Sunday, May 23, 2010

'' अगर धर्म एक अच्छे इन्सान होने का सर्टिफिकेट होता तो इस दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती '' - 1

जब हमने इस्वर और धर्म की सत्ता को मानने से इंकार किया तो बहुत से करीबियों को दुःख के साथ - साथ कुछ को ख़ुशी भी हुई.दुखी लोगों ने कहा अच्छा खासा लड़का था बिगड़ गया ..लगता है किसी गलत सोहबत में पड़ गया है.लोगों ने हमें बहुत समझाने की कोशिशें की मगर क्या करें हम भी तर्क पे तर्क किये जा रहे थे और ये तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहे थे.कुछ लोगों को चिंता भी हुई की कहीं इसकी सोहबत में हमारे लड़के भी ना बिगड़ जाएँ सो कई लड़कों के साथ हमारा उठाना बैठने भी छुट गया.लोग इस्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए तमाम तर्क - बितर्क करने लगे.फिर भी हम नहीं माने तो लोगों ने हार के कहा - '' धार्मिक हउवे बिना आदमीं अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ''.

खुश होने वाले करीबियों को हममें तमाम संभावनाएं नज़र रही थी.कहने लगे सही है ब्रम्ह्ड़ो ने हिन्दू धर्म में कई बुराइयों का प्रवेश करा दिया है.इनका तर्क होता था की इस्वर है बस तुम उसे खोजो, धर्म को पालिस करने की जरुरत है,कुछ लोगों ने इस गन्दा बना दिया है .दरअसल ये सभी लोग किसी ना किसी पंथ को मानने वाले थे कोई आर्य समाजी था,तो कोई निरंकारी था और कोई गायत्री परिवार को मानने वाला और वे समझ रहे थे की उनके पंथ को मानने वालों में मैं भी शामिल हो सकता हूँ.अचानक इन साहबों ने मुझे अपने अपने धार्मिक आयोजनों में बुलाना शुरू कर दिया.हमारे एक बहुत करीबी जो की निरंकारी हैं. अक्सर बुलाते थे अपने निरंकारी सत्संगों में और अक्सर मेरी नास्तिकता का मजाक भी उड़ाते थे एक दिन खीज करके मैने पुछ दिया - अच्छा ये बताइए.जब आप खुदा,इस्वर या भगवान को निरंकारी मानते हैं तो अपने समरोहों में क्यों एक लोग को सफ़ेद धोती कुरता पहना के और सफ़ेद चादर ओढा कर पूजा करते है ? जब आपका इस्वर निरंकारी है तो यहाँ आकार वाली धरती और इंसानों - जानवरों को बनाने की जरुरत क्यों पड़ी ? क्या आपका इस्वर चापलूस जो इंसानों को केवल पूजा - पाठ के लिए बनाया है ? और सब छोड़ भी दें तो जरा बताइए जब निरंकारी की पूजा करते हैं समय साकार भगवानो राम,कृस्न और शंकर की स्तुति क्यों करते हैं?


गर निरंकारी होके भी इन्ही भगवानो की पूजा करनी थी तो क्या जरुरत है निरंकारी होने की.पता नहीं कितने करोड़ भगवानो को ढ़ोने वाली अपनी गधों वाली पीठ पे एक और भगवान को लादने की जरुरत क्या है ? मेरे सवालों से गुस्साए मेरे उन करीबीजब कोई तर्क नहीं कर पाए तो कहा - अब तुम पिटोगे तभी तुम्हारी समझा में आएगा इस्वर और धर्म...

मेरे से दुखी और अपने पंथ के संदर्भ में मेरे में संभावना देखने वाले ये लोग तब भी और अब भी जब तर्क से पेश नहीं हो पाते यही कहते हैं - '' धार्मिक हउवे बिना आदमीं अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ''.

