Sunday, March 23, 2014

भगत सिंह, नास्तिकता और साम्यवाद.


व्यक्तित्व मूल्यांकन करने के कौन से औजार होने चाहिए , आने वाला समय इतिहास को किस दृष्टी से देखता है , व्यक्ति विशेष की सक्रियतों के मूल्यांकन के लिए कौन सी पद्धति अपनाई जानी चाहिए?  यह आज के समय का, और कदाचित बीते हुए भूत की व्याख्या के लिए भी एक महत्वपूर्ण सवाल है। यह प्रश्न सिर्फ इसलिए ही आवश्यक नही की यह हमें वस्तुगतता की अनवरत यात्रा पर ले जाता है , यह अतीत और समकालीन परिस्थितिओं के मूल्यांकन का सही तरीका सिखाता है वरन यह इसलिए भी आवश्यक है की यह समकालीन और भावी प्रतिभाओं को सही और गलत के मध्य, सार्थक और निरर्थक क्रियाकलापों के मध्य अंतर बताता है , बदलाओं की ज़मीं तैयार करता है, व्यक्तिगत चेष्टाओं को समाज से जोड़ता है व्यष्टि से समिष्टि तक विचारों के संक्रमण की दिशा तय करता है और उसके परिणाम भी निर्धारित करता है.इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है की व्यक्ति विशेष की सक्रियताओं/चेष्टाओं को एक सुरचित पैमाने में वस्तुगत दृष्टिकोण के साथ मूल्यांकित किया जाये.

यह पद्धति कई चीजों को ध्यान में रखकर क्रियान्वित की जाती है . समकालीन समाज के राजनैतिक, सामाजिक,राज्याश्रित /संवैधानिक नियम (कानूनी ) ,आर्थिक और धार्मिक वातावरण का तत्कालीन समाज पर प्रभाव, व्यक्ति विशेष द्वारा की गई हस्तक्षेप की प्रणाली से इस वातावरण का सम्बन्ध एवं इस हस्तक्षेप से वातावरणिक चरों में उत्पन्न गति का अध्ययन इस पद्धति का महत्वपूर्ण एवं एकमात्र आधार होता है . इस आधार किया गया मूल्यांकन हमें किसी भी देशकाल से सम्बंधित व्यक्ति, घटना अथवा विचार की सही भूमिका और प्रासंगिकता से अवगत करा सकता है . वह व्यक्ति, घटना अथवा विचार यदि भूतकाल से सबद्ध है तो हम वर्तमन समय में उसकी भूमिका के प्रभाव की व्याख्या कर सकते हैं अन्यथा इसी प्रणाली को आधार बना कर हम वर्तमान समय की किसी सक्रियता की भूमिका का भविष्य में प्रभाव निर्धारित कर सकते हैं .

अब कहने की जरुरत नही कि आज यह सब बातें उसी तेईस वर्षीय युवा के लिए स्मरण आ रही है जिसने बिना हिंसा प्रदर्शन के एक देश की तथाकथित असेम्बली में विस्फोट कि योजना को अंजाम देकर वैश्विक परिवर्तनकामी राजनीती के फ़लक पर अपना नाम नक्षत्रों से दैदीप्यमान शब्दों में उकेर दिया। ऐसे योद्धा की सक्रियताओं पर प्रकाश डालने , उनकी राजनीती और उनके द्वारा विरोध के लिए इस्तेमाल कि गई प्रनालिओं पर चर्चा के लिए एवं उनके मनस्वी व्यक्तित्वों पर टिप्पणी करने के लिए किसी दक्ष लेखक को भी शब्दों का अभाव, उपमाओं का अकाल और संकल्पनाओ का सूखा झेलना पड़ सकता है, मुझमे भी यह क्षमता नही है .एक अंदेशा यह भी की महामानवों की तरह पूजित व्यक्तित्व का निरपेक्ष मूल्यांकन शायद बहुसंख्यक को नागवार गुजरे और लोग आक्रोशित हों। 

बहुधा यह देखा गया है कि साधारणतया आभामंडल के प्रभाव का सहारा हम इसलिए लेते हैं कि उस व्यक्ति को महान घोषित करके अपने कर्त्तव्यों कि इतिश्री कर लें। भगत सिंह के बारे में भी यह कमोबेश सच है। कभी संसदीय वामपंथ भी उनकी उपलब्धियों और दिशा का सही उपयोग भारतीय जनता के हित में न कर पाया , और अब इसकी उम्मीद भी नही है.

देखना होगा कि उस भारतीय युवा क्रन्तिकारी ने परतंत्र भारत में अंग्रेजी शासन के विरोध के लिए उस वक्त प्रचलित तरीकों को दरकिनार करके विरोध के नितांत नए हथियार अपनाये . जिसने स्वतंत्रता और क्रांति को नयी परिभाषा दी, परिवर्तन की संस्कृति को नए अर्थ दिए वह कोई कुशल कूटनीतिग्य नही था फिर भी उसने नीति -ज्ञेयता को नए आयाम दिए. युद्ध की पारिवेशिक क्रूरता से घिरे भारत में नैतिक - अनैतिक की देशव्यापी बहस का आगाज किया . यह आज का दिन उसी तेइस वर्षीय युवा को समर्पित है जिसने क्रांति को इन शब्दों में परिभाषित किया।"

"By "Revolution", we mean the ultimate establishment of an order of society which may not be threatened by such breakdown, and in which the sovereignty of the proletariat should be recognized and a world federation should redeem humanity from the bondage of capitalism and misery of imperial wars." (Statement of S. Bhagat Singh and B.K. Dutt in the Assembly Bomb Case)

"क्रांति से हमारा तात्पर्य समाज की ऐसी व्यवस्था की स्थापना जिसमें किसी प्रकार के अव्यवस्था का भय न हो, जिसमें मज़दूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए, और उसके फलस्वरूप विश्व संघ पूंजीवाद के बंधनों, दुखों तथा युद्धों की मुसीबतों से मानवता का उद्वार कर सके."

आज यह बार - बार दोहराए जाने कि जरुरत है कि भगत सिंह दूरदर्शी थे। समानतावादी थे। साम्यवादी थे। 

जब लोगों के लिए पराधीन भारत में अंग्रेजी शासकों के विरोध की भावना धर्म से प्रेरित थी वे नास्तिक थे। हम जानते हैं कि चापेकर भाइयों आदि के स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा हिंदुत्व की भावना से प्रेरित थी और ऐसा होना स्वाभाविक भी था पर वे (भगत सिंह) दूरगामी और साफ़ दृष्टि वाले ऐसे विचारक थे जो शोषण के लिए पूंजीवाद के अंत को एकमात्र तरीका मानते थे . खैर , इस सन्दर्भ में अधिक जानकारी के लिए आप प्रोफ़ेसर चमनलाल की पुस्तक "भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज " पढ़ सकते हैं। मैं इसके संदर्भो का जिक्र नही कर रही न ही इस टिप्प्णी का यह प्रयोजन है .

जहाँ अन्य सब के लिए अंग्रेज विदेशी आक्रमणकारी भर थे जिन्हें इस देश से बाहर निकल कर धर्म द्वारा निर्देशित राज्य की स्थापना ही एकमात्र उद्देश्य एवं स्वपन था भगत सिंह ने विचारों में , कार्यकलापों में धार्मिक प्रभाव की उपस्थिति की हर संभावना को ख़ारिज किया है . उनके द्वारा लिखित महत्वपूर्ण दस्तावेज "मैं नास्तिक क्यों हूँ " में उनके विचारों की स्पष्ट छाप हमें देखने को मिलती है . फिर सवाल यह उठता है क्या ऐसी प्रेरणा थी जिसने धर्मिक कारणों से इतर किसी और कारन से उस तेइस वर्षीय युवक को असेम्बली में बम विस्फोट कर के फांसी पर चढ़ जाने को प्रेरित किया. जैसा की भगत सिंह खुद मानते थे की पहले वे एक रूमानी क्रन्तिकारी थे इस वजह से उनके द्वारा लिखित बाद में दस्तावेजों पर ध्यान केन्द्रित करना ही उन्हें विचारों को समझने का उचित स्रोत हो सकता है। कहना न होगा एक व्यक्ति के रूप में वे समझ गए थे कि उपनिवेशवाद वस्तुतः पूंजीवाद का ही एक हथियार है, इसलिए उन्होंने केवल स्वतंत्रता पर नही क्रांति पर जोर दिया।

तमाम निष्कर्षों को देखते हुए कहा जा सकता है , भारतीय साम्यवाद के उन अप्रतिम योद्धा को फिर से समझे जाने कि जरुरत है , उन्हें सही तरीके से जनता के मध्य ले की जरुरत है।

तो फिर से इस परिभाषा को याद करना होगा "By Revolution, we mean the ultimate establishment of an order of society which may not be threatened by such breakdown, and in which the sovereignty of the proletariat should be recognized and a world federation should redeem humanity from the bondage of capitalism and misery of imperial wars. “This is our ideal, and with this ideology as our inspiration, we have given a fair and loud enough warning."

  - लवली गोस्वामी 

Friday, May 10, 2013

ईश्वर सब देख रहा है!


व्यंग्य

पता नहीं कौन लोग रहें होंगे, कैसे लोग रहे होंगे जिन्होंने ईश्वर को बनाया। और बनाए रखने के लिए तरह-तरह की स्थापनाएं और दलीलें खड़ी कीं। मैं जब कभी इन तर्कों की ज़द में आ जाता हूं, मेरी हालत विचित्र हो जाती है। ईश्वरवालों का कहना है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, वह सब कुछ देख रहा है। थोड़ी देर को मैं मान लूं कि यह बात सही है तो! होगा क्या ?
मैं बाथरुम में नहा रहा हूं। एकाएक मुझे याद आता है कि बाथरुम में मैं अकेला नहीं हूं, कोई और भी है। कोई मुझे टकटकी लगाकर देख रहा है! और ख़ुद दिख नहीं रहा है। यानि कि बदले में मैं कुछ भी नहीं कर सकता। हे ईश्वर, यह तू क्या कर रहा है!? कई दिन बाद तो साफ़ पानी आया है नलके में और तू ऊपर खूंटी पर चढ़कर बैठ गया! मैनर्स भी कोई चीज़ होती है, कृपानिधान! एक दिन तो ढंग से नहा लेने दे!

आपको याद होगा जब आप अपने एक परिचित के घर पाखाने में विराजमान थे, चटख़नी ख़राब थी, किसीने बिना नोटिस दिए दरवाज़ा खोल दिया और आप पानी-पानी हो गए थे। और इधर तो टॉयलेट में ईश्वर मेरे साथ है! अब क्या करुं! यह सर्वत्रविद्यमान किसी भी ऐंगल से आपको देख सकता है-ऊपर से, नीचे से, दायें से, बायें से...कहीं से भी। मन होता है कि क्यों न पटरी किनारे खेत में चलकर बैठा जाए! अब बचा ही क्या! सारी प्रायवेसी की तो ऐसी की तैसी फेर दी ईश्वर महाराज ने।

यह ग़ज़ब फ़िलॉस्फ़ी है कि ईश्वर सब कुछ देख रहा है और कह कुछ भी नहीं रहा। इससे ही बल मिलता होगा कर्मठ लोगों को। वह आदमी भी तो कर्मठ है जो सिंथेटिक दूध बना रहा है। वह बना रहा है और ईश्वर बनाने दे रहा है। तो सीधी बात है ईश्वर उसके साथ है। तो डरना किससे है फिर !? इसीलिए वह मज़े से होली-दीवाली पर छोटे डब्बेवालों को इंटरव्यू देता है। मुंह पर ढाटा क्यों बांध रखा है इसने!? शायद प्रतीकात्मक शर्म है यह! वरना तो उसे पता ही है कि चैनलवाले और देखने वाले, सभी ईश्वर के माननेवाले हैं। मैं सिंथेटिक दूध बनाता हूं तो ये सिंथेटिक ख़बरें बनाते हैं। सब एक ही ख़ानदान के चिराग़ हैं, एक ही ईश्वर की संतान हैं।
ऐसे कर्मठ लोग भरे पड़े हैं हर धंधे में। ईश्वर उनको देख रहा है मगर कह कुछ भी नहीं रहा! करने का तो फिर सवाल ही कहां आता है!

ईश्वर को यह बात अजीब लगे कि न लगे, मुझे बहुत अजीब लगती है।

-संजय ग्रोवर


Wednesday, April 17, 2013

प्रभु जी से ...

प्रभु जी ,
मेरे अवगुण चित में धरते हो तो
धरो
जो जी में  आये
करो

प्रभुजी बौखला गए
नौच डाला सौम्य शांत मुखौटा
 वार किया "बिलों द बेल्ट"वाला
और चीखे
तो लो
झेलो और मरो 

Saturday, June 16, 2012

और तब ईश्वर का क्या हुआ?


और तब ईश्वर का क्या हुआ?
स्टीवन वाइनबर्ग  
 
( यह आलेख ‘समय के साये में’ से साभार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है - मोडेरेटर )


( 1933 में पैदा हुए अमेरिका के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीवन वाइनबर्ग, अपनी अकादमिक वैज्ञानिक गतिविधियों के अलावा, विज्ञान के लोकप्रिय और तार्किक प्रवक्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। उन्होंने इसी संदर्भ में काफ़ी ठोस लेखन कार्य किया है। कई सम्मान और पुरस्कारों के अलावा उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।

प्रस्तुत आलेख में वाइनबर्ग ईश्वर और धर्म पर जारी बहसों में एक वस्तुगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बखूबी उभारते हैं, और अपनी रोचक शैली में विज्ञान के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हैं। इस आलेख में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का जिक्र करते हुए, अवैज्ञानिक तर्कों और साथ ही छद्मवैज्ञानिकता को भी वस्तुगत रूप से परखने का कार्य किया है तथा कई चलताऊ वैज्ञानिक नज़रियों पर भी दृष्टिपात किया है। कुलमिलाकर यह महत्त्वपूर्ण आलेख, इस बहस में तार्किक दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक जरूरी दस्तावेज़ है, जिससे गुजरना उनकी चेतना को नये आयाम प्रदान करने का स्पष्ट सामर्थ्य रखता है। )


