पर्दा पड़ा रहा तो यह प्राचीन भारतीय विज्ञानियों के साथ अन्याय होगा. अधिसंख्यक जनता के मध्य भ्रमपूर्ण परिदृश्य के निर्माण को रोकने के लिए यह जितना आवश्यक है की भारतीय दर्शन की विज्ञानवादी धारा का प्रचार प्रसार किया जाए उतना ही आवश्यक यह भी है की भारत के बौद्धिक विकास में बाधक विचारों और विचारकों की समीक्षा विज्ञानवादी दृष्टि से की जाए. एवं उनके कुत्सित मंतव्यों को जनता के समक्ष रखा जाए.
स्वतंत्र अनुवाद की शैली में इसका अर्थ है कि - शरीर और आत्मा की अभिन्नता की बात तर्क संगत नही है. इसके विपरीत शरीर को आत्मा से भिन्न देखना सही है, कारण की अपनी उपस्थिति के बावजूद इसमें अनुपस्थित रहने का गुण विद्यमान है. शरीर के कथित गुण (यहाँ लोकायतियों के कथन की ओर इशारा है ) के रूप में चेतना स्वयं शरीर की उपस्थिति के बाद भी अनुपस्थित रहती है (यहाँ शंकर का तात्पर्य शव से हैं) इस प्रकार शरीर की उपस्थिति के समय आत्मा के जो लक्षण दृष्ट होते हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि ये शरीर के ही गुण हैं, (यह लोकायत मत का मूल आधार है जिसकी ओर शंकर इशारा कर रहे हैं) परन्तु यदि यह बात होती तब यह स्वीकार करने में क्या कठिनाई है कि शरीर की उपस्थिति के बाद भी (शव में) यह गुण (चेतना) अनुपस्थित है तब चेतना को शरीर से अलग क्यों न माना जाए? आत्मा (चेतना) के गुणों और शरीर के गुणों में जो भिन्न्नता दृष्ट होती है उसके आधार पर यह स्वीकार्य है. अतएव जब तक शरीर है तब तक शरीर के गुण रूप रंग आदि दिखाई देते हैं और मृत्यु के बाद शरीर में इच्छा शक्ति और प्राणशक्ति आदि नही दिखाई पड़ते हैं दूसरे लोग इन्हें नही देख पाते इसलिए शरीर के गुणों जैसे रूप रंग आदि के लिए कही गई बात चेतना और स्मृति के बारे में नही कही जा सकती.
हम इस तर्क के आधार कितने सबल हैं इसे जांचने का प्रयत्न करते हैं. जैसा कि जाहिर होता है शंकर का मुख्य तर्क जो लोकयातिओं के प्रति है वह है कि अगर चेतना (जिसे शंकर कई बार स्मृति, इच्छाशक्ति और प्राणशक्ति भी कहते हैं) शरीर का गुण होती तब वह शव में क्यों नही उपस्थित रहती? यह लोकयातिओं के पक्ष का अतिसरलीकरण है जो शंकर कर रहे हैं, यह मूलतः न्याय-वैशेषिकों का तर्क है जो शंकर बिना किसी परिवर्तन के उनसे लेकर लोकायत का खंडन करना चाहते हैं. यह अलग बात है कि इस तर्क से खुद उनकी दार्शनिक विचारधारा जिसके अनुसार "विशुद्ध चित ही सत्य है और जगत भ्रम अथवा माया है" का भी खंडन हो रहा है, क्योंकि यह तर्क उपयोग करने के लिए शंकर को यह मानना होगा कि शरीर जैसी कोई भौतिक वस्तु है और रूप रंग उसका गुण अथवा लक्षण हैं. इस प्रकार स्वयं उनका प्रतिपादित भाववाद असंगतता के भंवर में फंसता नजर आता है, यहाँ उनकी असंगतता जांचना मेरा ध्येय नही है इसलिए मैं अपने मुख्य बिंदु पर लौटती हूँ जो लोकयातितों के प्रति उनके तर्क की सबलता की जाँच करना है ।
शंकर अपने विश्लेषण के आधार पर तर्क करते हैं कि शव में चेतना क्यों नही दिखाई देती. जहाँ लोकायत के अनुयायी चेतना को शरीर (देह) का गुण बताते हैं. वहीं शरीर की जगह शव को रखकर शंकर उनके दर्शन का विकृत रूप पाठकों के समक्ष रखकर लोकायतिओं को गंवार बताते हैं. कटाक्ष करने और प्रतिपक्षी की छवि विकृत करने के अपने उतावलेपन में शंकर इस तथ्य को पूर्णतः विस्मृत करते दृष्ट होते हैं कि लोकायत के विश्वोत्पत्ति विज्ञान में शरीर की परिभाषा क्या है. उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार लोकायत के अनुयायी चेतना की तुलना मद शक्ति