और मैं कहता हूँ की बिना धर्म के भी एक अच्छा इन्सान हूवा जा सकता है.क्यों क़ि धर्म और इस्वर दोनों इन्सान पे जबरदस्ती लादे गए हैं.इन्सान अपने कुदरती रूप में ही बहुत अच्छा है.धर्मिक लोगों की जनसँख्या ही इस धरती सबसे बड़ी है.नास्तिक तो मुश्किल से कुछ हजार ही होंगे फिर भी यहाँ इतनी असमानता क्यों?क्यों धर्म के नाम पे ही धरती सबसे ज्यादे लहूलुहान हुई ? हो सकता है एक ज़माने में धर्म सोसायटी को चलने के लिए लोगों ने बनाया हो.मगर अब हमारी सोसायटी को चलने के लिए एक अलग व्यवस्था है.और एसे में अब ये धर्म हमारी प्रगति में लंगड़ी मरने के सिवा और किसी काम के नहीं हैं.इन्हें अब इतिहास की किताबों में ही रहने देना चाहिए.और '' इस्वर वों तो इस दुनिया का सबसे झूठा शब्द है,और सबसे ज्यादे विस्वास से बोले जाने वाला झूठ भी ''....

'' गर धर्म एक अच्छे इन्सान होने का सर्टिफिकेट होता तो इस दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती ''.धर्म के नाम पे या सम्प्रदाय के नाम पे किये जाने वाली हत्याएं नहीं होतीं.भगवान है तो वों दुनिया में होने वाली दुःख तकलीफों को कम क्यों नहीं करता.आप गधे हो सकते हैं मैं नहीं.जब आपको यहाँ भी उन्ही भगवानो को पूजना है तो फिर कोई जरुरत नहीं नए पन्थो और भगवानों की.दरअसल इन्हें शिकायत ये नहीं है की मैं भगवान को मानता हूँ या नहीं ..शिकायत इस बात की है क़ि मैं इनकी तरह गधा नहीं निकला और इनके मालिक का बोझ नहीं धो रहा और उसपे इनका मालिक अपने अदृश्य कोड़े भी मुझपे नहीं बरसा रहा...? बहुत से सवल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता...

है तो कहने को बहुत कुछ मगर..फिर कभी ...
आखिरी में इस ब्लॉग क़ि पहली पोस्ट पे आई एक कमेंट्स -
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J.S. PARMAR - जब कहीं पढ़ता हूँ की नास्तिकता के विरूद्ध लड़ना है तो सिहर उठता हूँ, कहीं अगला नम्बर अपना ही तो नहीं?
नास्तिकता हो या आस्तिकता, दोनो के दो दो मार्ग है, इन्हे समझा जाना चाहिए.
जहाँ आस्तिकता के एक मार्ग के राही महात्मा गाँधी थे तो दूसरा मार्ग लादेन ने पकड़ रखा है. वैसे ही नास्तिकता के एक मार्ग पर स्टालिन चला था तो दूसरा मार्ग महावीर और बुद्ध द्वारा रोशन हुआ है. अब यह तो व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह किस रास्ते जाता है.
दोनों ही रास्तों के खतरनाक दृष्टांत हैं। मेरा तो यही कहना है कि आदमी की आस्था अपने में होनी चाहिए। वह आस्तिक हो या नास्तिक, अगर उसकी आस्था अपने ऊपर नहीं रही तो वह खंडहर की तरह कभी भी ढह सकता है।

बर्बरता के विरुद्ध: ईश्वर की सत्ता में यकीन रखने वाले मित्रों से एक अपील!!!

बर्बरता के विरुद्ध: ईश्वर की सत्ता में यकीन रखने वाले मित्रों से एक अपील!!!