                          
     तुम जानते हो पोर्ट ने कहा और उसकी आवाज़ फिर रहस्यमय हो गई, जैसा प्रायः किसी शांत जगह पर लंबे अंतराल पर कही गई बातों से प्रतीत होता है।
     यहां आकाश बिल्कुल अलग है। जब भी मैं उसे देखता हूं, मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे कोई ठोस वस्तु हो जो हम लोगों को पीछे की हर चीज़ से रक्षा कर रही हो।
     किट ने हल्के से कांपते हुए पूछा - पीछे की हर चीज़ से?
     हाँ
     लेकिन पीछे है क्या? उसकी आवाज़ एकदम धीमी थी।
     मेरा अनुमान है, कुछ भी नहीं। केवल अंधेरा। घनी रात।
                                   - पॉल बोल्स, द शेल्टरिंग स्काई
स्वर्ग ईश्वर के गौरव की घोषणा करते हैं और यह आकाश उनके दस्तकारी की प्रस्तुति है। राजा डेविड या जिसने भी ये स्त्रोत लिखे हैं, उन्हें ये तारे किसी अत्यंत क्रमबद्ध अस्तित्व के प्रत्यक्ष प्रमाण प्रतीत हुए होंगे, जो हमारी चट्टानों, पेड़ों और पत्थरों वाली नीरस सांसारिक दुनिया से काफ़ी अलग रही होगी। डेविड के दिनों की तुलना में सूरज और अन्य तारों ने अपनी विशेष स्थिति खो दी है। अब हम समझते हैं कि ये ऐसे चमकते गैसों के गोले हैं जो गुरुत्वाकर्षण बल के कारण परस्पर बंधे हैं और अपने -अपने केन्द्र में चलने वाली उष्मानाभिकीय प्रतिक्रियाओं से उत्सर्जित ऊष्मा के दबाब के कारण सिमट जाने से बचे हुए हैं। ये तारे हमें ईश्वर के गौरव के बारे में उतना ही बताते हैं जितना कि हमारे आसपास पाये जाने वाले धरती के पत्थर।
ईश्वर की दस्तकारी में कुछ विशेष अन्तर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए अगर प्रकृति में कुछ चीज़ों की खोज करनी हो तो निश्चित ही वह होगा प्रकृति के अंतिम नियम। इन नियमों को जानकर हम मालिक होंगे उन नियमों की किताब के जो तारों और पत्थरों और हर अन्य चीज़ को नियंत्रित करते हैं। इसीलिए यह स्वाभाविक है कि स्टीफन हॉकिंग ने प्रकृति के नियमों को ईश्वर के दिमाग़ की संज्ञा दी है। एक अन्य भौतिकविद चार्ल्स मिजनर ने भी भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान के परिप्रेक्ष्यों की तुलना करते हुए इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया, एक कार्बनिक रसायनज्ञ इस प्रश्न के जवाब में कि बानवे तत्व क्यों हैं और ये कब बने, यह कह सकता है कि- कोई दूसरा ही इसका जवाब दे सकता है। लेकिन किसी भौतकविद से अगर पूछा जाए कि यह दुनियां क्यों कुछ भौतिक नियमों का अनुसरण करने और शेष का अनुसरण नहीं करने के लिए बनाई गई है? तो वह जवाब दे सकता है- ईश्वर जाने। आइन्सटीन ने एक बार अपने सहायक अर्न्स्ट स्ट्रास से कहा था- मुझे यह जानने की इच्छा है कि दुनिया की रचना में ईश्वर के पास कोई विकल्प मौजूद थे या नहीं। एक अन्य मौके पर वे भौतिकी के उपक्रम ( विषय ) के उद्देश्य का वर्णन करते हुए कहते हैं- "इसका उद्देश्य न केवल यह जानना है कि प्रकृति कैसी है और वह कैसे अपना कार्य संपादित करती है बल्कि उस आदर्शमय और दंभपूर्ण लगने वाले उद्देश्य को जहां तक संभव हो प्राप्त करना है- जिनके तहत हम यह भी जानना चाहते हैं कि प्रकृति ऐसी ही क्यों है और दूसरी तरह की क्यों नहीं है।...इस प्रकार यह् अनुभव होता है, जिसे यूं कहा जाए कि ईश्वर ख़ुद इन संबंधों को जैसे वे हैं इससे अलग किसी तरीके से व्यवस्थित नहीं कर सकते थे"। वैज्ञानिक अनुभव का यही प्रोमिथीयन तत्व है। मेरे लिए हमेशा से यही वैज्ञानिक प्रयास का विशिष्ट जादू रहा है।
आइन्स्टीन का धर्म इतना अस्पष्ट था कि मुझे संदेह है, और उनके यूं कहा जाए से स्पष्ट होता है, कि उनका यह कथन नए रूपक की तरह है। भौतिक विज्ञान इतना मूलभूत है कि भौतिक विज्ञानियों के लिए यह् रूपक स्वाभाविक ही है। धर्म तत्वज्ञ पॉल टिलिच ने पाया कि वैज्ञानिकों में केवल भौतिक विज्ञानी ही बिना किसी उलझन के ईश्वर शब्द का उपयोग करने में सक्षम हैं। किसी का धर्म चाहे जो हो या बिना धर्म के भी प्रकृति के अंतिम नियमों को ईश्वर के दिमाग़ के रूप में बताना एक अत्यंत सम्मोहक रूपक है।
इस संबध में मेरा सामना हुआ एक विचित्र सी जगह पर वाशिंगटन के रेबर्न हाउस ऑफिस बिल्डिंग में। जब मैं वहां १९८७ में विज्ञान, अंतरिक्ष और प्रोद्योगिकी की हाउस समिति के सामने सुपरकन्डक्टिंग सुपर कोलाइडर ( एस.एस.सी.) प्रोजेक्ट के पक्ष में साक्ष्य के लिए उपस्थित हुआ। मैंने जिक्र क्या कि किस प्रकार प्राथमिक कणों के हमारे अध्ययन के दौरान हम नियमों की खोज कर रहे हैं और ये नियम लगातार और ज़्यादा सुसंगत और सार्वभौम होते जा रहे हैं और हमें यह आभास होने लगा है कि यह मात्र संयोग नहीं है। हमने यह भी बताया कि इन नियमों में एक व्यापक सुसंगठन ( सौन्दर्य ) है जो विश्व की संरचना में गहरे छिपे सुसंगठन को प्रतिबिंबित करता है। मेरी टिप्पणी के बाद अन्य साक्ष्यों ने भी बयान दिये और समिति के सदस्यों ने प्रश्न भी पूछे। इसके बाद वहां समिति के दो सदस्यों, एक इलियॉनस के रिपब्लिकन प्रतिनिधि हैरिस डब्लू फावेल जो सुपर कोलाइडर प्रोजेक्ट् के कुलमिलाकर पक्षधर थे, और दूसरे पेनसिल्वानिया के रिपब्लिकन प्रतिनिधि डॉन रिटर एक् पूर्व धातुकीय अभियंता जो कांग्रेस में प्रोजेक्ट के धुर विरोधियों में से थे, के बीच एक बहस छिड़ गई।
    मि. फावेल - बहुत-बहुत धन्यवाद, मैं आप सभी के साक्ष्यों का आभारी हूं। यह बहुत अच्छा था। अगर कभी मुझे किसी को एस.एस.सी. की जरूरत के बारे में समझाना होगा तो यह निश्चित है कि में आपके साक्ष्यों का सहारा लूंगा। यह बहुत लाभदायक होगा। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि हमारे पास कोई एक शब्द होता जो यह सब बयान कर देता। पर यह लगभग असंभव है। मेरा अनुमान है कि शायद डॉ. वाईनबर्ग इसके कुछ निकट पहुंचे थे। मैं एकदम निश्चित तो नहीं कह सकता पर मैंने यह लिख लिया है। उन्होंने कहा है कि उनका अनुमान है कि यह सब संयोग नहीं है कि कुछ नियम हैं जो पदार्थ को नियंत्रित करते हैं। और मैंने तुरंत लिखा कि क्या यह हमें ईश्वर को खोजने में मदद करेगा? यह तय है कि आपने यह दावा नहीं किया, लेकिन् निश्चित ही यह विश्व को और अधिक समझने में हमें बहुत सक्षम बनायेगा।
    मि. रिटर - क्या महाशय ने इस विषय में कुछ कहा? अगर ये इस पर कुछ प्रकाश डालें तो मैं कहूंगा कि...
    मि. फावेल - मैं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूं।
    मि. रिटर - अगर यह मशीन वह सब करेगी तो मैं निश्चित ही इसके पक्ष में खड़ा रहूंगा।   
मेरे विवेक ने मुझे इस विचार-विनिमय में पड़ने से रोक दिया, क्योंकि मैं नहीं समझता कि कांग्रेस के सदस्य यह जानने के लिए उत्सुक थे कि एस.एस.सी. प्रोजेक्ट में ईश्वर की खोज के बारे में मैं क्या सोचता हूं और इसलिए भी भी क्योंकि मुझे नहीं लगा कि इसके बारे में मेरे विचार जानना प्रोजेक्ट के लिए फायदेमंद होता।
कुछ लोगों का ईश्वर के बारे में दृष्टिकोण इतना व्यापक और लचीला होता है कि यह निश्चित, अवश्यम्भावी है कि वे जहां भी ईश्वर को देखना चाहेंगे उन्हें वहीं पा लेते हैं। हम प्रायः सुनते हैं कि "ईश्वर अंतिम सत्य है" या "यह विश्व ही ईश्वर है"। वस्तुतः किसी भी अन्य शब्द की तरह ईश्वर का भी वही अर्थ निकाला जा सकता है जो हम चाहते हैं। अगर आप कहना चाहते हैं कि "ईश्वर ऊर्जा है" तो आप ईश्वर को कोयले के एक टुकड़े में पा सकते हैं। लेकिन यदि शब्दों का हमारे लिए महत्त्व है तो हमें उन रूपों की कद्र करनी होगी जिनमें उनका इतिहास से उपयोग होता आया है, और ख़ासकर हमें उन विशिष्टताओं की रक्षा करनी होगी जो शब्दों के अर्थों को अन्य शब्दों में विलीन हो जाने से बचाते हैं।
इसी स्थिति में मुझे लगता है कि "ईश्वर" शब्द का अगर कुछ भी उपयोग है तो इसका अर्थ ईश्वर के रूप में ही लिया जाना चाहिए। वे जो रचयिता हैं और नियम बनाते हैं, जिन्होंने केवल प्रकृति के नियमों और विश्व को ही स्थापित नहीं किया है बल्कि अच्छे और बुरे के मापदण्ड़ भी निर्धारित किये हैं, ऐसा व्यक्तित्व जो हमारी गतिविधियों से संबद्ध, संक्षेप में ऐसे जो हमारे आराध्य हो सकते हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि इन विषयों पर बहस करते हुए मैं अपना दृष्टिकोण रख रहा हूं और इस अध्याय में किसी ख़ास विशेषता का दावा नहीं करता। यही वो ईश्वर है जो पूरे इतिहास पुरुषों और नारियों के लिए महत्त्वपूर्ण रहे हैं। वैज्ञानिक और अन्य लोग कभी-कभी "ईश्वर" शब्द का उपयोग इतने अमूर्त और असम्बद्ध अर्थों में करते हैं कि प्रकृति के नियमों और "उन" में कोई अंतर नही रह जाता। आइन्सटीन ने एक बार कहा था कि "मेरा विश्वास उस स्पीनोजा के ईश्वर पर है जो सभी वस्तुओं की क्रमबद्ध समरसता के रूप में प्रकट होता हैं। मैं उस ईश्वर को नहीं मानता जो मनुष्य की गतिविधियों और उनके भाग्य से हितबद्ध है"। लेकिन ‘क्रमबद्धता’ या ‘समरसता’ की जगह अगर हम ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग करें तो इससे क्या फ़र्क पड़ेगा, इस इल्ज़ाम से बचने के अलावा कि ईश्वर है ही नहीं। ऐसे तो इस प्रकार से ‘ईश्वर’ शब्द के प्रयोग के लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है, पर मुझे लगता है कि इससे ईश्वर की अवधारणा और महत्त्वपूर्ण हो जाती है, गलत साबित नहीं होती।
क्या हम प्रकृति के अंतरिम नियमों में हितबद्ध ईश्वर को पा सकते हैं? यह प्रश्न कुछ बेतुका सा लगता है। केवल इसलिए नहीं कि हम अब तक अंतिम नियमों को नहीं जान पाये हैं, बल्कि इसलिए ज़्यादा कि यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि ऐसे अंतिम सिद्धांतों को प्राप्त भी किया जा सकता है जिनकी और गहन सिद्धांतों की मदद से व्याख्या करने की जरूरत ना पड़े। लेकिन यह प्रश्न चाहे कितना भी अधूरा हो, इस पर कौतूहल ना होना असंभव है कि क्या हम अंतिम सिद्धांत में अपने गंभीरतम सवालों का जवाब हितबद्ध ईश्वर के कारनामों का कोई प्रतीक ढूंढ़ पाएंगे? मेरा अनुमान है कि हम ऐसा नहीं कर पाएंगे।
विज्ञान के इतिहास से हमारे सभी अनुभव एक विपरीत दिशा में, एक रूखे अवैयक्तिक प्रकृति के नियमों की ओर अग्रसर हैं। इस पथ पर पहला पहला महत्तवपूर्ण कदम था आकाश ( स्वर्ग ) का रहस्योद्‍घाटन। इससे जुड़े महानायकों को तो हर कोई जानता है। कॉपरनिकस, जिन्होंने प्रस्तावित किया कि विश्व ( यूनिवर्स ) के केन्द्र में पृथ्वी नहीं है। गैलीलियो, जिन्होंने यह् सिद्ध किया कि कॉपरनिकस सही था। ब्रूनो, जिनका अनुमान था कि सूरज असंख्य तारों में से केवल एक तारा है और न्यूटन जिन्होंने दिखाया कि एक ही गति और गुरुत्वाकर्षण के नियम सौरमंड़ल और पृथ्वी पर स्थित वस्तुओं पर लागू होते हैं। मेरे विचार में महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब न्यूटन ने यह अवलोकन किया कि जो नियम पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा की गति को नियंत्रित करता है वही पृथ्वी की सतह पर किसी वस्तु का गिरना भी निर्धारित करता है। हमारी ( २०वीं ) शताब्दी में आकाश के रहस्योद्‍घाटन को एक कदम और आगे बढ़ाया अमेरिकन खगोलविद्‍ एडविन हबॅल ने। उन्होंने एन्ड्रोमिडा नीहारिका ( नेबूला ) की दूरी मापकर यह सिद्ध किया कि यह नीहारिका, और निष्कर्षतः ऐसी ही हजारों अन्य नीहारिकाएं, हमारी आकाशगंगा के मात्र बाहरी हिस्से नहीं हैं बल्कि वे ख़ुद में कई आकाशगंगा हैं और हमारी आकाशगंगा की तरह प्रभावशाली भी हैं। आधुनिक ब्रह्मांड़ विज्ञानी कापर्निकन ( सिद्धांत ) की भी बात करते हैं, जिसके अनुसार कोई भी ब्रह्मांड़ शास्त्रीय सिद्धांत जो हमारी आकाशगंगा को विश्व में एक विशेष स्थान देता हो उसे गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।
जीवन के रहस्यों पर से भी पर्दा उठा है। जस्टन वॉन लीबिग व अन्य कार्बनिक रसायनज्ञों ने उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में यह प्रदर्शित किया कि जीवन से संबंधित रसायनों, जैसे यूरिक एसिड, के प्रयोगशाला संश्लेषण की कोई सीमा नहीं है। सबसे महत्त्वपूर्ण खोज चार्ल्स डार्विन और अल्फ्रेड रसेल वैलेस की थी, जिन्होंने दर्शाया कि सजीव वस्तुओं की आश्चर्यजनक क्षमताओं का क्रमिक विकास स्वाभाविक चयन प्रक्रिया द्वारा बिना किसी बाह्य योजना या निर्देशन के हो सकता है। रहस्योद्‍घाटन की यह प्रक्रिया इस शताब्दी में और तेज हो गई है जब जैव रसायन और आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में सजीव वस्तुओं के क्रिया-कलापों की व्याख्या में लगातार सफलताएं हासिल हो रही हैं।
भौतिक विज्ञान की किसी अन्य खोज की तुलना में जीवन के रहस्यों से पर्दा उठाने का धार्मिक संवेदनशीलता पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भौतिकी और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में खोज नहीं, बल्कि जीव-विज्ञान में न्यूनीकरण ( रिडक्शनिज्म ) और क्रम विकास ( इवोल्यूशन ) के सिद्धांत सबसे ज़्यादा दुराग्रहपूर्ण विरोधों को जन्म देते रहे हैं।
वैज्ञानिकों में भी यदा-कदा उस जैवशक्तिवाद ( वाइटलिज्म ) के संकेत मिलते हैं, जिसका मत है कि जैविक प्रक्रियाओं की व्याख्या भौतिकी और रसायन के आधार पर नहीं की जा सकती। यद्यपि इस शताब्दी में जीव-विज्ञानी ( न्यूनीकरण विरोधियों, जैसे अर्न्स्ट् मेयर, सहित ) कुल मिलाकर जैवशक्तिवाद से मुक्ति की दिशा में अग्रसर है, लेकिन १९४४ तक भी इरविन शॉडिंगर ने अपनी प्रसिद्ध् व्हाट इज लाइफ ( जीवन क्या है ) में तर्क दिया कि जीवन की भौतिक संरचना के बारे में इतनी जानकारियां हैं कि यह सही-सही इंगित किया जा सकता है कि क्यों आज का भौतिक विज्ञान जीवन को व्याख्यायित नहीं कर सकता। उनका तर्क था कि आनुवंशिक सूचनाएं जो जीव-जंतुओं को नियंत्रित करती हैं बहुत ही स्थायी होती हैं जिन्हें जिन्हें क्वान्टम और सांख्यिकीय यांत्रिकी में वर्णित त्वरित और लगातार बदलावों वाले संसार में समायोजित नहीं किया जा सकता। शॉडिंगर की गलती को आणविक जीव-विज्ञानी मैक्स पेरुज ने चिन्हित किया, जिन्होंने अन्य चीज़ों के अलावा हीमोग्लोबिन की रचना पर भी काम किया था। शॉडिंगर ने इन्जाइम-उत्प्रेरण नाम रासायनिक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न किये जा सकने वाले स्थायित्व पर ध्यान नहीं दिया था।
आज क्रमिक विकास के सबसे ज़्यादा सम्माननीय अकादमिक आलोचक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ लॉव’ के प्रोफ़ेसर फिलीप जॉनसन माने जा सकते हैं। जॉनसन स्वीकार करते हैं कि क्रमिक विकास हुआ है और यह कभी-कभी स्वाभाविक चयन प्रक्रिया द्वारा होता है, लेकिन वे तर्क पेश करते हैं कि ऐसा कोई ‘अकाट्य प्रायोगिक प्रमाण’ नहीं है जिससे यह साबित हो कि क्रमिक विकास किसी ईश्वरीय योजना से निर्देशित नहीं होता। वास्तव में यह प्रमाणित करने की आशा करना मूर्खता होगा कि ऐसी कोई अलौकिक शक्ति नहीं है जो कुछ उत्परिवर्तनों ( म्यूटेशन ) के पक्ष में और कुछ के विरोध में पलड़ा नहीं झुका देती। लेकिन ठीक यही बात किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत के लिए कही जा सकती है, न्यूटन या आइन्सटीन के गति के नियमों से सौरमंड़ल पर सफलतापूर्वक लागू करने में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमें यह मानने से रोके कि कुछ धूमकेतु बीच-बीच में किसी अलौकिक शक्ति से हल्का सा धक्का पा लेते हैं। यह अत्यंत स्पष्ट है कि जॉनसन यह मुद्दा निष्पक्ष उदारमति सोच के तहत नहीं उठाते हैं बल्कि उन धार्मिक कारणों से उठाते हैं जिनका जीवन के लिए तो वे महत्त्व समझते हैं पर धूमकेतु के लिए नहीं। लेकिन किसी भी प्रकार का विज्ञान इसी तरह आगे बढ़ सकता है कि पहले यह मान लिया जाए कि कोई अलौकिक हस्तक्षेप नहीं है और फिर यह देखा जाए कि इस मान्यता के तहत हम कितना आगे बढ़ सकते हैं।
जॉनसन का तर्क है कि प्राकृतिक क्रम-विकास, वह क्रमिक-विकास जो प्रकृति की दुनिया से बाहर किसी सृष्टिकर्ता के निर्देशन या हस्तक्षेप को शामिल नहीं करता, वास्तव में, जीव-जातियों ( स्पीसीज ) की उत्पत्ति की बहुत अच्छी व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता। मुझे लगता है कि वे यहां गलती कर बैठते हैं क्योंकि वे उन समस्याओं को महसूस नहीं कर रहे हैं जिनका सामना किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत को हमारे अवलोकनों का स्पष्टीकरण देते हुए हमेशा करना पड़ता है। स्पष्ट गलतियों को छोड दिया जाए, तो भी हमारी गणनाएं और अवलोकन कुछ ऐसी मान्यताओं पर आधारित होती हैं जो उस सिद्धांत, जिसकी परीक्षा की हम कोशिश कर रहे होते हैं, की वैधता की सीमा से बाहर होती हैं। कभी ऐसा नहीं था जब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत या अन्य किसी भी सिद्धांत पर आधारित गणनाएं सभी अवलोकनों से पूरी तरह मेल खाती हों। आज के जीवाश्म विज्ञानियों और क्रमिक विकासपंथी जीवविज्ञानियों के लेखन में हम उस स्थिति को पहचान सकते हैं जिससे भौतिक विज्ञान में हम वाकिफ़ हैं, यानि की प्राकृतिक क्रमिक-विकास के सिद्धांत जीव विज्ञानियों के लिए अत्यंत ही सफल सिद्धांत हैं, फिर भी इसके स्पष्टिकरण का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है। मुझे लगता है यह सिद्धांत एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण खोज है जिससे हम जीवविज्ञान और भौतिकविज्ञान दोनों ही क्षेत्रों में बिना किसी अलौकिक हस्तक्षेप की परिकल्पना के दुनिया की व्याख्या बहुत आगे तक कर सकते हैं।
