Friday, October 15, 2010

सिर्फ़ इसलिये नही थे भगतसिंह नास्तिक..

क्रांतिकारियों को सम्मान देने की परम्परा में जिस तरह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानियों का सम्मान किया जाता है एवं उनका स्मरण किया जाता है , भगतसिंह का परिचय भी उसी तरह केवल एक स्वतंत्रता सेनानी या समाजवादी क्रान्तिकारी के रूप में दिया जाता है । एक मार्क्सवादी विचारक व चिंतक के रूप में भगतसिंह के परिचय से या तो हम अनजान हैं या अनजान रहना चाहते हैं । यहाँ तक तो फिर भी ठीक है लेकिन भगतसिंह के व्यक्तित्व का एक तीसरा पक्ष भी है जो उनके लेख “ मैं नास्तिक क्यों हूँ “ कि वज़ह से प्रकाश में आया । इस पक्ष से लगभग देश का बहुत बड़ा वर्ग अनजान है ।

भगतसिंह के व्यक्तित्व के इस पक्ष के अप्रकाशित रहने का सबसे बड़ा कारण इस पक्ष से किसी भी व्यकि को उसका राजनैतिक लाभ न होना है । भगतसिंह की मार्क्सवादी विचारधारा का एक वर्ग उल्लेख तो करता है लेकिन उनके नास्तिक होने न होने से किसीको कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । भगत सिंह की मृत्यु 23 वर्ष की उम्र में हुई इस बात का उल्लेख केवल इसी संदर्भ में किया जाता है कि इतनी कम उम्र में उनके भीतर स्वतंत्रता प्राप्ति की आग थी और जोश था लेकिन उनके नास्तिक होने को लेकर यही उम्र अपरिपक्वता के सन्दर्भ में इस्तेमाल की जाती है । ऐसा कहा जाता है कि इस उम्र में भी धर्म या ईश्वर को लेकर कहीं कोई समझ बनती है , या भगतसिंह के संदर्भ में ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जाता है कि यदि भगतसिंह जीवित रहते तो वे भी पूरी तरह आस्तिक हो जाते ।

इस तरह से भगतसिंह के नास्तिक होने का बहुत गैरज़िम्मेदाराना ढंग से उल्लेख कर दिया जाता है । लेकिन यदि भगतसिंह का लेख “ मैं नास्तिक क्यों हूं “ पढ़ा जाए तो वह इस विषय में बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर देता है । भगतसिंह ने यह लेख न किसी अहंकार में लिखा न ही उम्र और आधुनिकता के फेर में । वे इस लेख में धर्म और नास्तिकवाद की विवेचना के साथ साथ पूर्ववर्ती क्रान्तिकारियों की धर्म व ईश्वर सम्बन्धी धारणा का उल्लेख भी करते है । भगतसिंह ने इस बात का आकलन किया था कि उनके पूर्ववर्ती क्रांतिकारी अपने धार्मिक विश्वासों में दृढ़ थे । धर्म उन्हें स्वतन्त्रता के लिये लड़ने की प्रेरणा देता था और यह उनकी सहज जीवन पद्धति में शामिल था ।

यह लोग उन्हें गुलाम बनाने वाले साम्राज्यवादियों से धर्म के आधार पर घृणा नहीं करते थे , इसलिये कि वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ वे जानते थे और धर्म तथा अज्ञात शक्ति में विश्वास उन्हे स्वतंत्रता हेतु लड़ने के लिए प्रेरित करता था । इसके विपरीत साम्राज्यवादियों ने धर्म और ईश्वर में श्रद्धा को उनकी कमज़ोरी माना और इस आधार पर उनमें फूट डालने का प्रयास किया । इतिहास इस बात का गवाह है कि वे इसमें सफल भी हुए ।

भगतसिंह तर्क और विवेक को जीवन का आधार मानते थे । उनकी मान्यता थी कि धर्म और ईश्वर पर आधारित जीवन पद्धति मनुष्य को शक्ति तो अवश्य देती है लेकिन कहीं न कहीं किसी बिन्दु पर वह चुक जाता है । इसके विपरीत नास्तिकता व भौतिकवाद मनुष्य को अपने भीतर शक्ति की प्रेरणा देता है । इस शक्ति के आधार पर उसके भीतर स्वाभिमान पैदा होता है और वह किसी प्रकार के समझौते नहीं करता है । भगतसिंह इस बात को भी समझ गए थे कि धर्म का उपयोग सत्ताधारी शोषण हेतु करते हैं । यह वर्गविशेष के लिए एक हथियार है और वे ईश्वर का अनुचित उपयोग आम जनता में भय के निर्माण हेतु करते हैं ।

इस लेख में भगतसिंह इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे प्रारम्भ में नास्तिक नहीं थे । उनके दादा व पिता आर्यसमाजी थे और प्रार्थना उनके जीवन का एक अंग था । जब उन्होनें क्रांतिकारियों का साथ देना शुरू किया तब वे सचिन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए जो स्वयं आस्तिक थे । काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को भी उन्होनें देखा कि वे अन्तिम दिन तक प्रार्थना करते रहे । रामप्रसाद बिस्मिल आर्यसमाजी थे तथा राजन लाहिरी साम्यवाद का अध्ययन करने के बावज़ूद गीता पढ़ते थे ।

भगतसिंह कहते हैं कि इस समय तक वे भी आदर्शवादी क्रांतिकारी थे लेकिन फिर उन्होनें अध्ययन की शुरुआत की । उन्होनें बाकनिन को पढ़ा , मार्क्स को पढ़ा । फिर उन्होने लेनिन व ट्राटस्की के बारे में पढ़ा , निर्लंब स्वामी की पुस्तक “ कॉमन सेन्स “ पढ़ी । इस बात को सभी जानते हैं कि वे फ़ाँसी के तख्ते पर जाने से पूर्व भी अध्ययन कर रहे थे । इस तरह बुद्ध , चार्वाक आदि विभिन्न दर्शनों के अध्ययन के पश्चात अपने विवेक के आधार पर वे नास्तिक बने ।

