Tuesday, June 1, 2010

मैं नास्तिक हूं....

मुझे अपनी समझ से
दुनिया को समझने में
अपने हिसाब से
अपने रास्ते पर
चलने में
अपने लिए
अपने खयाल बुनने में
अपने विचारों को
अपनी ज़ुबान में
कहने में
अपनी मस्ती में
बहने
अपनी धुन में
रहने में
नहीं कोई दुविधा है....

मुझे सवाल पूछने
जवाब मांगने
तर्क करने
उंगली उठाने
सोचने समझने
गुत्थियां सुलझाने
अपने मानक
खुद तय करने
दोजख-नर्क के
भय के बिना
जीने और मरने
आवाज़ उठाने
और
तुम्हें मानने
या नकारने में
सुविधा है....

मेरे लिए
ज़ोर से हंस पड़ना
हर अतार्किक बात पर
व्यंग्य करना
तुम्हारे तथाकथित
अनदेखे
अप्रमाणित ईश्वरों पर
न जाना, न जताना
भरोसा
इन इबादत घरों पर
परमकृपालु ईश्वर
हमेशा मेहरबान खुदा
के नाम पर
तुम्हारे द्वारा
किए गए
अपमानों
दी गई गालियों
और हमलों का जवाब
मुस्कुराहट
से देना भी
एक कला है
विधा है.....

और हां
सच है तुम्हारा ये आरोप
ईश्वर के (न) होने
जितना ही
कि मैं
एक नास्तिक हूं.....

mailmayanksaxena@gmail.com

एक शापित नास्तिक का बयान

नास्तिक से पहली गलती ये हुई कि वह बिग बैंग का उल्लेख देख कर वह एक आस्तिक के ब्लाग पर जा पहुँचा। उस ने दूसरी गलती ये की कि उस ने पोस्ट पढ़ ली और तीसरी गलती ये हुई कि उस ने उस पर टिप्पणी करते हुए एक प्रश्न लिख दिया। अब आप ही सोचें, आखिर एक गलती माफ की जा सकती है, दूसरी गलती में मामूली सजा दी जा सकती है। लेकिन तीसरी तो पूरी तरह से अक्षम्य होती है। आखिर कठोर दंड मिलना तो नास्तिक ने ही तय कर लिया था, भला उस से बचता कैसे? वैसे आप को बता दें कि उस नास्तिक ने वहाँ टिप्पणी क्या की थी? तो लीजिए आप भी पढ़ लीजिए.....
क्या कुरआन (उस के) आने से पहले के तमाम सिद्धांतों की नकल मात्र है? बिगबैंग का सिद्धांत तो सांख्य में कुरआन के सैंकड़ों बरस पहले से है, जो एक अनीश्वरवादी दर्शन है।

अब ये नास्तिक जी का एक मासूम सवाल ही था। पर इस में तीन गलतियाँ शामिल थीं। माफ तो कैसे किया जाता। आस्तिक ब्लागर ने अपना स्पष्टीकरण दिया .....

इस पोस्ट में मैंने बिग बैंग को पूरी तरह सही नहीं माना है बल्कि कुरआन और कुछ और पुराने ज्ञान के आधार पर इस सिद्धांत में सुधार की कोशिश की है।

आस्तिक ब्लागर जी कोई अकेले तो आस्तिक नहीं? सारी दुनिया आस्तिकों से भरी पड़ी है। दूसरे आस्तिक जी को उन का यह स्पष्टीकरण दुनिया के तमाम आस्तिकों की कमजोरी लगा। उन्हों ने सोचा तीन गलतियों की सजा शाप से कम तो हो नहीं सकती तो उन्हों ने एक लम्बा-चौड़ा, भारी-भरकम शाप दे डाला। जरा आप भी गौर फरमाइए इस शाप पर .......
 @ वकील साहब! ईश्वर ने ही मनुष्य को बुद्धि दी है। वह उससे सोचता है और ब्रह्माण्ड के रहस्यों को सुलझाने की कोशिश करता है और वह किसी सत्य नियम को पा लेता है । और वही नियम हज़ारों मील दूर की अजनबी भाषा में सैकड़ों साल पहले की किताब में लिखा मिलता है तो क्या सचमुच यह इसी तरह नज़रअन्दाज़ कर देने के लायक़ है? जैसे कि आज आप कर रहे हैं । हज़रत मुहम्मद साहब भारत नहीं आये और न ही वे संस्कृत बोलते थे। तब सांख्य का अरबी भाषा में अनुवाद भी नहीं था। वे पढ़े लिखे भी नहीं थे फिर भी उनके द्वारा जो सत्य बताया गया उसे आप स्वीकारने के बजाए नकार रहे हैं ?
ठीक है, आज आपको मालिक ने नकारने का अधिकार दिया है लेकिन मौत आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाएगी जहां आप सत्य को नकारने की दशा में न होंगे लेकिन तब आपका मानना आपके काम न आएगा। आप की रीत को देखकर जो भी गुमराह होगा उसका पाप भी आप पर ही पड़ेगा।
दुनिया में भी आप आदमी को 120 बी (दुष्प्रेरणा)का मुल्ज़िम ठहराते हैं । परलोक में आप पर दूसरी धाराओं के साथ यह धारा भी लगेगी , अब इस का नम्बर वहां चाहे दूसरा ही क्यों न हो?