दूसरे संदर्भ में, मैं सोचता हूं जॉनसन सही हैं। उनका तर्क है, जैसा कि सभी समझते हैं, कि प्राकृतिक क्रमिक विकास के सिद्धांत और धर्म में एक विसंगति है, और जो वैज्ञानिक और शिक्षाविद इससे इनकार करते हैं उनके सामने वे चुनौती पेश करते हैं। वे आगे शिकायत करते हैं कि प्राकृतिक क्रमिक विकास और ईश्वर के अस्तित्व में तभी तालमेल संभव है, अगर ईश्वर शब्द का अर्थ हम उस प्रथम कारण से ज़्यादा न लें जो प्रकृति के नियमों को स्थापित करने और स्वाभाविक प्रक्रिया को लागू करने के बाद आगे की गतिविधियों से विरत हो जाता है।
आधुनिक क्रमिक विकास के सिद्धांत और हितबद्ध ईश्वर में विश्वास के बीच की विसंगति मुझे तर्क की विसंगति नहीं लगती। कोई यह कल्पना कर सकता है कि ईश्वर ने प्रकृति के नियमों को रचा और क्रमिक विकास की प्रक्रिया को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि एक दिन स्वाभाविक चयन प्रक्रिया के द्वारा आप और हम प्रकट होंगे। वास्तविक विसंगति दृष्टि की है। आखिर ईश्वर उन नर नारियों के दिमाग़ की पैदाइश नहीं है जिन्होंने अनन्त दूरदर्शी प्रथम कारणों की परिकल्पना की, बल्कि उन दिलों की खोज है जो हितबद्ध ईश्वर के लगातार हस्तक्षेप के लिए लालायित थे।
धार्मिक रूढ़ीवादी यह समझते हैं, जैसा कि उनके उदारवादी विरोधी नहीं समझ पाते, कि विद्यालयों ( पब्लिक स्कूल ) में क्रमिक विकास के शिक्षण की बहस में कितनी बड़ी चीज़ दाव पर लगी है। १९८३ में, टेक्सस से आने के थोड़े दिनों बाद, उस अधिनियम पर टेक्सस सीनेट के समक्ष गवाही देने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया, जिसके अनुसार राज्य द्वारा खरीदी हुई माध्यमिक विद्यालयों की पाठ्‍य-पुस्तकों में क्रमिक विकास के सिद्धांत के पठन-पाठन की तब तक मनाही थी, जब तक उतना ही महत्त्व सृष्टिवाद को न दिया जाए। समिति के एक सदस्य ने मुझसे पूछा कि राज्य क्रमिक विकास जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत के शिक्षण को कैसे मदद दे सकता है जो धार्मिक विश्वासों से इतना खिलवाड़ करता है। मैने जवाब दिया कि नास्तिकता से भावनात्मक रूप से जुडे लोगों के लिए जीव-विज्ञान में शिक्षण के लिए उपयुक्त महत्त्व से ज़्यादा महत्त्व क्रमिक विकास पर कम महत्त्व देने में है। यह जन विद्यालयों का काम नहीं है कि वे वैज्ञानिक सिद्धांतों के धार्मिक प्रभावों के पक्ष या विपक्ष में अपने को शामिल करें। मेरे उत्तर ने सीनेटर को संतुष्ट नहीं किया क्योंकि वह मेरी तरह, जानता था कि जीव विज्ञान के पाठ्‍यक्रम में क्रमिक विकास के सिद्धांत पर उपयुक्त जोर देने का क्या प्रभाव पड़ेगा। ज्योंही मैंने समिति कक्ष से बाहर कदम रखा, वह बुदबुदाया-"अभी ईश्वर स्वर्ग में है।" ऐसा हो सकता है, लेकिन लड़ाई में जीत हमारी हुई। टेक्सस के माध्यमिक स्कूल की पाठ्‍यपुस्तकों में केवल आधुनिक क्रमिक विकास के सिद्धांत को शामिल करने की छूट ही नहीं मिली बल्कि इसे शामिल करना अब अनिवार्य हो गया है और वह भी सृष्टि के बारे में बकवास के बिना। लेकिन ऐसी बहुत सी सारी जगहें हैं ( खासकर आज के इस्लामिक देशों में ) जहां यह लड़ाई अभी जीती जानी है और कहीं भी यह गारंटी नहीं है कि यह जीत कायम रहेगी।
हम प्रायः सुनते हैं कि विज्ञान और धर्म में कोई विरोध नहीं है। उदाहरण के लिए जॉनसन की पुस्तक की विवेचना करते हुए स्टीफन गोल्ड कहते हैं कि ‘विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं होते, क्योंकि विज्ञान तथ्यात्मक सच्चाइयों से नाता जोड़ता है, जबकि धर्म मानव को नैतिकता से’। बहुत सी बातों पर में गोल्ड़ से सहमत हूं किंतु मुझे लगता है वे दूसरी दिशा में चले गये हैं। धर्म के अर्थ की परिभाषा, धार्मिक लोगों के वास्तविक विश्वास की परिधि में ही की जा सकती है और दुनिया के धार्मिक लोगों को के विशाल बहुमत को यह जानकर आश्चर्य होगा कि धर्म का तथ्यात्मक सच्चाइयों से कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन गोल्ड़ के विचार वैज्ञानिकों और धार्मिक उदारपंथियों के बीच बहुत प्रचलित हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह धर्म के उस स्थान से जहां कभी वह विराजमान था, पीछे हटने का महत्त्वपूर्ण संकेत है। एक समय था जब हर नदी में बिना एक जलपरी के और हर पेड़ में बिना एक वन देवी के प्रकृति की व्याख्या नहीं की जा सकती थी। उन्नीसवीं शताब्दी तक भी पेड़ और जंतुओं की संरचना सृष्टिकर्ता के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखी जाती थी। आज भी प्रकृति की ऐसी अनंत वस्तुएं हैं जिनकी व्याख्या हम नहीं कर सकते, लेकिन हम उन सिद्धांतों को जानते हैं जो उनकी कार्य-पद्धति को नियंत्रित करते हैं। आज वास्तविक रहस्यों के लिए हमें ब्रह्मांड विज्ञान औए प्राथमिक-कण भौतिकी की तह में जाना पड़ेगा। उन लोगों के लिए जो धर्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं देखते, विज्ञान द्वारा कब्जा की गई ज़मीन से धर्म के पीछे हटने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी है।
इस ऐतिहासिक अनुभव से सीख लेते हुए, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि यद्यपि प्रकृति के अंतिम नियमों में हमें विशेष सौन्दर्य के दर्शन् होंगे, लेकिन जीवन या बुद्धि के लिए यहां कोई विशेष जगह नहीं होगी। आगे चलकर, मूल्य या नैतिकता के मापदंड़ नहीं बनेंगे और इसीलिए हमें ईश्वर का कोई संकेत नहीं मिलेगा, जो इन चीज़ों पर ही टिके हुए हैं। यह चीज़े कहीं और भले मिल जाएं, पर प्रकृति के नियमों में नहीं।
मुझे यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति कभी-कभी जरूरत से ज़्यादा खूबसूरत लगती है। मेरे घर के कार्यालय की खिड़की के सामने एक हैकबेरी का पेड़ है। उस पर बार-बार आयोजित सुसभ्य पक्षियों का समारोह - नीलकंठ, पीले गले वाले वाईरोज और सबसे प्यारे कभी-कभी पहुंचने वाले लाल कार्डिनल। यद्यपि मैं अच्छी तरह समझता हूं कि किस प्रकार चमकीले रंग की पंखुड़ियां अपने साथी जोड़े को आकर्षित करने की प्रतिद्वंदता में विकसित हुए, फिर भी यह कल्पना किये बिना नहीं रहा जा सकता कि यह सारा सौन्दर्य हमारी सुविधा के लिए बनाया गया है। लेकिन यह भी तय है कि पक्षियों और पेड़ों के ईश्वर को, जन्म से ही अंग-भंग करने वाले या कैंसर देने वाला ईश्वर भी बनना पड़ेगा।
सहस्त्राब्दियों से धार्मिक लोग ईशशास्त्र में उलझे हुए हैं। उनके सामने वह समस्या खड़ी है कि एक अच्छे ईश्वर द्वारा शासित मानी जाने वाली दुनिया में दुखों का अस्तित्व क्यों है। अलग-अलग दैनिक योजनाओं की कल्पना कर उन्होंने इस समस्या के कई विलक्षण हल निकालें हैं। इन समाधानों पर मैं तर्क नहीं करूंगा और न ही अपनी ओर से एक और समाधान प्रस्तुत करूंगा। विध्वंस की यादों ने मुझे ईश्वर के मनुष्यों के प्रति रवैयों को नयायपूर्ण बताने की कोशिशों से विमुख कर दिया है। अगर कोई ईश्वर है जिनके पास मनुष्यों के लिए खास योजनाएं हैं तो हमारे लिए अपने इस भाव को छिपाये रखने के लिए वे इतना कष्ट क्यों मोल ले रहे हैं? मुझे तो यह अगर अपवित्र नहीं तो कठोर लगेगा कि ऐसे ईश्वर की हम अपने प्रार्थनाओं में फिक्र करें।
अंतिम नियमों के प्रति मेरे कठोर दृष्टिकोण से सभी वैज्ञानिक सहमत नहीं होंगे। मैं किसी को नहीं जानता जो स्पष्ट रूप से यह कहे कि देवता के अस्तित्व के प्रमाण हैं। लेकिन बहुत सारे वैज्ञानिक प्रकृति में बुद्धियुक्त जीवन की एक विशेष स्थिति के लिए अवश्य तर्क देते हैं। वस्तुतः यह तो हर कोई जानता है कि जीवविज्ञान और मनोविज्ञान का अध्ययन अपनी-अपनी परिधि में होना चाहिए, न कि प्राथमिक-कण-भौतिकी के संदर्भ में। लेकिन यह बुद्धि या जीवन के लिए किसी विशेष स्थिति का द्योतक नहीं है, क्योंकि यही बात रसायन विज्ञान और द्रवगति विज्ञान के संबंध में भी सही है। दूसरी ओर, यदि हम अभिमुखी व्याख्याओं के मिलनबिंदु पर अंतिम नियमों में बुद्धियुक्त जीवन की विशेष भूमिका खोजें तो हम यह निष्कर्ष निकालेंगे कि वे सृष्टिकर्ता, जिन्होंने ये नियम बनाए, हमलोगों में खास दिलचस्पी रखते थे।
जॉन व्हीलर इस तथ्य से काफ़ी प्रभावित हैं कि क्वान्टम यांत्रिकी की मानक कोपेनहेगन व्याख्या के अनुसार किसी भौतिक प्रणाली में स्थान, ऊर्जा का संवेग जैसे गुणमापकों ( तत्वों ) का एक निश्चित मान तब तक नहीं बताया जा सकता जब तक कि किसी पर्यवेक्षक के यंत्र से इन्हें माप न लिया जाए। व्हीलर के लिए क्वांटम यांत्रिकी सार्थकता के लिए एक प्रकार के बुद्धियुक्त जीवन को विश्व में दिखना ही नहीं बल्कि उसके हर हिस्से में फैल जाना चाहिए ताकि विश्व की भौतिक स्थिति के बारे में सूचना का हर बिट प्राप्त किया जा सके। मेरे हिसाब से व्हीलर के निष्कर्ष प्रत्यक्षवाद के मत को अत्यंत गंभीरता से लेने के खतरे का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। प्रत्यक्षवाद का तर्क है कि विज्ञान को उन्हीं चीज़ों तक अपने आपको सीमित रखना चाहिए जिनका हम अवलोकन कर सकते हैं। मैं और मेरे अन्य भौतिक विज्ञानी क्वान्टम यांत्रिकी की दूसरी यथार्थवादी पद्धति को वरीयता देते हैं जो तरंग फलन के आधार पर प्रयोगशालाओं और पर्यवेक्षकों, साथ ही साथ, अणुओं और परमाणुओं की व्याख्या कर सकता है, जो नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं और इस बात पर वस्तुगत रूप से निर्भर नहीं रहते कि पर्यवेक्षक मौजूद है या नहीं।
कुछ वैज्ञानिक इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि कुछ मौलिक स्थिरांकों का मान विश्व में बुद्धियुक्त जीवन की मौजूदगी के अनुकूल है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस अवलोकन के पीछे कुछ ठोस आधार हैं, लेकिन अगर ऐसा हो तो भी यह आवश्यक रूप से किसी दैवीय उद्देश्य के क्रियान्वयन की ओर इंगित नहीं करता। बहुत सारे आधुनिक ब्रह्मांड़-विज्ञान के सिद्धांतों में प्रकृति के ये तथाकथित स्थिरांक ( जैसे कि प्राथमिक कणों की मात्रा ) स्थान और समय के साथ, और यहां तक कि विश्व के तरंग फलन के पद से दूसरे पद तक में बदल जाते हैं। अगर यह सही भी है, तो जैसा कि हम देख चुके हैं, एक वैज्ञानिक विश्व के उसी हिस्से में रहकर प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर सकता है जहां स्थिरांकों को बुद्धियुक्त जीवन के क्रमिक विकास के अनुकूल मान प्राप्त होते हैं।
सादृश्य के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि एक ग्रह है जिसका नाम है प्राइम पृथ्वी। यह हमारी पृथ्वी से हर तरह से अभिन्न है, सिर्फ़ इसके अलावा कि उस ग्रह के मनुष्यों ने बिना खगोल विज्ञान को जाने भौतिकी के विज्ञान को विकसित किया है जैसे कि हमारी पृथ्वी पर है ( उदाहरण के लिए, कोई यह कल्पना कर सकता है कि प्राइम पृथ्वी की सतह शाश्वत रूप से बादलों से घिरी रहती है )। प्राइम पृथ्वी के छात्र भौतिक विज्ञान की की पाठ्‍यपुस्तक के पीछे भौतिक स्थिरांकों की सारणी अंकित पाएंगे। इस सारणी में प्रकाश की गति, इलेक्ट्रॉन की मात्रा, आदि-आदि लिखी होंगी। और एक अन्य मौलिक स्थिरांक लिखा होगा जिसका मान १.९९ कैलोरी उर्जा प्रति वर्ग सेंटीमीटर होगा जो प्राइम पृथ्वी की सतह पर किसी अनजान बाह्य स्रोत से आने वाली उर्जा की माप होगी। पृथ्वी पर यह सूर्य-स्थिरांक कहलाती है क्योंकि हम जानते हैं कि यह उर्जा हमें सूर्य से प्राप्त होती है।
लेकिन प्राइम पृथ्वी पर किसी के पास यह जानने की विधि नहीं होगी कि यह उर्जा कहां से आती है और यह स्थिरांक यही मान क्यों ग्रहण करता है। प्राइम पृथ्वी के कुछ वैज्ञानिक इस पर जोर दे सकते हैं कि स्थिरांक का मापा गया यह मान जीवन के प्रकट होने के लिए अत्यंत अनुकूल है। अगर प्राइम पृथ्वी २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर से ज़्यादा या कम उर्जा प्राप्त करता तो समुद्रों का पानी या तो भाप या बर्फ होता और प्राइम पृथ्वी पर द्रव जल या अन्य उपयुक्त विकल्प जिसमें जीवन विकसित हो सके, की कमी हो जाती। भौतिक विज्ञानी इससे यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि १.९९ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर का यह स्थिरांक ईश्वर द्वारा मनुष्यों की भलाई के लिए किया गया है। प्राइम पृथ्वी के कुछ संशयवादी भौतिक विज्ञानी यह तर्क कर सकते थे कि ऐसे स्थिरांकों की व्याख्या अंतत्वोगत्वा भौतिकी के अंतिम नियमों से की जा सकेगी और यह एकमात्र संयोग है कि वहां इसका मान जीवन के अनुकूल है। वास्तव में दोनों ही गलत होते।
जब प्राइम  पृथ्वी के निवासी आखिर में खगोल विज्ञान विकसित कर लेते, तब वे जानते कि उनका ग्रह भी एक सूरज से ९.३ करोड़ मील दूर है जो प्रति मिनट ५६ लाख करोड़ कैलोरी उर्जा उत्सर्जित करता है। और वे यह भी देखते कि दूसरे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा निकट हैं इतने गर्म हैं कि वहां जीवन पैदा नहीं हो सकता तथा बहुत सारे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा दूर हैं वे इतने ठंड़े है कि वहां जीवन की संभावना नहीं है। और इसीलिए दूसरे तारों का चक्कर लगा रहे अनन्त ग्रहों में से एक छोटा अनुपात ही जीवन के अनुकूल है। जब वे खगोल वोज्ञान के बारे कुछ सीखते तभी प्राइम पृथ्वी पर तर्क करने वाले भौतिक वैज्ञानी यह जान पाते कि जिस दुनिया में वे रह रहे हैं वह लगभग २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर ऊर्जा प्राप्त करती है क्योंकि कोई और तरह की दुनिया नहीं हो सकती जिसमें वे रह सकें। हम लोग विश्व के इस हिस्से में प्राइम पृथ्वी के उन निवासियों की तरह हैं जो अब तक खगोल विज्ञान के बारे में नहीं जान पाए हैं, लेकिन हमारी दृष्टि से दूसरे ग्रह और सूरज नहीं बल्कि विश्व के अन्य हिस्से ओझल हैं।
हम अपने तर्क को और आगे बढायेंगे। जैसा कि हमने पाया है कि भौतिकी के सिद्धांत जितने ज़्यादा मौलिक होते हैं उसका ताल्लुक हमसे उतना ही कम होता है। एक उदाहरण लें, १९२० के प्रारंभ में ऐसा सोचा जाता था कि केवल इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन ही प्राथमिक कण हैं। उस समय यह माना जाता था कि ये ही घटक है जिससे हम और हमारी दुनिया बनी है। जब नये कण जैसे न्यूट्रॉन की खोज हुई तो पहले यह मान लिया गया कि वे इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन से ही बने होंगे। लेकिन आज के तत्व बिल्कुल भिन्न हैं।    
अब हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि प्राथमिक कणों से हमारा क्या तात्पर्य है, पर हमने यह महत्त्वपूर्ण सीख ली है कि सामान्य पदार्थों में इन कणों की उपस्थिति उनकी मौलिकता के बारे में कुछ नहीं बताती। लगभग सभी कण प्रभाव क्षेत्र ( फ़िएल्द् ) जो आधुनिक कणों और अंतर्क्रियाओं के मानक मॉडल में प्रकट होते हैं, का इतनी तेजी से ह्रास होता है कि सामान्य पदार्थ में वे अनुपस्थित होते हैं और मानव जीवन में कोई भूमिका अदा नहीं करते। इलेक्ट्रॉन हमारी दैनन्दिनी दुनिया का एक आवश्यक हिस्सा हैं, जबकि म्यूऑन और रॉउन नामक कण हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखते, फिर भी सिद्धांतों में उनकी भूमिका के अनुसार इलेक्ट्रॉन को म्यूऑन और रॉउन से किसी भी प्रकार से ज़्यादा मौलिक नहीं कहा जा सकता और व्यापक रूप में कहा जाए तो किसी वस्तु का हमारे लिए महत्व और प्रकृति के नियमों के लिए उसके महत्व के बीच सहसंबंध की खोज किसी ने कभी नहीं की है।
वैसे, विज्ञान की खोजों से ईश्वर के बारे में जानकारी हासिल करने की उम्मीद ज़्यादातर लोगों ने नहीं पाली होगी। जॉन पॉल्किंगहाम ने एक ऐसे धर्म-विज्ञान के पक्ष में भावपूर्ण तर्क दिये हैं जो मानव विवेचना की परिधि के अंदर हों, पर जिसमें विज्ञान का भी घर हो। यह धर्म विज्ञान धार्मिक अनुभवों, जैसे रहस्य का उद्‍घाटन ( ज्ञान प्राप्ति ), पर आधारित हो, ठीक उसी तरह जैसे विज्ञान प्रयोग और अवलोकन पर आधारित होता है, उन्हें उन अनुभवों की गुणात्मकता का आत्म-परीक्षण करना होगा। लेकिन दुनिया के धर्मों के अनुयायियों का बहुतायत ख़ुद के धार्मिक अनुभवों पर नहीं बल्कि दूसरों के कथित अनुभवों द्वारा उद्‍घाटित सत्य पर निर्भर करता है। ऐसा सोचा जा सकता है कि यह सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानियों के दूसरों के प्रयोगों पर निर्भरता से भिन्न नहीं है। लेकिन दोनों में एक महत्वपूर्ण अंतर है। हजारों अलग-अलग भौतिक विज्ञानियों की अंतर्दृष्टि भौतिक वास्तविकता की एक संतोषजनक ( पर अधूरा ) समान समझ पर अभिकेन्द्रित हुई है। इसके विपरीत, ईश्वर या अन्य चीज़ों के बारे में धार्मिक रहस्योद्‍घाटनों से उपजे विवरण एकदम भिन्न दिशाओं में संकेत करते  हैं। हम आज भी, हजारों सालों के ब्रह्मवैज्ञानिक विश्लेषण के बावज़ूद, धार्मिक उद्‍घाटनों से मिली शिक्षा की किसी साझा समझ के निकट भी नहीं है।