यद्यपि इस बात को लेकर उनकी अपने साथियों से बहस भी होती थी । 1927 में जब लाहौर में उन्हें गिरफ़्तार किया गया तब उन्हें यह हिदायत भी दी गई कि वे प्रार्थना करें । उनका तर्क था कि नास्तिक होना आस्तिक होने से ज़्यादा कठिन है । आस्तिक मनुष्य अपने पुनर्जन्म में सुख भोगने की अथवा स्वर्ग में सुख व ऐश्वर्य प्राप्त करने की कल्पना कर सकता है । किंतु नास्तिक व्यक्ति ऐसी कोई झूठी कल्पना नहीं करता । वे जानते थे कि जिस क्षण उन्हे फ़ांसी दी जाएगी और उनके पाँवों के नीचे से तख्ता हटाया जाएगा वह उनके जीवन का आखरी क्षण होगा और उसमे बाद कुछ शेष नहीं बचेगा । वे सिर्फ अपने जीवन के बाद देश के स्वतंत्र होने की कल्पना करते थे और स्वयं के जीवन का यही उद्देश्य भी मानते थे ।

भगत सिंह ने यह लेख जेल में रहकर लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है भगतसिंह को अगर सम्पूर्ण रूप में जानना है तो यह लेख पढ़ना आवश्यक है । - शरद कोकास

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प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी.
प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है.

उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है. लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है.

लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी.

यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे. तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना.

यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ. इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है.

जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ.

एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला.

लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ.

मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.

हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है.

जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?

कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.

कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है.

कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है.

नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए.

और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?

सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.

एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं.

तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?

फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?

मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?

सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?

इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है.

ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?

ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?

इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

मुसलमानों और ईसाइयों. हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?

तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है.

मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है.

उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो.

फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है.

कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.

और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.

और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है.

तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं.

मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे.

उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है.

लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं.

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार.

आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है.

केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है. इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है.

लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?

तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो.

मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?

अपने पुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है.

मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?

क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो.

किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता.

वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं.

उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं.

मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?

और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?

यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?

मेरे प्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं.

जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो.

वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.

मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?

ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?

उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?

वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें.

आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे.

जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं.

चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें.

अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं. मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं.

वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं.

यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं.

कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो.

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ. चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसको पढ़ो.

सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो. तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा. यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी.

कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव. डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो.

और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ. यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है.

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?

जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है.

उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं.

स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?

मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे.

अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित.

कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.

यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं.

राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है.

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की.

अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया.

जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए.

जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.

इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है.

वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.

समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था.

इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं.

मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है.

मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी.

मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ.

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा.

जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी.

स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।

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यह लेख समकालीन जनमत से साभार लिया गया है .....एवं इसपर लेख के आरम्भ में दी गई टिप्पणी कवि- आलोचक मित्र श्री शरद कोकास द्वारा लिखी गई है। इस ब्लॉग के सदस्यों और पाठकों की ओर से हम उनका आभार प्रकट करते हैं - मोडरेटर .