Saturday, May 15, 2010

दोहराव असहज है पर सहज है

‘नास्तिकता सहज है’ लिखते समय थोड़ा-सा अंदाज़ा था कि इसे पढ़कर कुछ मित्र असहज हो सकते हैं। शायद अब तक किसी ने ऐसा कहा नहीं। बहरहाल, मैंने नास्तिक के प्रचलित अर्थों को लिया। एक आदमी जिसका भगवान से कोई लेना-देना नहीं, जो अपने दैनिक कार्यों के लिए अपनी शक्ति, बुद्धि, विवेक आदि पर भरोसा करता है, उनका इस्तेमाल करता है। बच्चा अज्ञानी तो है पर इस अर्थ में नास्तिक भी है कि ईश्वर से अभी उसका कोई लेना-देना नहीं है। भविष्य में भी होने की संभावना कम है अगर ईश्वर उस पर थोपा न जाए और उसके पूरे जीवन के देशकाल में क़िस्सों से लेकर परिवार या समाज तक ईश्वर जैसी कोई कल्पना तक न हो। यकीनन इस बच्चे की नास्तिकता में तार्किकता नहीं होगी। बड़े होने पर यह तार्किकता आ भी सकती है और नहीं भी। फ़िलहाल मैं तो यह तय करने की स्थिति में नहीं ही हूं कि तार्किकता जन्मजात होती है या ज्ञान भी इसमें कोई मदद कर सकता है। नास्तिक बनने की प्रक्रिया में तर्क वहां लगभग अवश्यंभावी है जहां बचपन से आस्तिकता सीखा व्यक्ति बाद में नास्तिक हो जाता है। मैं ज्ञान की बात नहीं कर रहा। हर ज्ञानी तार्किक नहीं होता। लेकिन तार्किक अपनी सीमाओं के बीच यथासंभव ज्ञानी होता है। उसकी तर्कबुद्धि उसे ज्ञानार्जन के लिए कभी प्रेरित तो कभी मजबूर करती है। लेकिन तार्किक वह वृहत ज्ञानार्जन के बिना भी होता है, अगर यह उसका स्वभाव है।

एक वक्त था जब हमारा काम अंग्रेजी सीखे बिना भी चलता था। अपनी भाषाओं-बोलिओं में सारे काम संभव थे इसलिए उसकी ज़रुरत ही नहीं थी। अब माहौल दूसरा है। बहुत से लोग मानते हैं कि अब अंग्रेजी सीखे बिना गुज़ारा नहीं। इसी तरह एक जन्मजात नास्तिक को भी अपनी नास्तिकता के बचाव या समर्थन में तर्क और ज्ञान की ज़रुरत वहीं पड़ने वाली है जहां आस-पास के माहौल में ईश्वर अंग्रेजी की तरह स्थापित हो। अगर ऐसा नही ंहै तो उसे तर्क या ज्ञान की ज़रुरत नहीं है। हां, ऐसा नास्तिक ठोस भी हो सकता है और पिलपिला भी। यह फिर से उसकी तर्क-क्षमता पर निर्भर करेगा।

विज्ञान से उम्मीद रखने में कतई बुराई नहीं। उसे हमने बहुत कुछ करते देखा है। जबकि ईश्वर को हमने कभी कुछ करते नहीं देखा। काल्पनिक ईश्वर पर भी हम यहां वास्तविक विज्ञान की बदौलत बात कर पा रहे हैं। यहां तक कि ईश्वर की तुलना प्रेम से भी नहीं की जा सकती। भले कुछ लोग प्रेम को वासना कहें, पर उसकी उपस्थिति हर व्यक्ति कभी न कभी अपने मन और देह में महसूस करता है, बिना किसी के बताए-सिखाए भी। उसकी शारीरिक परिणति भी होती है। पर ईश्वर के मामले में ऐसा कुछ नहीं है।

ईश्वर की कल्पना मनुष्य ने किन परिस्थितियों में की थी, इस पर अब हज़ारों साल बाद तो अंदाज़े ही लगाए जा सकते हैं, कोई निर्णय कैसे दिया जा सकता है ? बहुत से लोग ईश्वर को मनुष्य की व्यापारिक और षाड्यंत्रिक बुद्धि का नतीजा भी मानते हैं। कुछ डर का परिणाम मानते हैं।
यह बात भी उठी है कि अगर यह सृष्टि ईश्वर के बिना बनी है तो यह भी तो चमत्कार है। क्यों ? यह चमत्कार क्यों है ? और इसके समकक्ष ईश्वर को चमत्कार मानना नास्तिकों के संदर्भ में इसलिए फिज़ूल है कि नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करता। सृष्टि को चमत्कार मानें या कुछ और, वह हमें दिखाई तो पड़ती है, हम उसके साथ जीते तो हैं, महसूसते तो हैं, इस्तेमाल तो करते हैं। मगर ईश्वर !?