धार्मिक अनुभवों और वैज्ञानिक प्रयोग के बीच एक और फर्क है। धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान काफ़ी संतोषप्रद हो सकता है। इसके विपरीत, वैज्ञानिक पर्यवेक्षण से प्राप्त विश्व-दृष्टिकोण अमूर्त और निर्वैयक्तिक होता है। विज्ञान से इतर, धार्मिक अनुभव जीवन में एक उद्देश्य के विशाल ब्रह्मांडीय नाटक में अपनी भूमिका निभाने के लिए सुझाव पेश कर सकते हैं। और जीवन के पश्चात एक निरन्तरता को बनाए रखने के लिए ये हनसे वादा करते हैं इन्हीं कारणों से मुझे लगता है कि धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान पर इच्छाजनित सोच की अमिट छाप होती है।
१९७७ की अपनी पुस्तक द फर्स्ट थ्री मिनट्‍स ( पहले तीन मिनट ) में मैंने एक अविवेकपूर्ण टिप्पणी की थी कि जितना ही हम इस विश्व को समझते जाते हैं, उतना ही यह निरर्थक लगता है। मेरा यह मतलब नहीं था कि विज्ञान हमें सिखाता है कि यह विश्व निरर्थक है, बल्कि यह बताना था कि विश्व ख़ुद किसी लक्ष्य की ओर इशारा नहीं करता। मैंने तत्काल यह जोड़ा था कि ऐसे रास्ते हैं जिसमें हम अपने आप अपने जीवन के लिए एक अर्थ ढूंढ़ सकते हैं, जैसे कि विश्व को समझने का प्रयास, लेकिन क्षति तो हो चुकी थी। उस मुहावरे ने तब से मेरा पीछा किया है।
हाल में एलन लाइटमैन और रॉबर्ट ब्रेबर ने सत्ताइस ब्रह्मांड़ विज्ञानियों और भौतिकी विज्ञानियों के साक्षात्कार प्रकाशित किये हैं। इनमें से ज़्यादातर विज्ञानियों से अपने साक्षात्कार के अन्त में पूछा गया कि वे उस वक्तव्य के बारे में क्या सोचते हैं? विभिन्न विशेषणों के साथ, दस साक्षात्कार देने वाले मुझसे सहमत थे और तेरह असहमत। लेकिन इन तेरह में से तीन इसलिए असहमत थे क्योंकि वे नहीं समझ पाए कि विश्व में कोई किसी अर्थ की आशा क्यों करेगा? हॉवर्ड के खगोलविज्ञानी मारग्रेट गेलर ने पूछा - ....इसका कोई अर्थ क्यों होना चाहिए? कौन सा अर्थ? यह तो एकमात्र भौतिक प्रणाली है इसमें अर्थ कैसा? मैं उस वक्तव्य से एकदम अचंभित हूं। प्रिन्सटन के खगोलविज्ञानी जिम पीबल्स ने उत्तर दिया मैं यह मानने को तैयार हूं कि हम बहते हुए और फैंके हुए हैं। ( पीबल्स को भी अंदाज़ था कि मेरे लिए वह एक बुरा दिन था ) प्रिन्सटन के दूसरे खगोलविज्ञानी एडविन टर्नर मुझसे सहमत थे, किंतु उनका अनुमान था कि मैंने यह टिप्पणी पाठक को नाराज़ करने के उद्देश्य से की थी। एक अच्छी प्रतिक्रिया टेक्सस विश्वविद्यालय के मेरे सहकर्मी, खगोलविज्ञानी गेरार्ड द वाकोलियर्स की थी। उन्होंने कहा कि वे सोचते हैं कि मेरा उत्तर नोस्टालजिया पैदा करने वाला था। कि वास्तव में यह वैसा ही था- उस दुनिया के लिए जहां स्वर्ग ईश्वर के गौरव की घोषणा करते हैं, वह् नोस्टालजिया पैदा करने वाला ही था।
लगभग एक सौ पचास वर्ष पहले मैथ्यू आर्नोल्ड ने समुद्र की लौटती हुई लहरों में धार्मिक विश्वास के पीछे हटते कदमों के दर्शन किये थे और जल की ध्वनि में उदासी का गीत सुना था। प्रकृति के नियमों में किसी चिन्तित सृष्टिकर्ता द्वारा तैयार योजना, जिसमें मनुष्य कुछ खास भूमिका में होते, को देख पाना कितना दिलचस्प होता। लेकिन ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता में मुझ उस उदासी का अहसास हो रहा है। हमारे वैज्ञानिक सहकर्मियों में से कुछ ऐसे हैं जो कहते हैं कि उन्हें प्रकृति के चिंतन से उसी आध्यात्मिक संतोष की प्राप्ति होती है जो औरों को परम्परागत रूप से किसी हितबद्ध ईश्वर में विश्वास से मिलता है। उनमें से कुछ को तो ठीक वैसा ही अहसास भी होता होगा। मुझे नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि यह प्रकृति के नियमों की पहचान करने में सहायक होगा, जैसा कि आइन्सटाइन ने एक प्रकार के दूरस्थ और निष्प्रभावी ईश्वर को मानकर किया। इस धारणा को युक्तिसंगत दिखाने के लिए ईश्वर की समझ को हम जितना परिमार्जित करते हैं, यह उतना ही निरर्थक लगता है।
आज के वैज्ञानिकों में इन मसलों पर सोचने वालों में मैं शायद कुछ लीक से हटकर हूं। चाय या दोपहर के भोजन के चन्द मौकों पर जब बातचीत मुद्दों को छूती है, तो मेरे मित्र भौतिक विज्ञानियों में से ज़्यादातर की सबसे तीखी प्रतिक्रिया हल्के आश्चर्य और मनोविनोद के रूप में व्यक्त होती है जिसमें यह भाव होता है कि अब भी कोई क्या इन मुद्दों को गंभीरता से लेता है। बहुत सारे भौतिक विज्ञानी अपनी नृजातीय पहचान बनाए रखने के लिए, और विवाह और अंत्येष्टि के मौकों पर इसका उपयोग करने के लिए, अपने अभिभावकों के विश्वास से नाममात्र का नाता जोड़े रहते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई उसके धर्मतत्व पर विचार करता है। मैं ऐसे दो व्यापक सापेक्षता पर काम करने वाले वैज्ञानिकों को जानता हूं जो समर्पित रोमन कैथोलिक हैं। बहुत सारे सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी हैं जो यहूदी रिवाजों के अनुपालक हैं। एक प्रायोगिक भौतिक विज्ञानी हैं जिनका ईसाई-धर्म में पुनर्जन्म हुआ है। एक सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जो समर्पित मुस्लिम हैं, और एक गणितज्ञ भौतिक विज्ञानी हैं जिनका इंगलैंड के गिरजाघर में पुरोहिताभिषेक हुआ है। निस्संदेह अन्य अत्यंत धार्मिक भौतिक विज्ञानी होंगे जिन्हें मैं नहीं जानता या जो अपना मत ख़ुद तक ही सीमित रखते हैं। लेकिन मैं इतना अपने अवलोकनों के आधार पर कह सकता हूं कि आज ज़्यादातर भौतिक विज्ञानी धर्म में पर्याप्त रुचि नहीं रखते और उन्हें व्यावहारिक नास्तिक कहा जा सकता है।
कट्टरपंथियों और धार्मिक रूढ़िवादियों की अपेक्षा उदारपंथी, वैज्ञानिकों से अपने रुख़ में एक मायने में ज़्यादा दूर हैं। धार्मिक रूढ़ीवादी, वैज्ञानिकों की तरह, कम से कम जिन चीज़ों पर विश्वास करते हैं, उसके बारे में बतायेंगे कि ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि वही सत्य है, न कि इसलिए क्योंकि वह अच्छा है या ख़ुश करता है। लेकिन, बहुत सारे धार्मिक उदारपंथी यह सोचते हैं कि अलग-अलग लोग अलग-अलग परस्पर सम्बद्ध चीज़ों पर विश्वास कर सकते हैं, और उनमें से कोई भी गलत नहीं होता जब तक कि उनका विश्वास उनके काम आता है। एक पुनर्जन्म में विश्वास करता है तो दूसरा स्वर्ग और नरक में, तीसरा यह मान सकता है कि मृत्यु के बाद आत्मा समाप्त हो जाती है। लेकिन कोई भी तब तक गलत नहीं कहा जा सकता जब तक कि उन्हें इन विश्वासों में आध्यात्मिक संतोष की तेज़ धार मिलती है। सुसान सॉनटैग के मुहावरे में कहें- यह मुझे बर्ट्रेड रसेल के उस अनुभव की कहानी की याद दिलाता है, जब् १९१८ में युद्ध का विरोध करने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। जेल के नित्यकर्म के बाद जेलर ने रसेल से उनका धर्म पूछा। रसेल ने जवाब दिया कि वे अज्ञेयवादी हैं। कुछ क्षण के लिए जेलर भौंचक्का रह गया, फिर उसका चहरा खिला और वह बोल पड़ा- मेरा अनुमान है यह एकदम ठीक है। हम सभी एक ही ईश्वर की पूजा करते हैं। क्या ऐसा नहीं है?
वुल्फगैंग पॉली से एक बार पूछा गया कि क्या वे सोचते हैं कि वह अमुक अत्यंत कुविचारित शोध-पत्र गलत था। उन्होंने जवाब दिया कि ऐसा वर्णन उसके लिए काफ़ी नर्म होगा। वह शोध-पत्र तो गलत भी नहीं था। मैं सोचता हूं कि रूढ़ीवादी जिस पर विश्वास करते हैं वह गलत है। लेकिन कम से कम, विश्वास करने का मतलब क्या है, वे यह तो नहीं भूले। धार्मिक उदारवादी तो मुझे गलत भी नहीं लगते।
हम प्रायः सुनते हैं कि धर्म के संबंध में धर्मतत्व शास्त्र उतना महत्वपूर्ण नहीं है- महत्वपूर्ण है कि यह हमें जीवन में कैसे मदद करता है। घोर आश्चर्य। ईश्वर का अस्तित्व और उसकी प्रकृति, दया और पाप तथा स्वर्ग और नरक महत्वपूर्ण नहीं है। मेरा अंदाज़ है कि लोग अपने माने हुए धर्म के धर्मतत्वशास्त्र को इसलिए महत्वपूर्ण नहीं मानते क्योंकि वे ख़ुद यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वे किसी में विश्वास नहीं करते। लेकिन पूरे इतिहास के दौरान और आज भी दुनिया के कई हिस्सों में लोगों ने एक् धर्मतत्वशास्त्र या दूसरे में विश्वास किया है और उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण रहा है।
धार्मिक उदारपंथ के बौद्धिक निस्तेज से कोई निराश हो सकता है, लेकिन यह रूढ़ीवादी कट्टर धर्म है जिसने क्षति पहुंचाई है। निस्संदेह इसके महान नैतिक और कलात्मक योगदान भी हैं। लेकिन मैं यहां यह तर्क नहीं करूंगा कि एक तरफ़ धर्म के इन अवदानों और दूसरी तरफ़ धर्मयुद्ध और ज़िहाद एवं धर्म परीक्षण और सामूहिक हत्या की लंबी निर्मम कहानी के बीच हमें किस प्रकार संतुलन बैठाना चाहिए। लेकिन इस बात पर मैं अवश्य जोर देना चाहूंगा कि इस तरह से संतुलन बैठाते हुए यह मान लेना सुरक्षित नहीं है कि धार्मिक अत्याचार और पवित्र धर्म युद्ध सच्चे धर्म के विकृत रूप हैं। मेरे विचार से यह धर्म के प्रति उस मनोभाव का दुष्परिणाम है, जिसमें गहरा आदर और ठोस निष्ठुरता का सम्मिश्रण है। दुनिया के महान धर्मों में से कई यह सिखाते हैं कि ईश्वर एक विशेष धार्मिक विश्वास रखने और पूजा के एक खास रूप को अपनाने का आदेश देता है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ लोग जो इन शिक्षाओं को गंभीरता से लेते हैं वे किन्हीं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों जैसे सहिष्णुता, करुणा या तार्किकता की तुलना में इन दैनिक आदेशों को निष्ठापूर्वक सबसे ज़्यादा महत्व दें।
एशिया और अफ्रीका में धार्मिक उन्माद की काली ताकतें अपनी जड़ मजबूत करती जा रही है और पश्चिम के धर्मनिरपेक्ष राज्यों में भी तार्किकता और सहिष्णुता सुरक्षित नहीं है। इतिहासकार ह्यू ट्रेवर-रोपर ने कहा कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यह विज्ञान के उत्साह का फैलाव ही था जिसने अंततोगत्वा यूरोप में डायनों का जलाना समाप्त कर दिया। हमें एक स्वस्थ दुनिया के संरक्षण के लिए फिर से विज्ञान के प्रभाव पर भरोसा करना होगा। वैज्ञानिक ज्ञान की निश्चितता नहीं बल्कि अनिश्चितता ही उसे इस भूमिका के लिए अनुकूल बनाती है। वैज्ञानिकों द्वारा पदार्थ के बारे में अपनी समझ, जिसका प्रत्यक्ष अध्ययन प्रयोगशाला में प्रयोगों द्वारा हो सकता है, बार-बार बदलते हुए देखने के बावज़ूद, धार्मिक परम्परा या पवित्र ग्रंथों द्वारा पदार्थ के उस ज्ञान, जो मानवीय अनुभव से परे है, के दावे को गंभीरता से कौन लेगा?
निश्चित रूप से, दुनिया की तकलीफ़ों को बढ़ाने में विज्ञान का भी अपना योगदान है। लेकिन सामान्य तौर पर विज्ञान एक दूसरे को मारने का साधन भर उपलब्ध कराता है, उद्देश्य नहीं। यहां विज्ञान के प्राधिकार का उपयोग आतंक को जायज ठहराने के लिए होता रहा है जैसे कि नाज़ी वंशवाद या सुजनन-विज्ञान ( ऎउगेन्-इच्स् ), वहां विज्ञान को भ्रष्ट किया गया है। कार्ल पॉपर ने कहा है-  यह एकदम स्पष्ट है कि तार्किकता नहीं बल्कि अतार्किकता, धर्मयुद्धों के पहले और बाद में, राष्ट्रीय शत्रुता और आक्रमण के लिए जिम्मेदार रही है। लेकिन कोई युद्ध वैज्ञानिक के लिए वैज्ञानिकों की पहल पर लड़ा गया हो, यह् मुझे नहीं मालूम।
दुर्भाग्यवश, मुझे नहीं लगता कि युक्तिसंगत दलील पेश करने से तार्किकता की वैज्ञानिक पद्धति को स्थापित करना संभव है। डेविड ह्यूम ने बहुत पहले बताया था कि सफल विज्ञान के पुराने अनुभवों के समर्थन में हम बहस की उस तर्क पद्धति की प्रामाणिकता मानकर चलते हैं जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं। इस प्रकार सभी तर्कपूर्ण बहसों को केवल तर्कपद्धति को अस्वीकार कर मात दिया जा सकता है। इसलिए. अगर हमें प्रकृति के नियमों में आध्यात्मिक सुख नहीं मिलता, तो भी हम इस प्रश्न से नहीं बच सकते हैं कि इसकी खोज अन्य जगहों पर एक या दूसरे प्रकार के आध्यात्मिक प्राधिकार में या धार्मिक विश्वास को स्वतंत्र रूप से बदल कर हम क्यों नहीं कर सकते?
विश्वास करना है या नहीं करना है, इसका निर्णय पूरी तरह हमारे हाथ में नहीं है। अगर मैं सोचूं कि यदि मैं चीन के बादशाह का उत्तराधिकारी होता तो मैं ज़्यादा सुखी और सभ्य होता, लेकिन मैं अपनी इच्छाशक्ति पर चाहे जितना जोर डालूं मुझे यह विश्वास नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह जैसे मेरे दिल की धड़कन को रोकने की चाहत ऐसा नहीं कर सकती। तब भी, ऐसा लगता है कि बहुत सारे लोग अपने विश्वास को थोड़ा नियंत्रित करते हैं और उन्हीं विश्वासों को चुनते हैं जो उन्हें लगता है कि उन्हें अच्छा और खुश रखेगा।
यह नियंत्रण कैसे कार्यान्वित होता है, इसका मेरी जानकारी में सबसे दिलचस्प वर्णन जार्ज ऑरवेल के उपन्यास १९८४ में मिलता है। नायक विन्सटन स्मिथ अपनी डायरी में लिखता है- दो धन दो चार होता है, यह कहने की छूट की मुक्ति है। धर्म परीक्षक ओब्रायन इसे एक चुनौति के रूप में लेता है और उसकी सोच को मजबूरन बदलने के लिए उपाय करता है। उत्पीड़न में स्मिथ यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार है कि दो धन दो पांच होता है, लेकिन ओब्रायन केवल यह नहीं चाहते थे। अंत में जब दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो उससे बचने के लिए स्मिथ अपने को आप को एक क्षण के लिए यह विश्वास दिलाता है कि दो धन दो पांच ही होते हैं। ओब्रायन उस क्षण संतुष्ट हो जाते हैं और उत्पीड़न रोक दिया जाता है। ठीक इसी प्रकार अपने और अपने चहेतों की संभावित मृत्यु से सामना होने का दर्द् हमें अपने विश्वासों में फेरबदल के लिए मजबूर करता है, ताकि हमारा दर्द कम हो जाए। पर सवाल उठता है कि अगर हम अपने विश्वासों में इस तरह से समझौता करने में सक्षम हैं, तो ऐसा क्यों ना किया जाए?
मुझे इसके खिलाफ़ कोई वैज्ञानिक या तार्किक कारण नहीं दिखलाई पड़ता कि हम अपने विश्वासों में समझौता करके- नैतिकता और मर्यादा के लिए, कुछ सांत्वना हासिल क्यों ना करें! हम उसका क्या करें जिसने खुद को यह विश्वास दिला दिया हो कि उसे तो एक लॉटरी मिलनी ही है क्योंकि उसे रुपयों की बहुत-बहुत जरूरत है? कुछ लोग भले उसके क्षणिक विशाल ख्वाब से ईर्ष्या रखते हों पर ज़्यादातर लोग यह सोचेंगे कि वह एक वयस्क और तार्किक मनुष्य की सही भूमिका में, चीज़ों को वास्तविकता की कसौटी पर देख पाने में, असफल है। जिस प्रकार उम्र के साथ बढ़ते हुए, हम सभी को यह सीखना पड़ता है कि लॉटरी जैसी साधारण चीज़ों के बारे में ख्वाबपूर्ण सोच के लोभ से कैसे बचा जाए, ठीक उसी प्रकार हमारी प्रजाति को उम्र के साथ बढ़ते हुए यह सीखना पड़ेगा कि हम किसी प्रकार के विराट ब्रह्मांड़ीय नाटक में किसी हीरो की भूमिका में नहीं हैं।
फिर भी, मैं एक मिनट के लिए भी यह नहीं सोचता कि मृत्यु का सामना करने के लिए धर्म जो सांत्वना देता है, विज्ञान वह उपलब्ध कराएगा। इस अस्तित्ववादी चुनौति का मेरी जानकारी में सबसे बढ़िया विवरण ७०० ईस्वी के आसपास पूज्य बेडे द्वारा रचित पुस्तक् द इक्लेजियास्टिक हिस्ट्री ऑफ द इंग्लिश ( अंग्रेजों का गिरजा-संबंधी इतिहास ) में है। बेडे ने लिखा है कि नॉर्थम्ब्रीया के राजा एडविन ने ६२७ ईस्वी में यह तय करने के लिए कि उनके राज्य में कौनसा धर्म स्वीकारा जाए, एक परिषद की बैठक बुलाई, जिसमें राजा के प्रमुख दरबारियों में से एक ने निम्नलिखित भाषण दिया:   
   " हे महाराज! जब हम पृथ्वी पर मनुष्य के आज के जीवन की तुलना उस समय से करते हैं जिसकी कोई जानकारी हमारे पास नहीं है, तो हमें लगता है जैसे एक अकेली मैना, शाही-दावत वाले हॉल में द्रुत उड़ान भर रही हो, जहां आप किसी जाड़े की रात में अपने नवाबों और दरबारियों के साथ दावत में बैठे हों। ठीक बीच में, हॉल में आनन्दमयी गर्मी प्रदान करने के लिए आग जल रही हो और बाहर जाड़े की तूफ़ानी बारिश या बर्फ का प्रकोप हो। मैना हॉल के एक दरवाज़े से होते हुए दूसरे दरवाज़े तक द्रुत उड़ान भर रही है। जब तक वह अंदर है, बर्फीले तूफ़ान से सुरक्षित है। लेकिन कुछ क्षणों के आराम के बाद, वह उसी कड़ाके की ठंड़ वाली दुनिया में, जहां से वह आई थी, हमारी दृष्टि से ओझल हो जाती है। इसी तरह, आदमी थोड़े समय के लिए पृथ्वी पर दिखता है। इस जीवन के पहले क्या हुआ और बाद में क्या होगा, इसके बारे में हम कुछ नहीं जानते।"
बेडे और एडविन की तरह इस विश्वास से बच पाना मुश्किल है कि उस दावत वाले हॉल के बाहर हम लोगों के लिए कुछ अवश्य होगा। इस ख्याल को तिलांजलि देने का साहस ही उस धार्मिक सांत्वना का छोटा सा विकल्प है और यह भी संतुष्टि से विहीन नहीं है।