Sunday, September 12, 2010

गणपति बप्पा : ईश्वर कहीं नहीं, सिवा इन्सानी दिमाग के


          दुनिया के सबसे अनोखे देव इस समय भारतवर्ष के कुछ गली कूचों में आ बिराजे हैं, भक्त समाज अपने दिमाग की खिड़कियाँ बंदकर उनकी भक्ति में लीन हो गया है। आठ दस दिन बाद इन्हें नदी तालाबों में विसर्जित कर प्रदूषण बढ़ाया जाएगा।
          भारतीयों की उदारता का कोई जवाब नहीं है। वे प्रत्येक असंभव बात पर आँख बंदकर विश्वास कर लेते हैं यदि उसमें ईश्वर की महिमा मौजूद हो। पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाया और नहाने की क्रिया के दौरान कोई ताकाझांकी ना करे इसलिए उस पुतले में प्राण फूँक कर उसे पहरे पर बिठा दिया। ऐसा कितना मैल पार्वती जी के शरीर से निकला होगा इस प्रश्न पर ना जाकर यह सोचा जाए कि पुतले में कैसे कोई प्राण फूँक सकता है, लेकिन चूँकि वे भगवान शिव की पत्नी थीं सो उनके लिए सब संभव था। दूसरा प्रश्न, भगवान की पत्नी को भी ताकाझांकी का डर ! बात कुछ पचती नहीं। किसकी हिम्मत थी जो इतने क्रोधी भगवान की पत्नी की ओर नहाते हुए ताकझांक करता !
          खैर, ज़ाहिर है कि चूँकि पुतला तत्काल ही बनाया गया था सो वह शिवजी को कैसे पहचानता ! पिता होने का कोई भी फर्ज़ उन्होंने उस वक्त तक तो निभाया नहीं था ! माता के आज्ञाकारी पुतले ने शिवजी को घर के अन्दर घुसने नहीं दिया तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदन उड़ा दी। उस वक्त कानून का कोई डर जो नहीं था। पार्वती जी को पता चला तो उन्होंने बड़ा हंगामा मचाया और ज़िद पकड़ ली की अभी तत्काल पुतले को ज़िदा किया जाए, वह मेरा पुत्र है। शिवजी को पार्वती जी की ज़िद के आगे झुकना पड़ा परन्तु भगवान होने के बावजूद भी वे गुड्डे का सिर वापस जोड़ने में सक्षम नहीं थे। सर्जरी जो नहीं आती थी। परन्तु शरीर विज्ञान के नियमों को शिथिल कर अति प्राकृतिक कारनामा करने में उन्हें कोई अड़चन नहीं थी, आखिर वे भगवान थे। उन्होंने हाल ही में जनी एक हथिनी के बच्चे का सिर काटकर उस पुतले के धड़ से जोड़ दिया। ना ब्लड ग्रुप देखने की जरूरत पड़ी ना ही रक्त शिराओं, नाड़ी तंत्र की भिन्नता आड़े आई। यहाँ तक कि गरदन का साइज़ भी समस्या नहीं बना। पृथ्वी पर प्रथम देवता गजानन का अविर्भाव हो गया।
          प्रथम देवता की उपाधि की भी एक कहानी बुज़र्गों के मुँह से सुनी है। देवताओं में रेस हुई। जो सबसे पहले पृथ्वी के तीन चक्कर लगाकर वापस आएगा उसे प्रथम देवता का खिताब दिया जाएगा। उस वक्त पृथ्वी का आकार यदि देवताओं को पता होता तो वे ऐसी मूर्खता कभी नहीं करते। गणेशजी ने सबको बेवकूफ बनाते हुए पार्वती जी के तीन चक्कर लगा दिए और देवताओं को यह मानना पड़ा कि माँ भी पृथ्वी तुल्य होती है। गणेश जी को उस दिन से प्रथम देवता माना जाने लगा। बुद्धि का देवता भी उन्हें शायद तभी से कहा जाने जाता है, उन्होंने चतुराई से सारे देवताओं को बेवकूफ जो बनाया। आज अगर ओलम्पिक में अपनी मम्मी के तीन चक्कर काटकर कोई कहें कि हमने मेराथन जीत ली तो रेफरी उस धावक को हमेशा के लिए दौड़ने से वंचित कर देगा।  आज का समय होता तो मार अदालतबाजी चलती, वकील लोग गणेश जी के जन्म की पूरी कहानी को अदालत में चेलेन्ज करके माँ-बेटे के रिश्ते को ही संदिग्ध घोषित करवा देते।
          बहरहाल, इस बार भारत में गणेशजी ऐसे समय में बिराजे हैं जबकि दुनिया में ईश्वर है या नहीं बहस तेज हो गई है। इस ब्रम्हांड को ईश्वर ने बनाया है कि नहीं इस पर एक वैज्ञानिक ने संशय जताया जा रहा है जिसे पूँजीवादी प्रेस प्रचारित कर रहा है। जो सत्य विज्ञान पहले से ही जानता है और जिसे जानबूझकर मानव समाज से छुपाकर रखा गया है, उसे इस नए रूप में प्रस्तुत करने के पीछे क्या स्वार्थ हो सकता है सोचने की बात यह है। क्या विज्ञान की सभी शाखाओं को समन्वित कर प्रकृति विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के सत्यों को पहले कभी उद्घाटित नहीं किया गया ? किया गया है, परन्तु यह काम मार्क्सवाद ने किया है, इसीलिए वह समस्त विज्ञानों का विज्ञान है, परन्तु चूँकि वह शोषण से मुक्ति का भी विज्ञान है, इसलिए उसे आम जनता से दूर रखा जाता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद-ऐतिहासिक भौतिकवाद को लोगों से छुपाकर रखा जाता है, जबकि अगर कोई सचमुच सत्य को खोजना चाहता है तो इस सर्वोन्नत विज्ञान को जानना बहुत ज़रूरी है।
          लोग ईश्वर की खोज के पीछे पड़े हैं। हम कहते हैं कि ईश्वर की समस्त धारणाएँ धर्म आधारित हैं, तो पहले यह खोज कीजिए कि धर्म कहाँ से आया, कैसे आया। धार्मिक मूल्य अब इस जम़ाने में मौजू है या नहीं। मध्ययुगीन धार्मिक मूल्यों के सामने आधुनिक मूल्यों का दमन क्यों किया जाता है। यदि आप यह समझ गए कि अब आपको मध्ययूगीन धार्मिक मूल्यों की जगह नए आधुनिक मूल्यों की आवश्यकता है जो वैज्ञानिक सत्यों पर आधारित हों, तो ईश्वर की आपको कोई ज़रूरत नहीं पडे़गी।
          एक मोटी सी बात लोगों के दिमाग में जिस दिन आ जाएगी कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है, सारे अनसुलझे प्रश्न सुलझ जाऐंगे। क्योंकि पदार्थ (मस्तिष्क) इस सृष्टी में पहले आया, विचार बाद में। ईश्वर मात्र एक विचार है, उसका वस्तुगत अस्तित्व कहीं, किसी रूप में नहीं है, सिवा इन्सान के दिमाग के। 


Saturday, September 4, 2010

शिक्षक दिवस : क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ‘शिक्षकों’ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए

    आज शिक्षक दिवस है। सारे अखबार या तो शिक्षकों की बदहाली अथवा प्रशंसा से भरे हुए हैं। अच्छी बात है, जो शिक्षक हमें एक सफल सामाजिक प्राणी बनाने के लिए अपनी रचनात्मक भूमिका निभाकर एक महान कार्य करता है, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना एक सुशिक्षित व्यक्ति के लिए लाज़मी है और दूसरी और इस महती सामाजिक कार्य की जिम्मेदारी उठाने वाली महत्वपूर्ण इकाई के प्रति सरकार के असंवेदनशील रुख की भर्त्सना करना भी उतना ही ज़रूरी है।
    सरकार का शिक्षकों को दोयम दर्ज़े के सरकारी कर्मचारी की तरह ट्रीट करना, उनके वेतन, भत्तों, सुख-सुविधाओं के प्रति दुर्लक्ष्य करना, उन्हें जनगणना, पल्स पोलियों, चुनाव आदि-आदि कार्यों में उलझाकर शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य से विमुख करना, इनके अलावा और भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो एक शिक्षक की भूमिका और महत्व को सिरे से खारिज करते से लगते हैं। लेकिन, इस सबसे परे, शिक्षकों की अपनी कमज़ोरियों, अज्ञान, कुज्ञान, अवैज्ञानिक चिंतन पद्धति, भ्रामक एवं असत्य धारणाओं के वाहक के रूप में समाज में सक्रिय गतिशीलता के कारण आम तौर पर मानव समाज का और खास तौर पर भारतीय समाज का कितना नुकसान हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है।
    पिछले दो-तीन सौ साल मानव सभ्यता के करोड़ों वर्षों के इतिहास में, विज्ञान के विकास की स्वर्णिम समयावधि रही है। इस अवधि में प्रकृति, विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के अधिकांश रहस्यों पर से पर्दा उठाकर सभ्यता ने व्यापक क्रांतिकारी करवटें ली हैं। एक अतिप्राकृतिक सत्ता की अनुपस्थिति का दर्शन भी इसी युग में आविर्भूत हुआ है जिसकी परिणति दुनिया भर में मध्ययुगीन सामंती समाज के खात्में के रूप में हुई थी जिसका अस्तित्व ही ईश्वरीय सत्ता की अवास्तविक अवधारणा पर टिका हुआ था।
    भारतीय समाज में सामंती समाज की अवधारणाओं, मूल्यों का पूरी तौर पर पतन आज तक नहीं हो सका है और ना ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की समझदारी, आधुनिक चिंतन, विचारधारा का व्यापक प्रसार ही हो सका है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस समाज में ’सत्य-सत्य‘ का डोंड सामंती समय से ही पीटा जाता रहा हो उस समाज में ’सत्य‘ सबसे ज़्यादा उपेक्षित रहा है।
    हमें आज़ाद हुए 62 वर्ष से ज़्यादा हो गए, देश आज भी सामंत युगीय अज्ञान एवं कूपमंडूकता की गहरी खाई में पड़ा हुआ है। धर्म एवं भारतीय संस्कृति के नाम अवैज्ञानिक क्रियाकलापों कर्मकांडों का ज़बरदस्त बोलबाला हमारे देश में देखा जा सकता है। क्या शिक्षक का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ? क्या ’धर्म‘ की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की संस्कृति को रोपने, वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करने की जिम्मेदारी ’शिक्षकों‘ की नहीं थी ? क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ’शिक्षकों‘ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए जिसने हमारे देश को सदियों पीछे रख छोड़ा है ? क्या मध्ययुगीन अवधारणाओं के दम पर विश्व गुरू होने का फालतू दंभ चूर चूर कर, वास्तव में ज्ञान की वह ’सरिता‘ प्रवाहित करना एक अत्यावश्यक ऐतिहासिक कार्य नहीं था जिसके ना हो सकने का अपराध किसी और के सिर पर नहीं प्रथमतः शिक्षकों के ही सिर पर है।
    अब भी समय है, प्रकृति मानव समाज एवं विश्व ब्रम्हांड के सत्य को गहराई में जाकर समझने और एकीकृत ज्ञान के आधार पर भारतीय समाज में व्याप्त अंधकार को दूर करने की लिए प्रत्येक शिक्षक आज भी अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है, बशर्ते वह अपने तईं ना केवल ईमानदार हो बल्कि सत्य के लिए प्राण तक तजने को तैयार हो।

Wednesday, August 4, 2010

होगे तुम भगवान...

मैं तुम्हें नहीं मानता
जाओ कर लो
जो बन पड़े
होगे तुम सर्वशक्तिमान

तुम्हारी मूर्तियां
मुझे कला के तौर पर
तो लुभाती हैं
पर लगवा नहीं पाई
कभी पूजा पाठ में ध्यान

तुम्हारे आस्थावान
भक्तों की
क्रूर यातनाएं बताती हैं मुझे
कि तुम वाकई हो
कितने महान

तुम दिखाई नहीं देते है
ये जो प्रश्नचिह्न है
अस्तित्व पर
तुम्हारे उपासकों के लिए है
सर्वोपरि प्रमाण

जितना दबाव डालते हैं
तुम्हारे पूजक मुझ पर
मेरी आस्था
मेरे तुमको न मानने में
होती रही उतनी बलवान

मैं नहीं मानता
तुमको कि हो तुम
कहीं भी
जाओ तुम
होगे खुद के भगवान....

Tuesday, July 27, 2010

OSHO: God Is Not a Solution - but a Problem



** भगवान का शुक्र है कि वह नहीं है ! **
एक तो ये सज्जन विवादास्पद हैं। तिसपर यूट्यूब वालों का कुछ पता नहीं कब वीडियो हटाकर बोल दें कि भैय्या, वहीं आकर देख लो ! इसलिए चिंतन-मनन, बहस-मुबाहिसा जो करना हो, कर डालिए।
इतनी सार्थक  बहस शायद नास्तिक ही कर सकते हैं.

Thursday, July 8, 2010

माधवाचार्य और लोकायत दर्शन

भारतीय दर्शन के इतिहास में भौतिकवाद और आदर्शवाद की दो परस्पर विरोधी धाराएँ एक साथ चलीं हैं दार्शनिक एक के बाद एक आते गए , लेकिन उन्होंने किसी नए मत का प्रतिपादन करके सिर्फ किसी प्राचीन दार्शनिक संप्रदाय से सहमति जताते हुए उसे बल प्रदान किया। उन्होंने स्वयं किसी नए संप्रदाय की नीव रखकर ऐसा लिखा की यह पहले से वर्णित है और यहाँ सिर्फ इसका विस्तार अथवा खुलासा किया जा रहा है अर्थात मेरा कोई स्वतंत्र अस्तित्व है, ऐसा दावा किसी भी दार्शनिक द्वारा नही किया गया। उन्होंने अपने मत के संरक्षण के लिए उसे पोषित किया और विरोधी मत की आलोचना की. आज के कई आधुनिक विद्वान प्राचीन भारतीय भौतिकवाद के विवरण के लिए माधवाचार्य के सर्वदर्शन संग्रह पर आश्रित है. हम इस आलेख में यह जानने का प्रयास करेंगे की क्या इस ग्रन्थ को आधार बनाकर हमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए?.

माधवाचार्य या माधव विद्यारण्य, विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक राजाओं के संरक्षक एवं दार्शनिक थे। उन्होने सर्वदर्शनसंग्रह की रचना की जो हिन्दुओं के दार्शनिक सम्प्रदायों के दर्शनों का संग्रह है। इसके अलावा उन्होने अद्वैत
दर्शन के 'पंचदशी' नामक ग्रन्थ की रचना भी की। उनका जन्म सन् १२६८ में पम्पाक्षेत्र (वर्तमान हम्पी) में मायणाचार्य एवं श्रीमतीदेवी के यहाँ हुआ था। माधवाचार्य विद्यारण्य ने लोकायत को सबसे निम्न कोटि का दर्शन बताया है और अद्वैत वेदान्त को सबसे उत्कृष्ट। हमारे प्राचीन दार्शनिकों ने लोकदर्शन और भौतिकवादी दर्शन जिसे लोकायत कहा जाता है, के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया वह है "चावार्क" या "बर्हस्पत्य" दर्शन। दार्शनिक माध्वाचार्य विद्यारण्य द्वारा लिखित भारतीय दर्शन के सारग्रन्थ सर्वदर्शन सग्रंह मे लिखे लोकायत के विवरण पर एक नजर डालने पर भौतिकवादियों के प्रति उनकी घृणा का हम स्पष्ट अवलोकन कर सकते हैं।