जो नास्तिक अपनी तार्किकता की वजह से नास्तिक हैं, उनमें मत-भिन्नता स्वाभाविक है। फिर, दुनिया के किन्हीं दो लोगों में एक जैसी योग्यता हो, अव्यवहारिक ही लगता है। इस ब्लाग के सदस्यों के साथ भी ऐसा ही हो तो क्या आश्चर्य ? अगर सभी एक जैसी योग्यता रखते तो एक ही सदस्य काफी था। सौ-पचास की क्या ज़रुरत !

शब्द और भाषा बदलकर बार-बार दोहराए जाने वाले प्रश्न असहज कर देते हैं। पर नास्तिकता और आस्तिकता के बीच बहस में फ़िलहाल इसी स्थिति को सहज मानना होगा।

एक बात साफ कर दूं, ऐसी बहस से मैं बचता हूं जिसमें ‘फलां तो मेरा फेवरेट है, आराध्य है, फलां का अपमान सारे ब्रहमांड का अपमान है’ जैसे भावुकता-प्रधान तर्क शुरु हो जाते हैं। या व्यक्ति से चिढ़ के चलते हम उसकी हर बात का विरोध शुरु कर देते हैं। ऐसे में सहमति की दस्तक तक नहीं सुनाई देती बल्कि व्यक्ति के प्रति हमारी चिढ़ हमारे विवेक पर इस तरह सवार हो जाती है कि कई बार हम थोड़ी-थोड़ी देर बाद अपनी ही बातों को काटना शुरु कर देते हैं।

शुक्र है कि यहां सभी समझदार लोग हैं और अभी तक ऐसी कोई स्थिति पैदा नहीं हुई। इसके लिए सभी का आभार।