स्टीवन वाइनबर्ग का यह आलेख यहां से डाउनलोड़ किया जा सकता है:


Monday, December 26, 2011

शंकराचार्य का रचनाकर्म : एक समीक्षा

( इस ब्लॉग की सदस्या लवली गोस्वामी का यह महत्त्वपूर्ण आलेख गर्भनाल पत्रिका के दिसंबर अंक में ‘शंकराचार्य का रचनाकर्म : विज्ञानवादी दृष्टि से एक समीक्षा’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां उस आलेख का मूल प्रारूप साभार प्रस्तुत किया जा रहा है। - मोडेरेटर )

आधुनिक समय में जब दर्शन अपनी पुरातन सीमाएं लांघकर सुविकसित और सुसंगत हो चुका है, यह आवश्यक है कि भारतीय दर्शन की समीक्षा की जाए और इसमें उपस्थित बुद्धिवादी, वस्तुगत और तर्कपरक चिंतन और चिंतकों के विचारों को जनता के समक्ष रखा जाए जिससे कि वे इससे लाभान्वित हो सकें. भारतीय दर्शन की समीक्षा विज्ञान आधारित दृष्टि और तर्क के आधार पर करने पर हमें ज्ञात होता है कि यहाँ दर्शन का एक समृद्ध इतिहास रहा है और तार्किक चिंतन को प्रश्रय देने वाले कई मत और संप्रदाय रहे हैं. वहीं दूसरी ओर तर्कपूर्ण चिंतन और ज्ञान की निंदा करने वाले और विश्व की भ्रमपूर्ण व्‍याख्या करने वाले दार्शनिकों की भी कोई कमी नही रही है. इस लेख का विषय शंकराचार्य के रचनाकर्म की इसी दृष्टि से समीक्षा करने और तर्कपरक बुद्धिवादी चिंतन के प्रति उनके दृष्टिकोण की व्याख्या करना है.

शंकाराचार्य वेदांत के अद्वैत मत के व्याख्याकार थे. इनका जन्म केरल के मालबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर शिवगुरु नम्बूदरी के यहाँ हुआ था. बत्तीस वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई. शंकराचार्य ने महर्षि बादरायण के सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों तथा गीता पर भी भाष्य रचे एवं इन्होंने बौद्ध महायानियों की रणनीति का अनुसरण करते हुए देश के चारो कोनों में चार मठ स्थापित किये.इन्‍होंने ब्रह्मसूत्र पर लिखे अपने प्रसिद्ध भाष्य में वेदान्त को नया विस्तार दिया एवं अद्वैत वेदान्त के पूर्व व्याख्याकार आचार्य गौड़पाद के दर्शन को सुविकसित रूप प्रदान किया.

शंकर और उनकी सामाजिक दृष्टि

हम जानते हैं की एक धर्म शास्त्र प्रणेता के रूप में मनु के विचार शूद्रों के प्रति विद्वेषपूर्ण थे. शंकर का निरपेक्ष मूल्यांकन उन्हें एक ऐसे दार्शनिक के रूप में सामने रखता है, जो मनु द्वारा प्रतिपादित उसी ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रतिनिधि विदित होते हैं. उनके दृष्टिकोण में सामान्य लोगों एवं उनके द्वारा भौतिकता को सम्मान देने की परम्परा के प्रति गहरे विद्वेष की भावना है. शूद्रों के तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के अधिकार को ख़ारिज करने के लिए ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र-भाष्य के एक खंड में वे मनु के उस अनुच्छेद को उद्धृत करते हैं, जिसमे मनु ने शूद्रों के प्रति अपने घृणापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं. शंकर उत्तर देते हैं कि शूद्र इस दार्शनिक गूढ़ ज्ञान के अधिकारी क्यों नही हैं, शंकर कहते हैं -

इतश्च न शूद्रस्याधिकारः यदस्य स्मृतेः श्रवणाध्ययनार्थप्रति प्रतिषेधो
भवति। वेदश्रवणप्रतिषेधः , वेदाध्ययनप्रतिषेधः , तदर्थज्ञानानुष्ठानयो च
प्रतिषेधः शूद्रस्य स्मर्यते । श्रवणप्रतिषेधस्तावत् - ’अथ हास्य
वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् ’ इति: ’पद्यु ह वा
एतच्छमशनं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् ’ इति च।

अत एवाध्ययनप्रतिषेधः। यस्य हि समीपेऽपि नाध्येतव्यं भवति, स
कथमश्रुतमधीयीत। भवति च -- वेदोच्चारणे जिह्वावाच्छेदः , धरणे शरीरभेद
इति । अत एव चार्थावर्थज्ञानानुष्ठानयोः प्रतिषेधो भ वति -- ’ न शूद्राय
मतिं दद्यात् ’ इति , द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम् इति च। 
(ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥१.३.३८॥

अर्थात - शूद्र का इस कारण भी अधिकार नहीं है कि मनु स्मृति उन्हें वेद के अध्ययन, वेद-श्रवण और वैदिक विषयों के निष्पादन से भी वर्जित करती है. निम्नलिखित अवतरण के अनुसार उन्हें वेद श्रवण से वर्जित किया गया है.

- जो (शूद्र) वेदों को सुने, उसके कानों मे सीसा और लाख (पिधला हुआ) भर देना चाहिए.
- शूद्र श्मशान (के समान) हैं, इसलिए शूद्रों के निकट (वेदों का) पाठ नही करना चाहिए.

इस प्रकार एक शूद्र के लिए वेदाध्ययन वर्जित है, अतः जब शूद्रों के निकट वेदों का पाठ भी नही किया जा सकता तब भला वह वेदाध्ययन कैसे कर सकता है?(अर्थात नही कर सकता). आगे और भी..

- जो (शूद्र) वेदों का उच्चारण करे उसकी जीभ काट ली जानी चाहिए और जो वेदों को धारण करे उसका शरिर मध्य से चीर दिया जाना चाहिए.

इस प्रकार वेद श्रवण और वेदाध्ययन का निषेध वैदिक विषयों के ज्ञानार्जन का भी निषेध है.

- शूद्र को ज्ञान प्रदान नही किया जाना चाहिए - द्विजों को ही अध्ययन, और दान प्राप्ति का अधिकार है.

इस प्रकार शंकर सामान्य श्रमिको को दर्शन के अध्ययन से रोकने की मनु की व्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए सत्ता पक्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का उत्तम प्रमाण पाठकों के समक्ष रखते हैं. उन सभी अनुच्छेदों को यहाँ उद्धृत करने का कोई औचित्य नही है जिनमें शंकर ने मनु की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक ऐसा स्मृतिकार बताया है जिस पर किसी वेदांती दार्शनिक को निर्भर रहना चाहिए. यहाँ इस बात को छोड़ भी दिया जाए कि इन नियमों की परिणति क्या होती होगी और इनका पालन किस हद तक किया जाता होगा तब भी इन्हें शंकर द्वारा उद्धृत किया जाना भर ही उनकी तथाकथित "मानवता दृष्टि" के सत्तापक्षीय विद्वानों द्वारा प्रायोजित भ्रम की धज्जियाँ उडाता है. हम स्पष्ट देख सकते हैं कि परोक्ष रूप से शंकर के दर्शन का ध्येय मनु के अमानवीय और विद्वेषपूर्ण समाजशास्त्र को बौद्धिक संरक्षण देना ही है. इसक एक ऊदाहरण तब देखने को मिलता है जब सांख्य जो एक भौतिकवादी हिन्दू दर्शन है का उल्लेख करते हुए शंकर कहते हैं कि ...

"मनुना च....सर्वात्मवदर्शनं प्रशंसता कापिलं मतं निन्द् यत इति गम्यते।
कापिलस्य तंत्रस्य वेद विरुद्धत्वं वेदानुसारिमनुवचनविरुद्धत्वं च...।"  
(ब्रह्मसूत्र भाष्य(स्मृत्य धिकरणम् ॥२.११॥))

अर्थात - जहाँ मनु ने ..सर्वात्मत्व दर्शन की प्रशंसा की है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से कपिल के मत की निंदा की है. कपिल का तंत्र वेदों और वेदों का अनुसरण करने वाले मनु के वचनों के विरुद्ध है. जाहिर होता है शंकर के मन में मनु के प्रति सम्मान और सहानुभूति की भावना है जो उन्हें भौतिकवादी दर्शनों की निंदा करने पर विवश करती है और वे निष्पक्ष नही रह पाते. यहाँ से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सांख्य दर्शन जिसके प्रणेता कपिल मुनि थे मूलतः एक अवैदिक दर्शन था. वे अपनी दार्शनिक कृति में लोकायतों के मत का भी खंडन प्रस्तुत करते हैं. पर इन भौतिकवादी दर्शनों के खंडन से पूर्व वे मनु को उद्धृत करना नहीं भूलते जिससे कि पाठक उनके दर्शन की श्रेष्ठता स्वीकारने के लिए तर्कपुर्ण चितंन के पुर्व ही विवश हो जाए.