भौतिकवाद के विरोधियों ने जिन युक्तिओं से संदेहवादी और भौतिकवादी दर्शनों को भाववाद में प्रक्षिप्त करने का काम किया है, उनमें से एक यह भी है कि उसके सत्यापन के लिए वे यह तर्क देते हैं कि सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार शनै: - शनै: ही करना उचित होता है इसलिए कई भाववादियों ने अपने ग्रंथों में दर्शन का विवरण भौतिकवाद के सिद्धांत से प्रारंभ करके अंततः तथाकथित "सर्वोंच्च आध्यात्मिक सत्य" तक पहुँचाने का मार्ग अपनाया है यह एक चतुराई पूर्ण युक्ति है, जिससे की प्रतिपक्षी का तिरिस्कार करके उन्हें उपहास का पात्र बनाया जा सके। इसके पीछे यह तर्क भी दिया जाता है कि जिस दार्शनिक संप्रदाय का प्रतिनिधित्व लेखक कर रहा है उसे छोड़कर शेष दार्शनिक मान्यताएं एक श्रृंखला के रूप में हैं, जिनमे पहली कड़ी से अधिक उच्च कोटि की अध्यात्मिक व्याख्या दूसरी कड़ी में उपस्थित है इसी प्रकार क्रमशः जो दर्शन अंत में है, वह सर्वोच्च है, शेष सब उस तक पहुचने के मार्ग भर है। माधवाचार्य के सर्वदर्शन संग्रह में भी यही युक्ति देखने को मिलती है उन्होंने वेदान्त को सबसे अंतिम
में रखा है। कई आधुनिक विद्वान लोकायत मत के विवरण के लिए माधवाचार्य पर आश्रित रहे हैं। माधवाचार्य की लोकायत के प्रति मंसूबों में ईमानदारी है, इस तथ्य को मिथ्या साबित करने के लिए हमारे पास कई प्रमाण हैं।

माधवाचार्य और लोकायत मत के मूल काल में करीब दो हजार वर्षों का अंतर है। प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथो कूटदंत सुत्त और ब्रह्मजाल सुत्त जैसे ग्रंथों में लोकायत मत का विवरण है, जिसमे शरीर और आत्मा को एक ही माना गया है, और इस मत का चलन बुद्ध के काल के पूर्व भी था। दूसरा जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है, माधवाचार्य विजय नगर के संस्थापकों के संरक्षक थे यह समझा जाता है कि साम्राज्य स्थापित करने के लिए उन्होंने मध्य युग के एक मठ से धन प्राप्त किया था अतः उनकी सहानूभूति का रुख शासक वर्ग के दर्शन अथवा वेदान्त के प्रति होना स्वाभाविक सा प्रतीत होता है।

माधवाचार्य ने अपने विरोधियों के प्रति जिस तर्क शैली का परिचय दिया है, वह विचित्र है वे खुद को अपने विरोधियों का समर्थक बताते हुए उनकी तरफ से तर्क प्रस्तुत करते थे जबकि स्वयं उनके विचार भिन्न थे। इस प्रकार की शैली के कारण ही माधवाचार्य ने यह उल्लेख नहीं किया कि लोकायत मतानुयायी क्या तर्क प्रस्तुत करते हैं वे इस बात में उलझे रहे की अगर वे लोकायतिक होते तो क्या कहते। उन्होंने वेदांती तर्क शैली को लोकयातिकों पर थोपा और अपने इच्छानुसार निष्कर्ष निकाल लाये। उदहारण के लिए एक प्रसंग का उल्लेख करना उचित होगा - स्वयं माधवाचार्य ने यह स्वीकार किया है किलोकयातिओं ने "श्रुति" को पाखंडियों की कपट रचना बताया है। आगे वे फिर कहते हैं की लोकयातिओं ने अपने विचारों के समर्थन के लिए उपनिषद का उद्धरण दिया। यह दोनों बातें परस्पर विरोधाभास लिए हुए हैं। यह नितांत ही कल्पनामूलक बात है कि किसी मत का विरोध करने वाला उस मत
में प्रयुक्त युक्तिओं का सहारा अपने कार्य के लिए लेगा।

माधवाचार्य के आभामंडल से परे जाकर जब हम अन्य ग्रंथों वर्णित लोकायत मत पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो कई बातें सामने आती है। उदाहरण के लिए शुक्रनीति सार में स्पस्ट लिखा है की नास्तिकों (लोकयातिओं ) के तर्क बहुत प्रबल हुआ करते थे और उनका रचनात्मक पक्ष भी था। नास्तिकों की मान्यता "सर्व स्वाभाविक मत " अर्थात ऐसा सिद्धांत जिसके अनुसार सब कुछ प्राकृतिक नियमों के अधीन है, एक प्रकार की रचनात्मकता लिए हुए है कि जैसा विवरण माधवाचार्य ने दिया है, वैसा विध्वंसकारी। इसके अलावा कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में सांख्य और योग के साथ लोकायत का उल्लेख किया और इसे तर्क का विज्ञान अथवा आन्वीक्षिकी कहा। मिलिंद में कहानी के नायक नागसेन को लोकायत का ज्ञान प्राप्त है। हर्षचरित (कवेल और थामस द्वारा अनुदित) में जिसमे उपनिषद के अनुयायियों और लोकयातिओं को एक साथ संबोधित किया गया है। लोकयातियों को जिन विद्वानों के समकक्ष रखा गया है, उनमे उपनिषद के अनुयायिओं का होना यह प्रमाणित करता है कि विद्वजनो के मध्य लोकायत मत को वेदान्त दर्शन की तरह ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसी प्रकार एक अन्य पुस्तक विनय पिटक के चुल्लवग्ग में एक दृष्टान्त है, जिसमे किसी महात्मा द्वारा भिक्षुओं को लोकायत प्रणाली का अध्ययन करने से रोकने के लिए निर्देश दिए जा रहे
हैं यहाँ एक तथ्य ध्यातव्य है कि उन्होंने निम्न कोटि की अन्य विद्याओं के साथ बलि देने को भी रखा है। जो यह प्रमाणित करता है कि उपनिषद के अनुयायिओं को लोकयातिओं के समकक्ष रखा जाता था। यह माधवाचार्य द्वारा वर्णित विध्वंसकारी वितंडावादिओं के चित्र से तो कदापि मेल नही खाता।