-संजय ग्रोवर

Sunday, May 2, 2010

नास्तिकता मेरी नज़र से


व्यक्तिगत विचारों की अभिवयक्ति के लिए जब मौका हाथ आता है तो अपने बारे में बातें करना सच में अच्छा लगता है वैसे भी मैं अपनी ही फोटो को घंटों निहारने वालों में से हूँ! आत्म-मुद्धता का ऐसा शिकार की अपने तेज के सामने हर किसी का तेज मद्धिम लगता है मेरे नास्तिक विचारों को खाद यहीं से मिलती होगी शायद  (मतलब साफ़ है मै अपना बखान करने वाला हूँ)
 इसके पहले की पोस्ट में जो बहस हो रही थी उसे पढ़ते हुए अजीब लगरह था की अब आस्था को वैज्ञानिक और तार्किक कैसे कहा जा सकता है! आस्था अंधी होती है और होनी भी चाहिए उसे तर्क की आवश्यकता नहीं! और आस्था को तर्क के ज़रीय अभिवयक्त कैसे किया जा सकता है! आस्था की शुरुआत वहीँ होती है जहाँ अँधेरा हो और जैसे जैसे उजाला होगा चीजें साफ़ होती जायेंगी अब अँधेरे में काल्पनिक कृतियाँ बना कर कोई उसके ठोस होने का तर्क कैसे दे सकता है सही है की तर्क या विज्ञान अभी बहुत सारी चीजों को नहीं समझ पाया है! अब ज़मीन परिकर्मा करती है कहने वाला आज की दुनिया में होता तो क्या भला बेचारा मारा जाता!
ऐसा कभी कभी हमें खुद भी अहसास होता है जैसे मुझे अक्सर परेशानी हुयी की आदमी का पूर्वज कौन है आदम या बन्दर! स्कूल में बन्दर तो घर पर आदम और ऐसी ही कई बातें अक्सर परेशान करती रहीं थी मगर किस्मत अच्छी थी की मुझे बचपन में ही बिगड़ने वाला  बंद मिल गया था! मेरे मौलवी साहब बड़े मस्त आदमी थे और सच कहूँ तो वैसा इंसान आजतक नहीं टकराया! माँ बाप जिस बन्दे को मुझे धर्म पढ़ाने के लिए रखा था वास्तव में उसने मेरी ज़िन्दगी का रास्ता बदल दिया! अपने मौलवी साहब "मुगल-ए-आज़म" काहे जाते थे अपनी नफासत के लिए और बहुत बड़े आलोचक दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी आलोचना वो नहीं कर सकते हों और पुरे तर्क के साथ एक जनवादी मैंने पूछा भी था की आप नक्सली तो नहीं (मैं बिहार के गया से हूँ और उस समय नक्सालियों ने मेरे रिश्ते के मामू की हत्या कर दी थी जब वो मुझे मेरे घर छोड़ कर वापस लौट रहे थे सो नक्सालियों को जानता था और उनसे नफरत भी करता था) वही अजीब अजीब बातें करते हैं! खैर मैंने पूछा की हमारे पूर्वज कौन हैं वो बोले आदम मैंने कहा बन्दर क्यों नहीं उन्होंने कहा की यार आदम के पूर्वज कौन हैं ये मैंने नहीं बताया! अब मै समझा उत तेरी मतलब हमारे पूर्वज आदम और आदम के पूर्वज बन्दर वाह ये सही है उन्होंने कहा की हो सकता है की यही हो मगर तुम पता करो ज्यादा पढ़ो!  उनका अपना फंडा था विचार की परंपरा से  मत बंधो जानो जितना ज्यादा हो सके! इंसान की ज़िन्दगी दुनिया को खुबसूरत बनाने के लिए है! जड़ता से अलग होना और निरंतरता ही सही रास्ता है जिसके ज़रिये आगे बढ़ा जाना चाहिए! हर संरचना एक ओर वर्त्तमान को मजबूत करती है तो दूसरी ओर एक वर्ग का शोषण करती है कोशिश करो कुछ एक ऐसे समाज के निर्माण की जो संरचना से ऊपर हो  स्वछंदता जैसा कुछ
उनसे बात करना दिमाग का दही करना लगता था अजीब प्राणी हर जवाब "हो भी सकता है और नहीं भी तुम पता करो खुद से" ही होता एक बार तो मैंने पूछ ही लिया की आपको पढ़ाना है नहीं सब मुझे ही करना है तो फिर रहने दीजिये मत आया कीजिये! 
वैसे तो उन्होंने ने मुझे कुरान पढाई हदीसों की व्याख्या और इस्लाम के अलग अलग सेक्ट की मान्यता और उनकी व्याख्याएं भी बताई साथ ही नंदन और अन्य पत्रिकाएं जिनमे सनातनी कथाएं आती को भी पढने को भी कहा नक्सालियों के पर्चे भी पढ़वाये और पता नहीं क्या क्या जो उनके पास था या जो मेरे घर पर बड़े भाई की किताबों का गोदाम था उनमे से छटाई करके पढ़ाते रहना मै भी नालायक खेलने में कम और किताबों में ज्यादा उलझ गया! उन्होंने आँख बंद करके मानने के बजाये चीजों को कसौटी पर कसने को प्रोत्साहित किया! धर्म से ज्यादा समाज के अध्ययन पर जोर दिया और परिणाम खतरनाक हो गया इतना की जबतक  मैं पांचवी में पंहुचा तब तक ये समझ चूका था की धार्मिक व्यवस्था को हम राजनैतिक व्यवस्था जैसा ही कुछ है! (अब धर्म एक राजनैतिक व्यवस्था कैसे है फिर कभी बताऊंगा मगर बौद्धिक बहस मैं नहीं करता) जहाँ तक मुझे लगता है की वास्तव में नास्तिकता या स्वछंदता की उत्पत्ति के पीछे आत्म-मुग्द्धता,सामाजिक  व्यवस्था की समझ या ज्यादा जानने या समझने की इच्छा से होती है! फार्मूले में बंध जाना आपको संकीर्ण कर देता है यही वजह है की चाँद पर जाने वाली मिसाईल (लांचर) पर नारियल फोड़ा जाता है या शैम्पेन की बोतल तोड़ी जाती है ताकि सब शुभ शुभ हो! और शायद यही वजह होती है जो वैज्ञानिकों को आस्तिक बनाती है! सही मायने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब किसी विशेष शाखा का विशेषज्ञ होना नहीं होता वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है समग्रता और समग्रता आपको ना केवल नास्तिक बनाती है आपितु पक्के तौर पर किसी भी शाखा से दूर ले जाती है (बाकी फिर कभी)