भौतिकता और प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रति शंकर का दृष्टिकोण

यथार्थ अथवा भौतिकता ही सैद्धान्तिकता की कसौटी होती है. प्रत्येक सैद्धांतिक स्थापना का परीक्षण उसके प्रति व्यावहारिक उपागम को अपनाकर ही किया जा सकता है. शंकर ज्ञान के सभी प्रमुख स्रोतों जैसे तर्क, प्रमाण, व्यावहारिक ज्ञान और कारणता को ख़ारिज करते हैं. ज्ञान के इन स्रोतों की अस्वीकृति उनके भौतिक विश्व और विज्ञान के प्रति उनकी तिरस्कारपूर्ण दृष्टि की एक बानगी उनके सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य में मिलती है. अपने शारीरक-भाष्य का आरम्भ वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कबुद्धि और प्रमाण की उपयोगिता के व्यंगपूर्ण खंडन और तिरस्कार से करते हैं। शंकर किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान की उपेक्षा करते हुए स्वप्न और भ्रम के आधार पर जगत की भौतिकता को असत्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. इस प्रकार वे जगत के प्रति एक अवैज्ञानिक और उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण स्थापित करने का प्रयास करते दृष्टिगत होते हैं. इसी प्रकार तर्क के प्रति उनके रवैये में एक अजीब सा बेतुकापन है. ब्रह्मसूत्र भाष्य में तर्क के प्रति दिए गए उनके कथनों का निचोड़ यह है कि तर्क का कोई उचित आधार नही होता. हर विद्वान दूसरे विद्वान के तर्कों को काट कर नए तर्क स्थिर करता है. इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है. नए तर्क दिए जाते हैं और अंततः वह भी गलत साबित होते हैं. यहाँ शंकर ज्ञान प्राप्ति में संशय की भूमिका को लगभग ख़ारिज करते हुए आस्था को जीवन का आधार बनाने की पूर्वपीठिका तैयार करते दृष्टिगत होते हैं.हम देखते हैं कि व्यावहारिक सत्य की जाँच के लिए तर्क की उपयोगिता को ख़ारिज करने के उपरांत भी वे उतने प्रबल तरीके से आस्था पक्षपोषण नही कर पाते जितने की अन्य भाववादी दार्शनिक करते हैं, वे मायावाद कि व्याख्या मे भी बहुत कुशलता नही दिखा पाते, जबकि यथार्थवादी चिंतन का भी भारत में समृद्ध इतिहास है जिसकी एक बानगी हमें वात्‍स्‍यायन के दार्शनिक ग्रन्थ न्याय-सूत्र में मिलती है. वात्‍स्‍यायन कहते हैं -

"बुद्ध् या विवेचनाद् भावानां याथात्म्योपलब्धिः, यदस्ति यथा च यत्नास्ति
यथा च तत्सर्व प्रमाणत उपलब्ध्या सिध्यति, या च प्रमाणत उपलब्धिस्तद्
बुद्ध् या विवेचनं भावानाम् , तेन सर्वशास्त्राणी सर्वकर्माणि सर्वे च
शरीरिणां व्यवहारा व्याप्ताः। परी़क्षमाणो हि बुद्ध् याऽध्यवस्यति
इदमस्तीति तत न सर्वभावानुपपतिः ।" 
(न्याय सूत्र (४) २/२७)

अर्थात - यह मानना होगा की बुद्धि के द्वारा परीक्षण करके ही वस्तुओं की वास्तविक प्रवृत्ति का बोध होता है. बुद्धि द्वारा परीक्षण और प्रमाण द्वारा वस्तुओं के संज्ञान के सिवा दूसरा कोई अर्थ नही है. प्रमाण द्वारा संज्ञान के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है कि कौन सी वस्तु अस्तित्वमान है और किस प्रकार अस्तित्वमान है या कौन सी वस्तु अस्तित्वहीन है और किस अर्थ में अस्तित्वहीन है. प्रमाणों द्वारा वस्तुओं का ज्ञान ही सभी शाखाओं और जीव धारियों की सभी गतिविधियों एवं व्यवहार का आधार है. सूक्ष्म रूप से वस्तुओं की जाँच पड़ताल करने वाला दर्शनवेत्‍ता बुद्धि के आधार पर ही वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करता है. अतः यह तर्क प्रस्तुत करना निरर्थक है कि बुद्धि से किसी वस्तु का ज्ञान नही होता फिर यदि ऐसा है भी, तो भी इस तर्क का कोई आधार नही है कि वास्तविक जगत अस्तित्व शून्य है.

यहां इस विषय पर चर्चा करना हमार उद्देश्य नहीं है जिन पठकों को इस विषय मे रूची हो वे न्याय सूत्र का पाठन कर सकते हैं, हम इसे यहीं छोडकर शंकर पर वापस लौटते हैं.

शंकर का मानना है की प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियों पर आधारित है इसलिए संवेदन के आधार पर निर्मित होता है, इसलिए यह भ्रम है. कारण तर्क विज्ञान के प्रति अपने मंतव्य रखते हुए शंकर उतने मजबूत तर्क पाठकों के आगे नही रख पाते अथवा नही रखना चाहते जितने कि अन्य भाववादी दार्शनिक जैसे नागार्जुन और बुद्धपालित आदि देते हैं. कहा जा सकता है कि उन्हें इस बात का संज्ञान तो है ही कि अगर वे तर्क से विरोधियों को पराजित नही भी कर पाए तो भी राज्य सत्ता तर्क विज्ञान के पक्षधरों का उपचार करने के लिए के लिए मनु द्वारा बताये मार्गों की व्यवस्था कर ही देगी. उनके तर्कबुद्धि और प्रमाण के अस्वीकरण के लिए दिए गए तर्कों में तथ्य कम व्यंग और पूर्वाग्रह युक्त तल्खी अधिक है. शंकर स्पष्ट घोषणा करते हैं कि तर्क बुद्धि का उपयोग केवल स्मृतिओं (वह भी मनु द्वारा रचित) में लिखे गए सूत्रवाक्यों को सही साबित करने के लिए किया जा सकता है.

शंकर और लोकायत का खंडन

शंकर के लोकायत के विरुद्ध तर्क बहुत ही लचर और बेसिरपैर की आपत्तियों से भरे पड़े है. शंकर लिखते हैं कि-

"नत्वेतदस्ति यदुक्तम- अव्यतिरेको देहादात्मन इति, व्यतिरेक एवास्य
देहाद् भवितुमर्हति, तद् भावाभावित्वात्। यदि देहभावे भावात् देह
धर्मत्वम् आत्मधर्माणां मन्येत -- ततो देहभावेऽपि अभावात् अतद्धर्मत्वमेव
एषां किं न मन्येत? देहधर्मवैलक्षण्यात् । ये हि देहधर्मा रुपादय: , ते
यावद्देहं भवन्ति; प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि देहे मृतावस्थायां न भवन्ति;
देहधर्माश् च रुपादयस्ते यावद् देहं भवन्ति। प्राणचेष्टादयस्तु सत्यपि
देहे मृतावस्थायां न भवन्ति; देहधर्माश्च रुपादयः परैरप्युपलभ्यन्ते, न
त्वात्मधर्माश्चैतन्यस्मृत्यादयः। 
( ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥(३)३/५४॥)

स्वतंत्र अनुवाद की शैली में इसका अर्थ है कि - शरीर और आत्मा की अभिन्नता की बात तर्क संगत नही है. इसके विपरीत शरीर को आत्मा से भिन्न देखना सही है, कारण की अपनी उपस्थिति के बावजूद इसमें अनुपस्थित रहने का गुण विद्यमान है. शरीर के कथित गुण (यहाँ लोकायतियों के कथन की ओर इशारा है ) के रूप में चेतना स्वयं शरीर की उपस्थिति के बाद भी अनुपस्थित रहती है (यहाँ शंकर का तात्पर्य शव से हैं) इस प्रकार शरीर की उपस्थिति के समय आत्मा के जो लक्षण दृष्ट होते हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि ये शरीर के ही गुण हैं, (यह लोकायत मत का मूल आधार है जिसकी ओर शंकर इशारा कर रहे हैं) परन्तु यदि यह बात होती तब यह स्वीकार करने में क्या कठिनाई है कि शरीर की उपस्थिति के बाद भी (शव में) यह गुण (चेतना) अनुपस्थित है तब चेतना को शरीर से अलग क्यों न माना जाए? आत्मा (चेतना) के गुणों और शरीर के गुणों में जो भिन्न्नता दृष्ट होती है उसके आधार पर यह स्वीकार्य है. अतएव जब तक शरीर है तब तक शरीर के गुण रूप रंग आदि दिखाई देते हैं और मृत्यु के बाद शरीर में इच्छा शक्ति और प्राणशक्ति आदि नही दिखाई पड़ते हैं दूसरे लोग इन्हें नही देख पाते इसलिए शरीर के गुणों जैसे रूप रंग आदि के लिए कही गई बात चेतना और स्मृति के बारे में नही कही जा सकती.

हम इस तर्क के आधार कितने सबल हैं इसे जांचने का प्रयत्न करते हैं. जैसा कि जाहिर होता है शंकर का मुख्य तर्क जो लोकयातिओं के प्रति है वह है कि अगर चेतना (जिसे शंकर कई बार स्मृति, इच्छाशक्ति और प्राणशक्ति भी कहते हैं) शरीर का गुण होती तब वह शव में क्यों नही उपस्थित रहती? यह लोकयातिओं के पक्ष का अतिसरलीकरण है जो शंकर कर रहे हैं, यह मूलतः न्याय-वैशेषिकों का तर्क है जो शंकर बिना किसी परिवर्तन के उनसे लेकर लोकायत का खंडन करना चाहते हैं. यह अलग बात है कि इस तर्क से खुद उनकी दार्शनिक विचारधारा जिसके अनुसार "विशुद्ध चित ही सत्य है और जगत भ्रम अथवा माया है" का भी खंडन हो रहा है, क्योंकि यह तर्क उपयोग करने के लिए शंकर को यह मानना होगा कि शरीर जैसी कोई भौतिक वस्तु है और रूप रंग उसका गुण अथवा लक्षण हैं. इस प्रकार स्वयं उनका प्रतिपादित भाववाद असंगतता के भंवर में फंसता नजर आता है, यहाँ उनकी असंगतता जांचना मेरा ध्येय नही है इसलिए मैं अपने मुख्य बिंदु पर लौटती हूँ जो लोकयातितों के प्रति उनके तर्क की सबलता की जाँच करना है ।

शंकर अपने विश्लेषण के आधार पर तर्क करते हैं कि शव में चेतना क्यों नही दिखाई देती. जहाँ लोकायत के अनुयायी चेतना को शरीर (देह) का गुण बताते हैं. वहीं शरीर की जगह शव को रखकर शंकर उनके दर्शन का विकृत रूप पाठकों के समक्ष रखकर लोकायतिओं को गंवार बताते हैं. कटाक्ष करने और प्रतिपक्षी की छवि विकृत करने के अपने उतावलेपन में शंकर इस तथ्य को पूर्णतः विस्मृत करते दृष्ट होते हैं कि लोकायत के विश्वोत्पत्ति विज्ञान में शरीर की परिभाषा क्या है. उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार लोकायत के अनुयायी चेतना की तुलना मद शक्ति से करते हुए अपना मत रखते थे. लोकायत मत के आधारभूत नियमो को समझने के लिए हम यहाँ इस उदाहरण की सप्रसंग व्याख्या करेंगे। जैसा की हम जनते है कि लोकायत मत के अनुसार केवल पदार्थ (भूत द्रव्य) सत्य है और विश्व की अन्य सभी वस्तुओं का उदय (चेतना का भी) पदार्थ से ही हुआ है. शरीर का निर्माण भी उन्ही चार प्रमुख भौतिक तत्वों अर्थात जल, पृथ्वी, वायु और अग्नि से मिलकर होता है. शरीर के निर्माण के लिए विशेष सहकारी कारण की आवश्यकता होती है जैसे की मद्य निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री जुटा कर एक साथ रख देने भर से उनसे मद शक्ति उत्पन्न नही हो जाती उसी प्रकार उपरोक्त चारों पदार्थों को एक साथ रख भर देने से चेतना उत्पन्न नही हो जाती. लोकायत मत के अनुसार यह एक प्रकार का असाधारण रूपांतरण है जो पदार्थ के स्वभाव और रूपांतरण के लिए आवश्यक परिस्थितिओं की अनुकूलता पर निर्भर है. लोकायत मत पदार्थ के असाधारण रूपांतरण की जिस व्याख्या के आधार पर शरीर को परिभाषित करता है उस आधार पर शव को शरीर की संज्ञा नही दी जा सकती. लोकायतिओं के अनुसार भली भांति पोषित शरीर में ही चेतना का विकास होता है. जिस असाधारण रूपांतरण की प्रक्रिया से शरीर में चेतना का निर्माण होता है, शव उस प्रक्रिया के विघटन का उदाहरण है. यह विस्मृत करते हुए शंकर लोकयातिओं के तर्क का अति सरलीकरण करते हैं जो एक दार्शनिक के लिए किसी प्रकार न्याय संगत नही माना जा सकता है. इस तर्क का एक हिस्सा जहाँ यह इंगित करता है कि जहाँ शरीर (लोकयातियों द्वारा उल्लेखित शर्तों के अनुसार) उपस्थित होता है, चेतना उपस्थित होती है वहीँ दूसरी और यह भी विदित होता है कि जहाँ शरीर उपस्थित नही होता वहां चेतना किसी प्रकार भी दृष्ट नही होती इसका कोई एक उदाहरण भी इस संसार में नही दृष्टिगोचर होता है. शंकर तर्क के दूसरे हिस्से पर क्या कहते हैं यह जानना रोचक होगा ..शंकर कहते हैं कि -

" पतितेऽपि कदचिदस्मिन्देहे देहन्तरसंचारेणात्मधर्मा अनुवर्तेरन् "
(ब्रह्मसूत्र भाष्य (३ ) ३/५४ )

अर्थात - देह का पतन होने पर कदाचित कदाचित आत्मा के गुण (जैसे चेतना, स्मृति, अनुभव क्षमता आदि) दूसरे शरीर में संचार से अनुवृत हो सकते हैं (यहाँ शंकर ऐसी संभावना व्यक्त कर रहे हैं). "कदाचित" शब्द यहाँ एक तथाकथित अपूर्व ब्रम्हज्ञानी की हिचकिचाहट का स्पष्ट परिचय दे रहा है. ध्यातव्य तथ्य यह है कि शंकर इसे ढृढ़ता के साथ क्यों नही स्वीकार रहे की मृत्यु के बाद चेतना के गुण दूसरे शरीर में संचारित होते हैं. इसका कारन यह है कि शंकर यह किसी प्रमाण के आधार पर प्रमाणित नही कर पाते इस लिए उन्होंने यह स्पष्ट तरीके से स्वीकार करने मे हिचकिचाहट दिखाई. दूसरी ओर इसी तर्क का दूसरा हिस्सा जिसे शंकर ने अछूता छोड़ दिया वह है शरीर की अनुपस्थिति में चेतना का दृष्टिगोचर होना. शंकर इस पक्ष को भी चालाकी से छोड़ते हुए अपना ध्यान लोकायतिओं को कोसने और अपमानित करने में लगाये रखते हैं. यह उनकी बौद्धिक दुर्बलता का ही परिचय देता है. इसी प्रकार कई जगह उनके तर्क बौद्ध दार्शनिकों से उधार लिए प्रतीत होते हैं. ध्यातव्य हो की शंकर, गौड़पाद के प्रशिष्य थे जिन्होंने अपना अदवैत वेदान्त दर्शन बौद्ध सम्प्रदाय के महायानियों से प्रेरित होकर रचा था. शंकर अपने शारीरक भाष्य में उन्हें "वेदान्तार्थसम्प्रदायविद् भिराचार्येः" (ब्रम्हसूत्र भाष्य ॥२.१.९॥ )कहकर संबोधित करते हैं. शंकराचार्य के तर्कों कि महायानिओं से साम्यता के कारण अनेक लोग शकंर को "प्रच्छन्न-बौद्ध" भी कहते हैं.