उपरोक्त कई कारणों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि माधवाचार्य द्वारा वर्णित लोकायत का विवरण प्रमाणिक नही है। माधवाचार्य लोकयातिओं को विध्वंसकारी बता रहे थे, वह तो कपोल कल्पित था ही, असल में उनका दृष्टिकोण स्वयं ही तर्क विज्ञान के प्रति विध्वंसकारी था। वे राजनितिक कारणों से ईश्वर, परलोक आदि की
मान्यता को स्थापित करने के लिए बाध्य थे और उन्होंने यह बेहतर तरीके से किया भी है। हम थोडा ध्यान दें तो जान सकते हैं कि उस काल में जब शासक वर्ग को जनता को नियत्रण में रखने के उद्धेश्य से पौराणिक कथाओं और अन्धविश्वास का सृजन करना पड़ रहा था, माधवाचार्य इन सब से कैसे अछूते रहते, वह भी एक राज्य के राजा के
संरक्षक के रूप में यहाँ गौर तलब हो की लगभग सभी धर्मों में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बताया गया है और उससे विद्रोह को पाप। प्राचीन भौतिकवाद के समृद्ध इतिहास को जानने का प्रयत्न किसी वेदांत दार्शनिक के ग्रन्थ के आधार पर करते वक्त, किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले इन दो विचारधाराओं के मध्य हुए संघर्ष का स्मरण रखना चाहिए।

Tuesday, June 1, 2010

मैं नास्तिक हूं....

मुझे अपनी समझ से
दुनिया को समझने में
अपने हिसाब से
अपने रास्ते पर
चलने में
अपने लिए
अपने खयाल बुनने में
अपने विचारों को
अपनी ज़ुबान में
कहने में
अपनी मस्ती में
बहने
अपनी धुन में
रहने में
नहीं कोई दुविधा है....

मुझे सवाल पूछने
जवाब मांगने
तर्क करने
उंगली उठाने
सोचने समझने
गुत्थियां सुलझाने
अपने मानक
खुद तय करने
दोजख-नर्क के
भय के बिना
जीने और मरने
आवाज़ उठाने
और
तुम्हें मानने
या नकारने में
सुविधा है....

मेरे लिए
ज़ोर से हंस पड़ना
हर अतार्किक बात पर
व्यंग्य करना
तुम्हारे तथाकथित
अनदेखे
अप्रमाणित ईश्वरों पर
न जाना, न जताना
भरोसा
इन इबादत घरों पर
परमकृपालु ईश्वर
हमेशा मेहरबान खुदा
के नाम पर
तुम्हारे द्वारा
किए गए
अपमानों
दी गई गालियों
और हमलों का जवाब
मुस्कुराहट
से देना भी
एक कला है
विधा है.....

और हां
सच है तुम्हारा ये आरोप
ईश्वर के (न) होने
जितना ही
कि मैं
एक नास्तिक हूं.....

mailmayanksaxena@gmail.com

एक शापित नास्तिक का बयान

नास्तिक से पहली गलती ये हुई कि वह बिग बैंग का उल्लेख देख कर वह एक आस्तिक के ब्लाग पर जा पहुँचा। उस ने दूसरी गलती ये की कि उस ने पोस्ट पढ़ ली और तीसरी गलती ये हुई कि उस ने उस पर टिप्पणी करते हुए एक प्रश्न लिख दिया। अब आप ही सोचें, आखिर एक गलती माफ की जा सकती है, दूसरी गलती में मामूली सजा दी जा सकती है। लेकिन तीसरी तो पूरी तरह से अक्षम्य होती है। आखिर कठोर दंड मिलना तो नास्तिक ने ही तय कर लिया था, भला उस से बचता कैसे? वैसे आप को बता दें कि उस नास्तिक ने वहाँ टिप्पणी क्या की थी? तो लीजिए आप भी पढ़ लीजिए.....
क्या कुरआन (उस के) आने से पहले के तमाम सिद्धांतों की नकल मात्र है? बिगबैंग का सिद्धांत तो सांख्य में कुरआन के सैंकड़ों बरस पहले से है, जो एक अनीश्वरवादी दर्शन है।

अब ये नास्तिक जी का एक मासूम सवाल ही था। पर इस में तीन गलतियाँ शामिल थीं। माफ तो कैसे किया जाता। आस्तिक ब्लागर ने अपना स्पष्टीकरण दिया .....

इस पोस्ट में मैंने बिग बैंग को पूरी तरह सही नहीं माना है बल्कि कुरआन और कुछ और पुराने ज्ञान के आधार पर इस सिद्धांत में सुधार की कोशिश की है।