से करते हुए अपना मत रखते थे. लोकायत मत के आधारभूत नियमो को समझने के लिए हम यहाँ इस उदाहरण की सप्रसंग व्याख्या करेंगे। जैसा की हम जनते है कि लोकायत मत के अनुसार केवल पदार्थ (भूत द्रव्य) सत्य है और विश्व की अन्य सभी वस्तुओं का उदय (चेतना का भी) पदार्थ से ही हुआ है. शरीर का निर्माण भी उन्ही चार प्रमुख भौतिक तत्वों अर्थात जल, पृथ्वी, वायु और अग्नि से मिलकर होता है. शरीर के निर्माण के लिए विशेष सहकारी कारण की आवश्यकता होती है जैसे की मद्य निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री जुटा कर एक साथ रख देने भर से उनसे मद शक्ति उत्पन्न नही हो जाती उसी प्रकार उपरोक्त चारों पदार्थों को एक साथ रख भर देने से चेतना उत्पन्न नही हो जाती. लोकायत मत के अनुसार यह एक प्रकार का असाधारण रूपांतरण है जो पदार्थ के स्वभाव और रूपांतरण के लिए आवश्यक परिस्थितिओं की अनुकूलता पर निर्भर है. लोकायत मत पदार्थ के असाधारण रूपांतरण की जिस व्याख्या के आधार पर शरीर को परिभाषित करता है उस आधार पर शव को शरीर की संज्ञा नही दी जा सकती. लोकायतिओं के अनुसार भली भांति पोषित शरीर में ही चेतना का विकास होता है. जिस असाधारण रूपांतरण की प्रक्रिया से शरीर में चेतना का निर्माण होता है, शव उस प्रक्रिया के विघटन का उदाहरण है. यह विस्मृत करते हुए शंकर लोकयातिओं के तर्क का अति सरलीकरण करते हैं जो एक दार्शनिक के लिए किसी प्रकार न्याय संगत नही माना जा सकता है. इस तर्क का एक हिस्सा जहाँ यह इंगित करता है कि जहाँ शरीर (लोकयातियों द्वारा उल्लेखित शर्तों के अनुसार) उपस्थित होता है, चेतना उपस्थित होती है वहीँ दूसरी और यह भी विदित होता है कि जहाँ शरीर उपस्थित नही होता वहां चेतना किसी प्रकार भी दृष्ट नही होती इसका कोई एक उदाहरण भी इस संसार में नही दृष्टिगोचर होता है. शंकर तर्क के दूसरे हिस्से पर क्या कहते हैं यह जानना रोचक होगा ..शंकर कहते हैं कि -
" पतितेऽपि कदचिदस्मिन्देहे देहन्तरसंचारेणात्मधर्मा अनुवर्तेरन् "
(ब्रह्मसूत्र भाष्य (३ ) ३/५४ )
अर्थात - देह का पतन होने पर कदाचित कदाचित आत्मा के गुण (जैसे चेतना, स्मृति, अनुभव क्षमता आदि) दूसरे शरीर में संचार से अनुवृत हो सकते हैं (यहाँ शंकर ऐसी संभावना व्यक्त कर रहे हैं). "कदाचित" शब्द यहाँ एक तथाकथित अपूर्व ब्रम्हज्ञानी की हिचकिचाहट का स्पष्ट परिचय दे रहा है. ध्यातव्य तथ्य यह है कि शंकर इसे ढृढ़ता के साथ क्यों नही स्वीकार रहे की मृत्यु के बाद चेतना के गुण दूसरे शरीर में संचारित होते हैं. इसका कारन यह है कि शंकर यह किसी प्रमाण के आधार पर प्रमाणित नही कर पाते इस लिए उन्होंने यह स्पष्ट तरीके से स्वीकार करने मे हिचकिचाहट दिखाई. दूसरी ओर इसी तर्क का दूसरा हिस्सा जिसे शंकर ने अछूता छोड़ दिया वह है शरीर की अनुपस्थिति में चेतना का दृष्टिगोचर होना. शंकर इस पक्ष को भी चालाकी से छोड़ते हुए अपना ध्यान लोकायतिओं को कोसने और अपमानित करने में लगाये रखते हैं. यह उनकी बौद्धिक दुर्बलता का ही परिचय देता है. इसी प्रकार कई जगह उनके तर्क बौद्ध दार्शनिकों से उधार लिए प्रतीत होते हैं. ध्यातव्य हो की शंकर, गौड़पाद के प्रशिष्य थे जिन्होंने अपना अदवैत वेदान्त दर्शन बौद्ध सम्प्रदाय के महायानियों से प्रेरित होकर रचा था. शंकर अपने शारीरक भाष्य में उन्हें "वेदान्तार्थसम्प्रदायविद् भिराचार्येः" (ब्रम्हसूत्र भाष्य ॥२.१.९॥ )कहकर संबोधित करते हैं. शंकराचार्य के तर्कों कि महायानिओं से साम्यता के कारण अनेक लोग शकंर को "प्रच्छन्न-बौद्ध" भी कहते हैं.