आज के विज्ञान सम्मत युग में ज्ञानयुक्त तर्कपरक चिन्तन अपनी सबल उपस्थिति दर्ज करा रहा है, धीरे-धीरे अंधविश्वासों और अज्ञानता का उन्मूलन हो रहा है इन सब के मध्य एक पुनरुत्थानवादी आग्रही लेखकों का तबका ऐसा भी है जो पुरातन ज्ञान और दर्शन की आड़ लेकर अंधविश्वासों, अज्ञानता और व्यक्तिगत भाववादी अनुभवों के फलस्वरूप उत्पन हुए भ्रम को सत्य के रूप में स्थापित करने के कुत्सित प्रयास मे लिप्त हैं. इन लोगों की स्पष्ट मान्यता है कि विज्ञान को आंकड़ों की गणना और पूंजीपति वर्ग के हितों तक सीमित रहना चाहिए. विज्ञान कोई जीवन दर्शन नहीं देता उसे समकालीन समाज में फैली रुढियों/अंधविश्वासों से बचते हुए ही अपना कार्य करना चाहिए. समाज विरोधी पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे विज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा को दूषित करने के दो तरीके अपनातें हैं - प्रथम तो विज्ञान की रहस्यात्मक भ्रमपूर्ण व्याख्या और द्वितीय विज्ञान पर मानवता विरोधी होने का आरोप. वहीं दूसरी ओर अन्धविश्वास और जड़पंथी विचारधारा को समकालीन समाज में स्थापित करने के लिए वे इसी विज्ञान का सहारा लेते हैं और सदियों पूर्व भी जिन अंधविश्वासों को हमारे पूर्वज पूर्णतया ख़ारिज कर गए थे उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएं करते हैं. इन दोनों प्रवृत्तियों के जवाब के लिए इतिहास की विज्ञानवादी विचारधारा का सामने आना जितना आवश्यक है, उतनी ही जरुरत इस बात की है कि वैसे दर्शन और दार्शनिक जो भ्रमपूर्ण चिन्तन और आस्था का प्रचार करते थे उनकी वास्तविकता जनता के समक्ष रखी जाए. आज आवश्यकता उन सम्प्रदायों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार की है जिन्होंने जन-सामान्य का पक्ष लेते हुए शासक वर्ग द्वारा जबरदस्ती थोपे गए दर्शन को नकारा था. अन्धविश्वास और जड़मति विचारों की एकमात्र (और संभवतः सबसे मजबूत भी) जगह इतिहास ही है, अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी विचारधाराओं का पुनर्मूल्यांकन किया जाए जिससे विज्ञानवादी सोच को बढ़ावा दिया जा सके और भ्रमों को सत्य की तरह स्थापित करने की प्रवृत्ति को मुँह-तोड़ जवाब दिया जा सके. यह सच है की ऐसा करने के लिए अधिसंख्यक की आस्थाओं के विरुद्ध जाना होगा परन्तु यह ध्यान रखा जाना चहिए कि वस्तुगत सत्य जो भ्रम से मुक्त करने की कुव्वत रखता है, आस्थाओं के विपरीत ही होता है. अब तय मनुष्य को करना है कि उसे निरपेक्ष दृष्टि और सापेक्ष विश्लेषण जनित वास्तविकता का ज्ञान चाहिए या फिर भ्रम आच्छादित आस्था का फलक? आस्थाओं के चोटिल होने के भय के कारण अगर सत्य पर भ्रमों का पर्दा पड़ा रहा तो यह प्राचीन भारतीय विज्ञानियों के साथ अन्याय होगा. अधिसंख्यक जनता के मध्य भ्रमपूर्ण परिदृश्य के निर्माण को रोकने के लिए यह जितना आवश्यक है की भारतीय दर्शन की विज्ञानवादी धारा का प्रचार प्रसार किया जाए उतना ही आवश्यक यह भी है की भारत के बौद्धिक विकास में बाधक विचारों और विचारकों की समीक्षा विज्ञानवादी दृष्टि से की जाए. एवं उनके कुत्सित मंतव्यों को जनता के समक्ष रखा जाए.
- लवली गोस्वामी

Monday, December 19, 2011

इतिहास का डूबता सूरज...

देखो इतिहास का सूरज
डूब रहा है
समय की घाटी में
देवता
धर्म की किताबों में
जा छुपे हैं
महापुरुष
गमलो में
उगने की तैयारी में हैं
घरों की दीवारों पर
चढ़ते मनीप्लांट
अमरबेल में बदल गए हैं
ज़ेहन की दीवारों पर
काई जम आई है
शास्त्रों के साथ
दियासलाई रखी है
महान मस्तिष्क
बह गए वेश्यालय के बाहर
पेशाबघरों में
सच की रात
छा रही है
सच जो काले हैं
अंधेरे से
रोशनी जो झूठी थी
खत्म हो गई है
हमारे समय के सच
व्याभिचारी बूढ़े से
घिनौने
आज़ादी से अश्लील
लोकतंत्र से
तानाशाह
गाभिन पागल महिला से
विद्रूप
ही तो हैं
आओ चलें कूद जाएं
समय की नदी में
इतिहास के
डूबते सूरज के साथ

मयंक सक्सेना

Friday, April 22, 2011

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

( इस ब्लॉग की सदस्या लवली गोस्वामी का यह महत्त्वपूर्ण आलेख समयांतर के मार्च २०११ के अंक में ‘भारत में विज्ञान’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां उस आलेख का मूल प्रारूप साभार प्रस्तुत किया जा रहा है। - मोडेरेटर )

भारत में विज्ञान का एक समृद्ध इतिहास रहा है। कई आधुनिक विद्वान ऐसा प्रचार करते हैं कि भारत में समस्त चिंतन धर्म केन्द्रित रहा है और प्राचीन भारत में विज्ञान के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। परन्तु रसायन विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र और गणित ज्योतिष के उपलब्ध ग्रन्थ इस बात को सिरे से ख़ारिज करते हैं। वहीं कई विद्वान इस मत का समर्थन करते भी नजर आते हैं कि विज्ञान मूलतः वैदिक (प्रकारांतर से उपनिषद) दर्शन के संरक्षण में फला फूला है, (यह उक्ति गणित ज्योतिष के लिए अंशत: सही हो सकती है) ये दोनों ही बातें कल्पना मूलक हैं।

अब प्रश्न यह उठता है की भारतीय विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य आज हमें जिस रूप में उपलब्ध है, वह प्रथम दृष्टया अपने उपलब्ध रूप में उपरोक्त दोनों मतों की पुष्टि करता सा प्रतीत होता है। फिर सत्य का अन्वेषण किस प्रकार किया जाए ? क्या विज्ञान के विशुद्ध परलोक विरोधी भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मायावादियों को भयभीत नहीं किया होगा ? यदि हाँ तो इसका विज्ञान पर क्या प्रभाव हुआ ? विज्ञान जो पूर्णतः एक भौतिकवादी विषय है, क्या अपने शुद्ध परलोक विरोधी और जनपक्षीय विचारधारा के कारण विज्ञान राज्य पोषित भाववादियों में मान्य हुआ होगा ? हम जानते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ ही कार्य-कारण के बीच स्पष्ट सम्बन्ध का अवलोकन होता है। फिर प्रश्न यह है कि वेदान्त विरोधी दृष्टिकोण के साथ विज्ञान किस प्रकार उत्कर्ष पर पहुंचा। उसमें वेदान्त के तत्व कैसे आए ? प्रारंभिक उत्कर्ष के बाद उसके पतन की क्या वजहें थी ? आज जो विज्ञान विषयक ग्रन्थ हमें उपलब्ध है, वे किस सीमा तक अपने मूल स्वर में हैं ? कई प्रश्न उठते हैं, जिनका उत्तर देने का प्रयास इस लेख में आगे किया गया है।

आज जो विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य हमें उपलब्ध है, उस पर विज्ञानेतर विचारों और मतों का उबा देने वाला घालमेल किया गया और कई ऐसे क्षेपक जोड़े गए जो उसके मूल स्वर से एकदम भिन्न और हा्स्यास्पद होने की प्रतीति देते हैं। परन्तु इन ग्रंथों का बुद्धिपूर्वक और सतर्क अध्ययन हमें हमारे पूर्वजों की वस्तुपरक और भौतिकवादी धारणा का स्पष्ट परिचय देता है। इस कथन के पक्षपोषण के लिए अब आगे हम उपलब्ध प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों के मूल स्वर का भौतिक वादी विचार धारा से पोषित होने का का प्रमाण देंगे।

सर्वप्रथम प्रश्न उत्‍पन्‍न होता है, कि प्राचीन भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारा तात्पर्य क्या होना चाहिए। हम जानते हैं कि‍ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ विशुद्ध तात्विक दृष्टिकोण है, जिसमें कारण और परिणाम के मध्य संबंधों के अध्ययन का स्पष्ट विवेचन किया जाता है । प्रकृति, पृथ्वी और मनुष्य के उत्पति के सम्बन्ध में दी गई व्याख्याओं में प्रत्यक्षता को सर्वोपरि रखा जाता है । अब अगला प्रश्‍न यह है कि वैदिक दर्शन में तर्क और जगत की भौतिकता को क्या स्थान प्राप्त है। इस प्रश्न के स्पष्ट विवेचन से ही हमें विज्ञान के मूलाधार का परिचय प्राप्त हो सकता है।

वेदान्त में भौतिकता का स्थान

प्राचीनतम उपलब्ध वैदिक साहित्य ऋग्वेद है। इसमें भाववादी दर्शन के चिन्ह स्पष्ट नहीं हैंयह अपेक्षाकृत सरल धर्म संक्रमणात्मक गोत्रीय जनजाति सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। इसमें यज्ञ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भेंट और बलियाँ देने पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। इसमें मंदिरों का भी उल्लेख नही मिलता। ऐसी प्रतीति होती है कि यज्ञ घर में ही अथवा किसी खुली जगह पर विशेष वेदिका बनाकर किए जाते थे । प्रतिमाओं का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नही है। यह ग्रन्थ मुख्यतः आदिम मनुष्यों के सामूहिक दैनिक जीवन संबंधित कार्यों का उल्लेख करता है जो आज के आधुनिक विद्वानों के लिए आदि पूर्वजों की जीवन शैली और उनके कार्यकलापों को समझने की कुंजी बना हुआ है ।

कहा जा सकता है कि ऋग्वेद कहीं से भौतिकता का विरोधी नहीं प्रतीत होता. भौतिकता विरोधी भाववादी दर्शन की पहली झलक हमें उपनिषद काल में मिलती है. इस समय राज्य सत्ता भी पूर्ण गति से परिपक्वता की ओर अग्रसर थी और राज्य की सत्ता को अक्षुण रखने के लिए सामान्य जनता को परलोक, आत्मा के अस्तित्व , मृत्यु के बाद जीवन, संसार की भौतिकता ( प्रकारांतर से सामाजिकता) और सामाजिक सरोकारों के प्रति घृणा, आदि पर विश्वाश के लिए प्रेरित किया जा रहा था। इसी काल में सभी पुरातन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त ग्रंथो पर भाववादी मत थोपने का प्रयास किया गया। लेख में हम आगे देखेंगे कि इस कार्य में राज्य के संरक्षक/विचारक कितने सफल रहे । इस तथ्य को उद्धृत करने के पीछे मेरा मंतव्य सिर्फ भाववाद से राज्य सत्ता के सम्बन्ध की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का था।

उपनिषद काल के प्रमुख वेदांती दार्शनिकों ने जगत की भौतिकता को निरर्थक बताने के लिए मुख्यतः दो युक्तिओं का प्रयोग किया है - तर्क बुद्धि, प्रमाण और प्रत्यक्ष ज्ञान (प्रकारांतर से भौतिकता) की अस्वीकृति एवं कार्य-कारण सिद्धांत का खंडन जो विज्ञान का आधार भी है। उपरोक्त कथन के सत्यापन के लिए हम आगे औपनिषद काल के कई प्रसिद्द राज्य पोषित वेदांती दार्शनिकों का इस विषय पर विचारों का विवरण प्रस्तुत करेंगे।

प्रसिद्ध भाववादी विद्वान शंकर का दर्शन जिसे शारीरक नाम से संबोधित किया जाता है एक प्रखर भौतिकता विरोधी दर्शन था। "शारीरक" (वि० [सं० शरीर+कन्-अण्]) संज्ञा में औपनिषद दर्शन का जो परिचय मिलता है वह संसार और भौतिकता के प्रति उनके दृष्टिकोण की स्पष्ट घोषणा है। शारीरक शब्द शरीर शब्द से बना है जिसमे कन् प्रत्यय लगाया गया है, इस प्रत्यय से अपकर्ष का बोध होता है। इसी प्रकार शारीरक शब्द से दोष से भरे शरीर का बोध होता है। वेदान्त (उपनिषद) दर्शन के लिए इस नामकरण का कारण यह है कि शुद्ध चित्त अथवा आत्मा शरीर रूपी दूषित कारा में कैद होती है और मृत्यु मुक्ति है। यह इस दर्शन का मूल स्वर है. यह दर्शन मृत्यु को महिमंडित करता है और ज्ञान के सभी भौतिक स्रोतों को अस्वीकृतइसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैंयाज्ञवल्क्य जो एक प्रमुख वेदांती दार्शनिक थे, बृहदारण्यक उपनिषद (बृहदारण्यक उपनिषद () ४२ ) में इस दर्शन के मूल स्वर को एक मरणासन्न व्यक्ति के स्पृहणीय वर्णन द्वारा प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि उनका मत था कि वह मरता हुआ व्यक्ति शरीर के बंधन से उत्तरोतर छुटकारा प्राप्त करता जा रहा है। यह एक आग्रही विद्वान का जगत की भौतिकता और संसार के प्रति अवहेलना की दृष्टि का स्पष्ट प्रमाण है

अब हम तर्क विद्या के प्रति इन दार्शनिकों की घृणा पर दृष्टिपात करते हैं। अद्वैत वेदांत दार्शनिक शंकर स्पष्ट लिखते हैं की तर्क-वितर्क द्वारा तत्व ज्ञान होना असंभव है, तर्क की सार्थकता सिर्फ इतनी है कि उसका उपयोग धर्म शास्त्रों में लिखी गई बातों को सत्य सिद्ध करने के लिए किया जाएइन्ही विचारों के कारण शंकराचार्य ने तर्क, प्रमाण और अनुभवजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान को अविद्या की श्रेणी में रख छोड़ा है (शंकर अध्याय - भव्य)। यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है, शंकर निर्विवाद रूप से प्रतिभाशाली थे। वे सांसारिकता को सिरे से खारिज करने के स्थान पर लौकिकता को स्थान देते हुए पारलौकिकता को सर्वोच्च सत्य बताते हैंयह उनकी दूरदर्शिता ही दर्शाता है, परन्तु फिर भी वे भाववाद को अपने दर्शन से निकाल नही पाते और अंततः भौतिकता का अस्वीकरण करके पारलौकिकता को एकमात्र सत्य के रूप में स्थापित कर जाते हैं

वहीं दूसरी ओर प्राचीन नीतिशास्त्र के रचयिता मनु ने तर्क विद्याविदों के विरुद्ध कठोर क़ानूनी नियम लागू करने को कहा है. उन्होंने स्पष्ट घोषणा की है कि किसी भी व्यक्ति को इन नास्तिकों (पाखंडी:), वर्णधर्म/वेद विरुद्ध आचरण करने वालों (विकर्मस्थ:), पाखंडियों (वैडाल वृतिकों) और हेतुकों (तर्क शास्त्रियो) से बात तक नही करनी चाहिएयहाँ ध्यातव्य है कि स्मृतिकार मूलतः उस वर्ग से सम्बंधित है जिसकी पहुँच सत्ता प्रतिष्ठान तक है, और राज्य सत्ता के दबाव के कारण जनसामान्य उनके द्वारा निर्मित नियमो को मानने के लिए बाध्य है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस स्थान पर हम भाववादी/मायावादी दर्शनवेत्‍ताओं और स्मृतिकारों को वैचारिक स्तर पर एक साथ देख सकते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि स्मृतिकार तर्क में विश्वाश न करने की बात को राजाज्ञा की तरह "घोषित " करते हैं और दार्शनिक तत्व मीमांसक तर्क करने वालों के प्रति निंदा की भावना को पुष्ट करने का पूर्वाग्रह ग्रसित दार्शनिक आधार खोजते हैं।

संक्षेप में कह सकते हैं कि उपनिषद दर्शन को पूर्ण रूप से राज्याश्रय प्राप्त था और राज्य अपनी सत्ता के संरक्षण हेतु जनसामान्य को भ्रमित करने और अन्धविश्वाश के सृजन के लिए कटिबद्ध था। जहाँ एक तरफ इसके लिए उसने धर्मशास्त्रियों/विचारकों से भौतिकवादी तर्कशास्त्रियों का सामाजिक/वैचारिक बहिष्‍कार करवाया वहीं दूसरी ओर नीतिशास्त्रियों ने तर्कशास्त्रियों के लिए नैतिक आचार संहिता के उलंघन के अपराध में दंड की व्यवस्था की। यह तथ्य उपनिषद दर्शन के भौतिकता विरोधी और प्रकारांतर से जनविरोधी होने का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है।

चिकित्सा विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य

अब हम प्राचीन विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य देखते हैं। चिकित्सा विज्ञान के दो प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ आज हमारे पास उपलब्ध हैं - चरक संहिता और सुश्रुत संहिता। चरक संहिता में जो चिकित्सा पद्धति है, वह द्रव्य/औषध और अन्नपान पर आधारित है। शल्य चिकित्सा की आवश्यकता केवल कुछ ही स्थानों पर बताई गई है। इसके विपरीत सुश्रुत संहिता मुख्यतः शल्य चिकित्सा पर बल देती है। इन दोनों संहिताओं में प्राचीन चिकित्सकों द्वारा दिए गए कथनों में पर्याप्त विरोधाभाष है जैसे एक स्थान पर लिखा है - देवगोब्राह्मणगुरुवृद्ध सिद्धाचार्यानचेत् (चरक संहिता iv.4.12) अर्थात देवता, गौ, ब्रह्मण, गुरु, सिद्ध पुरुष तथा आचार्य की पूजा करनी चाहिए। पर वहीं दूसरी ओर चिकित्सकों द्वारा एक अन्य परिच्छेद में गौ मांस को भक्षण योग्य खाद्य पदार्थ में रखा गया है और पुष्टिकारक बताया गया है।