आस्तिक ब्लागर जी कोई अकेले तो आस्तिक नहीं? सारी दुनिया आस्तिकों से भरी पड़ी है। दूसरे आस्तिक जी को उन का यह स्पष्टीकरण दुनिया के तमाम आस्तिकों की कमजोरी लगा। उन्हों ने सोचा तीन गलतियों की सजा शाप से कम तो हो नहीं सकती तो उन्हों ने एक लम्बा-चौड़ा, भारी-भरकम शाप दे डाला। जरा आप भी गौर फरमाइए इस शाप पर .......
 @ वकील साहब! ईश्वर ने ही मनुष्य को बुद्धि दी है। वह उससे सोचता है और ब्रह्माण्ड के रहस्यों को सुलझाने की कोशिश करता है और वह किसी सत्य नियम को पा लेता है । और वही नियम हज़ारों मील दूर की अजनबी भाषा में सैकड़ों साल पहले की किताब में लिखा मिलता है तो क्या सचमुच यह इसी तरह नज़रअन्दाज़ कर देने के लायक़ है? जैसे कि आज आप कर रहे हैं । हज़रत मुहम्मद साहब भारत नहीं आये और न ही वे संस्कृत बोलते थे। तब सांख्य का अरबी भाषा में अनुवाद भी नहीं था। वे पढ़े लिखे भी नहीं थे फिर भी उनके द्वारा जो सत्य बताया गया उसे आप स्वीकारने के बजाए नकार रहे हैं ?
ठीक है, आज आपको मालिक ने नकारने का अधिकार दिया है लेकिन मौत आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाएगी जहां आप सत्य को नकारने की दशा में न होंगे लेकिन तब आपका मानना आपके काम न आएगा। आप की रीत को देखकर जो भी गुमराह होगा उसका पाप भी आप पर ही पड़ेगा।
दुनिया में भी आप आदमी को 120 बी (दुष्प्रेरणा)का मुल्ज़िम ठहराते हैं । परलोक में आप पर दूसरी धाराओं के साथ यह धारा भी लगेगी , अब इस का नम्बर वहां चाहे दूसरा ही क्यों न हो?

अब शापित हो जाने के बाद नास्तिक जी के पास क्या चारा बचा था? उन्हों ने शाप को शिरोधार्य कर लिया। लेकिन अपनी बात कहते हुए चलिए आप ये बात भी पढ़ लीजिए.......
यूँ तो मैं आप की बेवजह मुझे पापी घोषित करने वाली बात का उत्तर देना जरूरी नहीं समझता। लेकिन इस वजह से कि आप एक इंसान हैं बराबरी से दो बात कहना चाहता हूँ।
कुऱआन आप का विश्वास है, उसे खुदा ने भेजा है यह आप का विश्वास है। इस्लाम का पहला सबक है आँख मूंद कर पहले ईमान लाओ। यह आप का यक़ीन है। आप उसे मानते हैं। हम आप की कद्र करते हैं कि आप अपने विश्वासों पर अटल हैं। लेकिन हम भी अपने विश्वासों पर अटल हैं जिन की बुनियाद आँख मूंद कर यकीन करना नहीं है बल्कि तर्क हैं। हम विश्वास की बिना पर नहीं बल्कि नए तथ्यों और तर्कों की बिना पर अपने विश्वासो मे सुधार करने को भी तैयार रहते हैं। जिस तरह हम आप की कद्र करते हैं आप को भी तर्क आधारित विश्वासों पर हमारे डटे रहने की कद्र करना चाहिए।
मैं इस पर विश्वास नहीं करता कि ईश्वर ने ही मनुष्य को बुद्धि दी है।
-कि हज़रत मुहम्मद साहब भारत नहीं आये। (तो फिर हजरतबल में किसका बाल सुरक्षित है?)  वे संस्कृत जानते भी हों तो किस से बोलते और किसे समझाते? (वहाँ कोई समझने वाला तो होता।) सांख्य को जानने के लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं थी। वह कानों कान अनेक भाषाओं में पूरी दुनिया में फैला है। वह इस कदर दुनिया में व्याप्त हुआ कि एक अनपढ़ और अंगूठा छाप भी उस का इतना ज्ञान रखता है कि वह सांख्य पर पूरी क्लास ले सकता है। आप अनवरत पर सांख्य से संबद्ध पोस्टो में यह सब पढ़ सकते हैं।
नकारने का अधिकार मुझे किसी ने नहीं दिया है वह तो हमेशा से इंसान के पास मौजूद था। उन्हों ने ही ईमान के नाम पर उसे खो दिया। मैं मौत के बाद की जिन्दगी में उसी तरह यकीन नहीं करता जैसे भगत सिंह नहीं करता था।  मेरे पास किसी जन्नत का किसी हूर का लालच नहीं है तो मेरे पास किसी दोजख के दंड का भय भी नहीं है। आप किसे दोजख के दंड का भय दिखा रहे है। वे कमजोर इंसान हैं जो इन काल्पनिक डरों से डरते हैं वे डरते डरते सारी जिन्दगी काट देते हैं, वे इन्सानियत का कोई भला नहीं कर सकते। वे ही कर सकते हैं जो किसी से नहीं डरते उस काल्पनिक खुदा से भी नहीं जो इंसान ने खुद अपने लिए गढ़ा और उस का गुलाम हो गया।  मैं किसी दुष्प्रेरणा का दोषी नहीं हूँ। न ही मैं पाप और पुण्य को मानता हूँ।
खु
दा को नकारने वाला भगतसिंह ही था जिस ने अपने को सोच-समझ कर यह जानते हुए कि जो वह करने जा रहा है उस की सजा मौत है,खुद को कौम के लिए कुर्बान कर दिया। यह जज्बा किसी खुदा से डरने वाले कै पास नहीं हो सकता। अगर आप की सोच सही है औऱ मेरी गलत तो भी आप की सोच के मुताबिक भगत सिंह को भी खुदा को नकारने के लिए दोजख मिली होगी तो मैं भी उस दोजख में जाने को तैयार हूँ। कम से कम वहाँ मैं उस जहीन इंसान से मिल कर उसके कदम तो चूम सकूंगा।

Sunday, May 23, 2010

'' अगर धर्म एक अच्छे इन्सान होने का सर्टिफिकेट होता तो इस दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती '' - 1

जब हमने इस्वर और धर्म की सत्ता को मानने से इंकार किया तो बहुत से करीबियों को दुःख के साथ - साथ कुछ को ख़ुशी भी हुई.दुखी लोगों ने कहा अच्छा खासा लड़का था बिगड़ गया ..लगता है किसी गलत सोहबत में पड़ गया है.लोगों ने हमें बहुत समझाने की कोशिशें की मगर क्या करें हम भी तर्क पे तर्क किये जा रहे थे और ये तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहे थे.कुछ लोगों को चिंता भी हुई की कहीं इसकी सोहबत में हमारे लड़के भी ना बिगड़ जाएँ सो कई लड़कों के साथ हमारा उठाना बैठने भी छुट गया.लोग इस्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए तमाम तर्क - बितर्क करने लगे.फिर भी हम नहीं माने तो लोगों ने हार के कहा - '' धार्मिक हउवे बिना आदमीं अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ''.