आज के विज्ञान सम्मत युग में ज्ञानयुक्त तर्कपरक चिन्तन अपनी सबल उपस्थिति दर्ज करा रहा है, धीरे-धीरे अंधविश्वासों और अज्ञानता का उन्मूलन हो रहा है इन सब के मध्य एक पुनरुत्थानवादी आग्रही लेखकों का तबका ऐसा भी है जो पुरातन ज्ञान और दर्शन की आड़ लेकर अंधविश्वासों, अज्ञानता और व्यक्तिगत भाववादी अनुभवों के फलस्वरूप उत्पन हुए भ्रम को सत्य के रूप में स्थापित करने के कुत्सित प्रयास मे लिप्त हैं. इन लोगों की स्पष्ट मान्यता है कि विज्ञान को आंकड़ों की गणना और पूंजीपति वर्ग के हितों तक सीमित रहना चाहिए. विज्ञान कोई जीवन दर्शन नहीं देता उसे समकालीन समाज में फैली रुढियों/अंधविश्वासों से बचते हुए ही अपना कार्य करना चाहिए. समाज विरोधी पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे विज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा को दूषित करने के दो तरीके अपनातें हैं - प्रथम तो विज्ञान की रहस्यात्मक भ्रमपूर्ण व्याख्या और द्वितीय विज्ञान पर मानवता विरोधी होने का आरोप. वहीं दूसरी ओर अन्धविश्वास और जड़पंथी विचारधारा को समकालीन समाज में स्थापित करने के लिए वे इसी विज्ञान का सहारा लेते हैं और सदियों पूर्व भी जिन अंधविश्वासों को हमारे पूर्वज पूर्णतया ख़ारिज कर गए थे उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएं करते हैं. इन दोनों प्रवृत्तियों के जवाब के लिए इतिहास की विज्ञानवादी विचारधारा का सामने आना जितना आवश्यक है, उतनी ही जरुरत इस बात की है कि वैसे दर्शन और दार्शनिक जो भ्रमपूर्ण चिन्तन और आस्था का प्रचार करते थे उनकी वास्तविकता जनता के समक्ष रखी जाए. आज आवश्यकता उन सम्प्रदायों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार की है जिन्होंने जन-सामान्य का पक्ष लेते हुए शासक वर्ग द्वारा जबरदस्ती थोपे गए दर्शन को नकारा था. अन्धविश्वास और जड़मति विचारों की एकमात्र (और संभवतः सबसे मजबूत भी) जगह इतिहास ही है, अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी विचारधाराओं का पुनर्मूल्यांकन किया जाए जिससे विज्ञानवादी सोच को बढ़ावा दिया जा सके और भ्रमों को सत्य की तरह स्थापित करने की प्रवृत्ति को मुँह-तोड़ जवाब दिया जा सके. यह सच है की ऐसा करने के लिए अधिसंख्यक की आस्थाओं के विरुद्ध जाना होगा परन्तु यह ध्यान रखा जाना चहिए कि वस्तुगत सत्य जो भ्रम से मुक्त करने की कुव्वत रखता है, आस्थाओं के विपरीत ही होता है. अब तय मनुष्य को करना है कि उसे निरपेक्ष दृष्टि और सापेक्ष विश्लेषण जनित वास्तविकता का ज्ञान चाहिए या फिर भ्रम आच्छादित आस्था का फलक? आस्थाओं के चोटिल होने के भय के कारण अगर सत्य पर भ्रमों का पर्दा पड़ा रहा तो यह प्राचीन भारतीय विज्ञानियों के साथ अन्याय होगा. अधिसंख्यक जनता के मध्य भ्रमपूर्ण परिदृश्य के निर्माण को रोकने के लिए यह जितना आवश्यक है की भारतीय दर्शन की विज्ञानवादी धारा का प्रचार प्रसार किया जाए उतना ही आवश्यक यह भी है की भारत के बौद्धिक विकास में बाधक विचारों और विचारकों की समीक्षा विज्ञानवादी दृष्टि से की जाए. एवं उनके कुत्सित मंतव्यों को जनता के समक्ष रखा जाए.
आपकी पोस्ट से जो ज्ञान प्राप्त हूआ। उसका आभार व्यक्त करता हूँ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteमाँ है मंदिर मां तीर्थयात्रा है,
माँ प्रार्थना है, माँ भगवान है,
उसके बिना हम बिना माली के बगीचा हैं!