अब शापित हो जाने के बाद नास्तिक जी के पास क्या चारा बचा था? उन्हों ने शाप को शिरोधार्य कर लिया। लेकिन अपनी बात कहते हुए चलिए आप ये बात भी पढ़ लीजिए.......
यूँ तो मैं आप की बेवजह मुझे पापी घोषित करने वाली बात का उत्तर देना जरूरी नहीं समझता। लेकिन इस वजह से कि आप एक इंसान हैं बराबरी से दो बात कहना चाहता हूँ।
कुऱआन आप का विश्वास है, उसे खुदा ने भेजा है यह आप का विश्वास है। इस्लाम का पहला सबक है आँख मूंद कर पहले ईमान लाओ। यह आप का यक़ीन है। आप उसे मानते हैं। हम आप की कद्र करते हैं कि आप अपने विश्वासों पर अटल हैं। लेकिन हम भी अपने विश्वासों पर अटल हैं जिन की बुनियाद आँख मूंद कर यकीन करना नहीं है बल्कि तर्क हैं। हम विश्वास की बिना पर नहीं बल्कि नए तथ्यों और तर्कों की बिना पर अपने विश्वासो मे सुधार करने को भी तैयार रहते हैं। जिस तरह हम आप की कद्र करते हैं आप को भी तर्क आधारित विश्वासों पर हमारे डटे रहने की कद्र करना चाहिए।
मैं इस पर विश्वास नहीं करता कि ईश्वर ने ही मनुष्य को बुद्धि दी है।
-कि हज़रत मुहम्मद साहब भारत नहीं आये। (तो फिर हजरतबल में किसका बाल सुरक्षित है?)  वे संस्कृत जानते भी हों तो किस से बोलते और किसे समझाते? (वहाँ कोई समझने वाला तो होता।) सांख्य को जानने के लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं थी। वह कानों कान अनेक भाषाओं में पूरी दुनिया में फैला है। वह इस कदर दुनिया में व्याप्त हुआ कि एक अनपढ़ और अंगूठा छाप भी उस का इतना ज्ञान रखता है कि वह सांख्य पर पूरी क्लास ले सकता है। आप अनवरत पर सांख्य से संबद्ध पोस्टो में यह सब पढ़ सकते हैं।
नकारने का अधिकार मुझे किसी ने नहीं दिया है वह तो हमेशा से इंसान के पास मौजूद था। उन्हों ने ही ईमान के नाम पर उसे खो दिया। मैं मौत के बाद की जिन्दगी में उसी तरह यकीन नहीं करता जैसे भगत सिंह नहीं करता था।  मेरे पास किसी जन्नत का किसी हूर का लालच नहीं है तो मेरे पास किसी दोजख के दंड का भय भी नहीं है। आप किसे दोजख के दंड का भय दिखा रहे है। वे कमजोर इंसान हैं जो इन काल्पनिक डरों से डरते हैं वे डरते डरते सारी जिन्दगी काट देते हैं, वे इन्सानियत का कोई भला नहीं कर सकते। वे ही कर सकते हैं जो किसी से नहीं डरते उस काल्पनिक खुदा से भी नहीं जो इंसान ने खुद अपने लिए गढ़ा और उस का गुलाम हो गया।  मैं किसी दुष्प्रेरणा का दोषी नहीं हूँ। न ही मैं पाप और पुण्य को मानता हूँ।
खु
दा को नकारने वाला भगतसिंह ही था जिस ने अपने को सोच-समझ कर यह जानते हुए कि जो वह करने जा रहा है उस की सजा मौत है,खुद को कौम के लिए कुर्बान कर दिया। यह जज्बा किसी खुदा से डरने वाले कै पास नहीं हो सकता। अगर आप की सोच सही है औऱ मेरी गलत तो भी आप की सोच के मुताबिक भगत सिंह को भी खुदा को नकारने के लिए दोजख मिली होगी तो मैं भी उस दोजख में जाने को तैयार हूँ। कम से कम वहाँ मैं उस जहीन इंसान से मिल कर उसके कदम तो चूम सकूंगा।