खुश होने वाले करीबियों को हममें तमाम संभावनाएं नज़र रही थी.कहने लगे सही है ब्रम्ह्ड़ो ने हिन्दू धर्म में कई बुराइयों का प्रवेश करा दिया है.इनका तर्क होता था की इस्वर है बस तुम उसे खोजो, धर्म को पालिस करने की जरुरत है,कुछ लोगों ने इस गन्दा बना दिया है .दरअसल ये सभी लोग किसी ना किसी पंथ को मानने वाले थे कोई आर्य समाजी था,तो कोई निरंकारी था और कोई गायत्री परिवार को मानने वाला और वे समझ रहे थे की उनके पंथ को मानने वालों में मैं भी शामिल हो सकता हूँ.अचानक इन साहबों ने मुझे अपने अपने धार्मिक आयोजनों में बुलाना शुरू कर दिया.हमारे एक बहुत करीबी जो की निरंकारी हैं. अक्सर बुलाते थे अपने निरंकारी सत्संगों में और अक्सर मेरी नास्तिकता का मजाक भी उड़ाते थे एक दिन खीज करके मैने पुछ दिया - अच्छा ये बताइए.जब आप खुदा,इस्वर या भगवान को निरंकारी मानते हैं तो अपने समरोहों में क्यों एक लोग को सफ़ेद धोती कुरता पहना के और सफ़ेद चादर ओढा कर पूजा करते है ? जब आपका इस्वर निरंकारी है तो यहाँ आकार वाली धरती और इंसानों - जानवरों को बनाने की जरुरत क्यों पड़ी ? क्या आपका इस्वर चापलूस जो इंसानों को केवल पूजा - पाठ के लिए बनाया है ? और सब छोड़ भी दें तो जरा बताइए जब निरंकारी की पूजा करते हैं समय साकार भगवानो राम,कृस्न और शंकर की स्तुति क्यों करते हैं?


गर निरंकारी होके भी इन्ही भगवानो की पूजा करनी थी तो क्या जरुरत है निरंकारी होने की.पता नहीं कितने करोड़ भगवानो को ढ़ोने वाली अपनी गधों वाली पीठ पे एक और भगवान को लादने की जरुरत क्या है ? मेरे सवालों से गुस्साए मेरे उन करीबीजब कोई तर्क नहीं कर पाए तो कहा - अब तुम पिटोगे तभी तुम्हारी समझा में आएगा इस्वर और धर्म...

मेरे से दुखी और अपने पंथ के संदर्भ में मेरे में संभावना देखने वाले ये लोग तब भी और अब भी जब तर्क से पेश नहीं हो पाते यही कहते हैं - '' धार्मिक हउवे बिना आदमीं अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ''.

और मैं कहता हूँ की बिना धर्म के भी एक अच्छा इन्सान हूवा जा सकता है.क्यों क़ि धर्म और इस्वर दोनों इन्सान पे जबरदस्ती लादे गए हैं.इन्सान अपने कुदरती रूप में ही बहुत अच्छा है.धर्मिक लोगों की जनसँख्या ही इस धरती सबसे बड़ी है.नास्तिक तो मुश्किल से कुछ हजार ही होंगे फिर भी यहाँ इतनी असमानता क्यों?क्यों धर्म के नाम पे ही धरती सबसे ज्यादे लहूलुहान हुई ? हो सकता है एक ज़माने में धर्म सोसायटी को चलने के लिए लोगों ने बनाया हो.मगर अब हमारी सोसायटी को चलने के लिए एक अलग व्यवस्था है.और एसे में अब ये धर्म हमारी प्रगति में लंगड़ी मरने के सिवा और किसी काम के नहीं हैं.इन्हें अब इतिहास की किताबों में ही रहने देना चाहिए.और '' इस्वर वों तो इस दुनिया का सबसे झूठा शब्द है,और सबसे ज्यादे विस्वास से बोले जाने वाला झूठ भी ''....

'' गर धर्म एक अच्छे इन्सान होने का सर्टिफिकेट होता तो इस दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती ''.धर्म के नाम पे या सम्प्रदाय के नाम पे किये जाने वाली हत्याएं नहीं होतीं.भगवान है तो वों दुनिया में होने वाली दुःख तकलीफों को कम क्यों नहीं करता.आप गधे हो सकते हैं मैं नहीं.जब आपको यहाँ भी उन्ही भगवानो को पूजना है तो फिर कोई जरुरत नहीं नए पन्थो और भगवानों की.दरअसल इन्हें शिकायत ये नहीं है की मैं भगवान को मानता हूँ या नहीं ..शिकायत इस बात की है क़ि मैं इनकी तरह गधा नहीं निकला और इनके मालिक का बोझ नहीं धो रहा और उसपे इनका मालिक अपने अदृश्य कोड़े भी मुझपे नहीं बरसा रहा...? बहुत से सवल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता...

है तो कहने को बहुत कुछ मगर..फिर कभी ...
आखिरी में इस ब्लॉग क़ि पहली पोस्ट पे आई एक कमेंट्स -
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J.S. PARMAR - जब कहीं पढ़ता हूँ की नास्तिकता के विरूद्ध लड़ना है तो सिहर उठता हूँ, कहीं अगला नम्बर अपना ही तो नहीं?
नास्तिकता हो या आस्तिकता, दोनो के दो दो मार्ग है, इन्हे समझा जाना चाहिए.
जहाँ आस्तिकता के एक मार्ग के राही महात्मा गाँधी थे तो दूसरा मार्ग लादेन ने पकड़ रखा है. वैसे ही नास्तिकता के एक मार्ग पर स्टालिन चला था तो दूसरा मार्ग महावीर और बुद्ध द्वारा रोशन हुआ है. अब यह तो व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह किस रास्ते जाता है.
दोनों ही रास्तों के खतरनाक दृष्टांत हैं। मेरा तो यही कहना है कि आदमी की आस्था अपने में होनी चाहिए। वह आस्तिक हो या नास्तिक, अगर उसकी आस्था अपने ऊपर नहीं रही तो वह खंडहर की तरह कभी भी ढह सकता है।