संतप्रवर श्री चन्द्रप्रभ जी
आपको मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
Lovely Goswami ji,
ReplyDeleteAt the outset, I must express my inability to comment in Hindi and urge you to kindly allow me to express myself in English. Kindly bear with me.
I will not mince my words, and I must say in no unclear words, that this is probably the most ill-conceived, logically bankrupt and factually incorrect critique that I have ever come across in any field of study. I will not go into a detailed rebuttal but ley me just point out some glaring inaccuarcies that are just too hard to miss.
First, you allege that Sankar advocated perpetuation of discrimination against the Sudras. And you quote certain verses to demonstrate the same. I am constrained to ask that whether Sankar cites these as the reasons or did he cite these as reasons put forth by others to justify discrimination? Nonetheless Advaita actually lends a powerful argument against discrimination because it says that everybody is the same, everyone is Bramha. So there cannot be any basis for discrimination. Moreover, have you heard of Manisha Panchakam? I suggest you read it to know what Sankar thought of discrimination on any basis whatsoever.
Continued
Second, you say that Sankhya was a materialistic philosophical system. Let me tell you that nothing is farther from the truth. It is a realistic philosophical system not a materialistic philosophical system. It is a spiritualistic dualism which says that Purusa and Prakriti are the two fundamental realities. Lokayat system denies existence of soul and proposes dehatmavada but the Sankhya system accepts and even gives several proofs to prove the existence of soul which it calls Purusa. Let me also go on to tell you that Yoga philosophy of Patanjali which is an allied system of Sankhya talks of Ashtang Yoga as the means to attain liberation with the Sankhya metaphysics as its basis. I wonder how is it that you say Sankhya philosophical system is a materialistic system? Moreover, after that you go on to state the Sankhya is a heterodox system, that it does not accept the Vedas. This is untrue. It is actually an orthodox system. Sankhya epistemology accepts vedic testimony as a Pramana. And yet you go on to say that Sankhya doesn't accept the vedas. I find this baffling.
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ReplyDeleteThird, you say that when Sankar says that if consciousness is a quality of the body it must remain even when the person dies, he oversimplifies. I find your assertion amusing to say the least. This is a perfectly logical statement. There is neither oversimplification neither undersimplification. if you wish to rebut this argument you must rebut it with reason and logic. You cannot say that it is oversimplification and hope to get away with a logically untenable proposition. Moreover, this is not the only argument against Dehatmavada put forth by Sankar. Yet you cherrypick it and seem to suggest that he has not substantively refuted Lokayats which is again far from the truth. Let me also say the explanation you have give to refute this argument is a case of petition principii. You cannot are basically saying that when a body lives it is a body and when it is dead it is not a body. Therefore, because you have said that when dead whatever remains is not a body therefore Sankar's objection does not hold. This is circular reasoning. Petitio principii. If consciousness is an attribute of the body, it must remain inseparable from it. How is the body devoid of it on death? Just because you say that after death what remains is not the body doesn't answer the question. It is jugglery of words.
Continued
The problem with Lokayat philosophy is its epistemology wherein perception is the only pramana. All you do is dabble in metaphysiscs without even bothering to talk about Lokayat epistemology which has been soundly refuted by almost all philosophical systems. Let me give you an example. They say only that which is perceived exists and since soul is not perceived therefore it does not exist. But this is an inference which Lokayat does not accept as a Pramana.
ReplyDeleteThat which is perceived exists.
Soul is not perceived.
Therefore sould does not exist.
As you can see this is an inference. I would even go a step further and say that the premise of thsi inference that only that which is perceived exists is also unproved. What is the basis of this assertion?
Continued
ReplyDeleteAlso you say that in order for his refutation to be even considered in the first place Sankar will have to accept that there exists something called body. Madam, he does. Let me tell you, Sankar says that the world is mithya. Mithya does not mean that it is a figment of imagination. No. It only means that it is not the ultimate reality. Bramha is the only ontological reality, it is the ultimate reality. These are two different planes. You will have to study the relation between the world and bramha to understand what he is saying. It would suffice here to say that you have drawn a hasty and convinient conclusion suited to your prejudices.
I could go on and on. But the fact is that this piece is nothing but an opinion that is so unapologetically brash and dismissive of Sankar that in its unswervingly self-conceited tone it doesn't even bother to put forth any reasonable and rational refutation of Sankar.
Regards
अंग्रेजी समझ नही आती भाई साहब , हिंदी में बताएं तो कृपा होगी :-). शेष सारे सन्दर्भ जांचे हुए हैं और प्रमाणिक हैं. और आपने कोई ऐसी बात नही कह दी जो पहले से न कही गई हो। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी और तर्कपूर्ण जानकारी देते हैं साहब आप बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट है आपकी
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