ग्व्यं केवलवातेषु पीनसे विषमज्वरे। शुष्ककासश्रमत्य अग्निमांसक्षयहितं च तत्॥
(सुश्रुत संहिता i.४२.३ काशी संस्कृत सीरिज संस्करण)

अर्थात गौ का मांस केवल वातजन्य रोगों में, पीनस रोग में, विषम ज्वर में, सूखी खांसी में, परिश्रम वाले कार्य करने पर, भस्मक रोग में, मांसक्षयजन्य रोग में लाभप्रद होता है। एक अन्य प्रसंग ब्रह्मचर्य का है। जहां एक ओर चरक संहिता ब्रह्मचर्य को मोक्ष के एकमात्र मार्ग की तरह बताती है, वहीं दूसरी ओर पूर्णतः भौतिकवादी दृष्टि से वाजीकरण नाम के अध्याय में, जो चार उप अध्यायों में बँटा है संभोग क्षमता बढ़ने के लिए रसायन सेवन का निर्देश देती हुए स्पष्ट स्थापना देती है की "प्रकामं च निषेवेत मैथुन शिशिरागमे..". यह और इस तरह के कई उदाहरण हैं जिससे साफ जाहिर होता है की इन ग्रंथों की रचना करने वाला कोई भाव वादी तो नही ही हो सकता है। 

कालांतर में इस ग्रन्थ की उत्पति वेदान्त से बताने के लिए इनपर बलपूर्वक औपनिषद दर्शन को थोपा गया है। इस ग्रन्थ का मूल स्वर पूर्णतया भौतिकवादी है जिसपर भाववाद का मुल्लमा चढ़ाने की व्यर्थ कोशिशें की गई हैजहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की - शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीर मूलश्व पुरुषो भवती - अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष हैयहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की यह पुरुष कोई प्रत्यय नही है, सुश्रुत संहिता स्पष्ट उल्लेख करती है की यह पुरुष पंचभूतों से बना हुआ है, जो स्पष्टवक्ता आद्य भौतिवादियों लोकायतों के मत से मिलता है।

यहाँ उल्लेखनीय है की लोकायतों का स्पष्ट मत था - पृथिव्यापस्तेजो तत्वानि, अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार ही तत्व हैं, और "भूतान्येव चेतयन्ते.." अर्थात ये चार भूत ही चेतना पैदा करते हैंये भौतिकवादी दार्शनिक शरीर को ही आत्मा मानते थेहमारे प्राचीन चिकित्सक जहाँ रोगों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने इसके लिए "देव व्यापाश्रय भेषज " के स्थान पर "युक्ति व्यापाश्रय भेषज " को महत्व दियायुक्ति ( तर्कपूर्ण निर्णय ) को चिकित्सा का आधार बताया। वहीं पूरे वेदान्त दर्शन में दर्शनशास्त्र की निंदा और स्मृतियों में तर्क की निंदा और तर्कशास्त्रियों के बहिष्कार और दंड की घोषणाएं की जाती रहींरोग की मुक्ति को कर्म सिद्धांत के विरुद्ध देखा जाता था, इस कारण चिकित्सा कर्म में लगे व्यक्तियों की निंदा करने में उपनिषद रचयिता बढ़-चढ़ कर लगे रहेयजुर्वेद में चिकित्सा कर्म में लगे मनुष्यों की निंदा की गई। आगे इस प्रक्रिया में आपस्तंब गौतम से लेकर कुल्लूक भट्ट जैसे परवर्ती भाववादी व्याख्याकारों तक सभी ने अपनी पूर्ण प्रतिभा का प्रदर्शन किया

प्रारम्भिक वेदांत साहित्य अर्थात वेद में चिकित्सक का स्थान

यहाँ एक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है की ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की उनकी चिकित्सा कौशल के लिए भूरी भूरी प्रशंसा की गई है और अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण अंश चिकित्सा विद्या से सम्बंधित हैइसमें मुख्यतः तंत्र मंत्र और टोने-टोटकों का उल्लेख है. यह किस प्रकार संभव हुआ होगा इसका उत्तर बहुत ही साधारण है जैसा की पहले उल्लेख किया जा चूका है प्रारंभिक ऋग्वैदिक काल में राज्य व्यवस्था का उदय नही हुआ था और इस कारन भाव वादी दर्शन का कोई स्पष्ट प्रभाव इन प्राचीन ग्रंथो में नही दृष्टिगोचर होतायह मुख्यतः यजुर्वेद के काल से आरम्भ हुआ, अब जिन अश्विनी कुमारों की स्तुति की गई थी उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाने लगा, उन्हें "देवता " के पद से पदच्युत कर दिया गया। यह उस व्यापक सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन का परोक्ष प्रमाण है जो राज्यसत्ता और मायावाद (भाव वाद ) की उत्पति से विज्ञान के विरोध को प्रमाणित करती हैयह तथ्य शासक वर्ग का भौतिक वादी विचार धारा से विरोध भी, अप्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करता है।

राज्य सत्ता के उदय के साथ दृश्य बदलता है, जहाँ आदिम चिकित्सकों (अश्विनी कुमारों) के चिकित्सा कौशल की प्रशंसा की जाती थी, वह निंदा में बदलती हैराज्य का उदय चिकित्सकों के प्रति, जो जनसामान्य के हितैषी और कर्म फल और पूर्व जन्म की भाववादी व्याख्या के विरुद्ध थे, घृणा का नया अध्याय खोलता हैस्मृतिकार, धर्म शास्त्रकार यह घोषणा करते हैं कि यह कार्य केवल अंत्यजो को करना चाहिए, वैदिक विचारधारा के समर्थकों को चाहिए की जिस भूभाग में उनकी संख्या अपरिमित हो यह पेशा अपनाने की किसी को सुविधा न दी जाए

इस प्रकार अथर्ववेद का अंश मुख्यतः इस विद्या का आरंभिक रूप माना जा सकता हैअथर्ववेद के समय चिकित्सा का जो तरीका प्रचलित था वह बहुत ही पिछड़ा एवं टोने टोटके पर आधारित थावे लोग समाज के आदिम चरण में रह रहे थे और तत्कालीन उपलब्ध ज्ञान के आधार पर रोगों के निवारण के लिए टोने टोटके जादू और तंत्र मंत्र पर आश्रित थेअथर्ववेद में जिन औषधियों की चर्चा मिलती है वे मुख्यतः शत्रु द्वारा किये अथवा कराये गए जादू टोने से रक्षा हेतु ताबिजो (रक्षा कवचों )के रूप में उपयोग किये जाते थेयह मुख्यतः इस तथ्य को प्रमाणित करता है की चिकित्सा कर्म उन दिनों अपने पुरातन स्वरुप में था और उन आदिम पूर्वजों में जादुई - धर्मिक क्रियाकलाप के रूप में प्रचलित थायह जादू टोना मुख्यतः आदिवासी समाज का गुण माना जाता है

इस ग्रन्थ में आयुर्वेद की प्राचीनतम जड़े मिलने के कारण ही, इसे वेद समूह का अंग मानने से श्रेणीबद्ध समाज के चिंतकों ने इंकार कियापरवर्ती काल के ब्राह्मण ग्रंथो ने भी वेदत्रयी को ही प्रतिष्ठा दी, अथर्ववेद को घृणा की दृष्टि से देखातैत्तिरीय संहिता में भी ऋक् (ऋग्वेद ), सामन् (सामवेद ) , यजु: (यजुर्वेद) का ही उल्लेख हैशतपथ ब्रह्मण की भी यही स्थिति है या तो इसे घृणा से देखा गया है या फिर इसका उल्लेख जरुरी नही समझा गयावर्णाश्रम व्यवस्था के पोषकों ने भी अथर्ववेद को वेद मानाने से सिर्फ इसलिए इंकार किया क्योंकि चिकित्सा शास्त्र की जड़े उस तक जाती थीजिस चिकित्सा कर्म को इस वेद में स्थान दिया गया, वही इसके श्रेणीबद्ध समाज में असम्मान का कारण बना

वेदांत दर्शन में इसकी अवमानना इस हद तक बढ़ आई की जब मध्यकाल में भारतीय दर्शन विषयक सर्वमत संग्रह तैयार हुआ तो उसमे स्पष्ट घोषणा की गई कि जो व्यक्ति अथर्ववेद में आस्था रखेगा वह वैसे ही अनादर का भागी माना जायेगा जैसा की नास्तिक या भौतिकवादी माने जाते हैंइस ग्रन्थ में चावार्कों के सन्दर्भ में यह बात कही गई है कि चावार्कों के अनुसार अथवर्वेद और गांधर्व वेद ही वेद माने जाने चाहिएवहीं दूसरी और नास्तिकों द्वारा अनुमोदित होने के कारण इस वेद को परवर्ती वेदांती व्याख्याकारों ने घृणा की दृष्टि से देखा और इसकी अवमानना की

अथर्व वेद के सम्मान के पतन का यह प्रकरण दो तथ्यों को प्रमाणित करता है, नास्तिकों द्वारा अनुमोदित की गई हर कृति को मायावादियों ने या तो नष्ट कर दिया और जिन्हें नष्ट करना संभव न हो सका उन्हें भाव वादी विचारधारा में प्रक्षिप्त करने तथा उनकी अवमानना की घोषणा का पूर्ण प्रबंध कर दियासम्पूर्ण उपनिषद साहित्य में एक भी ऐसे ऋषि का नाम नही मिलता तो चिकित्सक हो और विद्या शाखाओं में जिन विद्याओं को प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था उनमे आयुर्वेद का नाम नदारद हैज्यों-ज्यों राज्य पोषित वर्ण व्यवस्था सुदृढ होती गई चिकित्सा शास्त्र के प्रति घृणा बढ़ती गई भौतिकवाद को बलपूर्वक नष्ट किया जाता रहा और इसके परिणाम स्वरुप विज्ञान का पूर्ण विनाश हो गयाआयुर्वेद आचार्यों का मानना था की मनुष्य का शरीर उसी सूक्ष्म विश्व का प्रतिनिधित्व करता है जो पंच महाभूतों से निर्मित है, और रोगों का कारण इन्ही आधारभूत द्रवों में असंतुलन की स्थिति हैवे लोग स्पष्ट घोषणा करते हैं कि युक्तिपरक चिकित्सा से ही रोगमुक्ति संभव है और प्रत्यक्षता को वे ज्ञान प्राप्त करने के साधन के रूप में गिनाते हैं।

यहाँ बार बार उपनिषद दर्शन से तर्क और प्रत्यक्ष ज्ञान के विरोध को दोहराने की आवश्यकता नही रह जाती। आधुनिक विद्वान वेदान्त से आयुर्वेद की उत्पति बताते समय इस तथ्य को विस्मृत करके अपनी जनविरोधी मानसिकता का परिचय देने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। इसी कारण किसी प्राचीन स्रोत ग्रन्थ के अध्ययन के लिए नीर क्षीर का विवेक अत्यंत आवश्यक है, ग्रंथ के मूल के साथ जो संसोधन किये गए हैं उन्हें ध्यान में रखना ही एकमात्र सूत्र है जो हमें प्राचीन भारत में विज्ञान और उससे भौतिकवाद के सम्बन्ध का स्पष्ट परिचय दे सकता है और प्राचीन भारतीय विज्ञान एवं चिंतन पर लौकिकता विरोधी होने के दाग को धो सकता हैइन स्रोत ग्रंथो में ऐसे कई विरोधाभास भरे पड़े हैं, इन सब पर एक एक कर लिखने की न आवश्यकता है न ही प्रासंगिकता।

आधुनिक खोजकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है की प्राचीन चिकित्सा सम्बंधित स्रोत ग्रन्थ चरक संहिता के रचयिता चरक कोई एक मनुष्य न होकर प्राचीन भारत का एक घुमंतू (भ्रमणशील) संप्रदाय था (जिन सुधि पाठकों को इस विषय में रूचि है वे देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय कृत ग्रन्थ Science and Society in Ancient India का अध्ययन कर सकते हैं)। यह मान्यता इस आधार पर भी सटीक है की अथर्ववेद के एक लुप्त संशोधित संस्करण को चारण वैद्य कहा जाता थाचरक संहिता के उपलब्ध रूप में उसके इतिहास पर दी गई जानकारी के अनुसार एक प्राचीन वैद्य का नाम आता है जो वैज्ञानिक विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पित थाभरद्वाज नामक ऋषि मूलतः एक स्वभाव वादी थे, चरक संहिता भी मूल रूप से द्रव्यों के स्वभाव का अध्ययन करती है। यह स्वभाववाद मुख्यतः इन्ही भौतिकवादी लोकयातियों का मत माना जाता है.इस प्रकार इस तथ्य में कोई संदेह नही कि प्राचीन चिकित्सक मुख्यतः भौतिकवादी थे जिनका वैदिक परम्परा से कोई सम्बन्ध नही थाफिर प्रश्न यह उठता है की ये भौतिकवादी कौन थे ? उनका मूलस्थान क्या था ? इस प्रश्न का उत्तर हम आगे देखेंगे।

तंत्र में देहवाद , भौतिकता और विज्ञान

जिन क्षेत्रों में भाववादी दर्शन और ब्रह्मणवाद का प्रभाव कम था वहां मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न और संसार के उत्पति के प्रश्न को सुलझाने का काम तर्क द्वारा हुआ हैइस तथ्य को प्राचीन भारतीय दर्शनों में से एक सांख्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। हम सब जानते हैं कि शंकर ने सांख्य को अवैदिक मत बताया हैप्राचीन परम्परा के अनुसार सांख्य कपिल के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। कपिल इस देश के उतरी क्षेत्र अर्थात बंगों, मागधों और चेरों के क्षेत्र के रहने वाले थे और यह स्थान गंगा सागर जाने वाले मार्ग पर थाकपिल का ग्राम कपिलवस्तु भारत के उत्तरपूर्व में हैं, इसी क्षेत्र में तंत्र वाद के अवशेष आज तक विद्यमान हैंसांख्य तंत्रवाद का विकसित रूप हैइस तथ्य का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया की आगे जब हम तंत्रवाद से विज्ञान के सम्बन्ध का विवेचन करेंगे तो विज्ञान के आधार विचारों को जानने में और उसमे निहित मूल विचारधारा को समझाने मेंमें आसानी होगी

इसी क्रम में सबसे पहले हम भारत में रसविद्या (रसायन शास्त्र ) से तंत्रवाद के सम्बन्ध का अवलोकन करते हैं। "ब्रह्मांडे ये गुणा: संति ते तिष्ठान्ति कलेवरे ..." अर्थात मानव देह सूक्ष्म ब्रह्मांड है। यह निष्कर्ष तंत्रवाद का हैइनके मत को देहवाद इस कारण कहा जाता है क्योंकि इन्होंने देह से इतर किसी सत्ता के अस्तित्व को नाकारा हैशरीर में इसी रूचि के कारण भौतिकवादी विज्ञान में योगदान करने में सफल हो पाए जैसे रसायन विज्ञान , आयुर्विज्ञान विज्ञान आदिजबकि देह की उपेक्षा के कारन भाववादी शरीर रचना ज्ञान एवं द्रव्य ज्ञान के प्रति उदासीन बने रहेयहाँ यह तथ्य ध्यातव्य हो कि भारतीय रसायन विज्ञान के पौराणिक ग्रन्थ इन्ही प्राचीन भौतिकवादियों के लिखे हुए हैं।

रसायन शास्त्र की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ईसवी सन की आठवीं शताब्दी का है जिसका नाम है रसरत्नाकरविद्वानों ने ऐसे और भी कई ग्रंथो की सूचि बनाई है जिनमे रसरत्नाकर, रसाणर्व, काक चन्देश्वरी मततंत्र, रसेन्द्रचिंतामणि आदि हैं। तांत्रिक रसविज्ञानियों ने न केवल रसायन के ये सुप्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे बल्कि उन्होंने वास्तविक प्रयोगशालाओं में कई यंत्रों का अविष्कार भी किया जैसे दोल यंत्रम, स्वेदनी यंत्रम, पातन यंत्रम, धूप यंत्रम , कोष्ठी यंत्रम, विद्याधर यंत्रम, तिर्यक पातन यंत्रम आदि हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है की तांत्रिक रस विज्ञानियों ने न केवल इनका अविष्कार किया वरन इनके उपयोग को सैद्धांतिक रूप भी दिया और यह स्पष्ट घोषणा भी की - उपरोक्त प्रयोग मैंने अपने हांथो से किये हैं, ये केवल सुनी सुनाई बातो को आधार बना कर नही लिखे गए हैं और इनका उपयोग जन कल्याण के लिए किया जायेगा (History of chemistry in ancient and medieval India - लेखक - Priyadaranjan Rây, Prafulla Chandra Rāy)। इस वाक्य से दो बाते स्पष्ट होती है प्रथम तो यह की प्रयोगकर्ता तांत्रिक ने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखे हैं, द्वितीय इस वाक्य में उसकी जनता के प्रति सेवा भाव और प्रतिबद्धता का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है

हम जानते हैं कि भारत में मायावादियों/प्रत्यय वादियों के विरुद्ध और पदार्थ से जगत की उत्पति के सिद्धांत के समर्थक मुख्यतः तीन मतावलंबी थे। प्रथम लोकायत मत के प्रतिनिधि जो बाद में चार्वाक के नाम से प्रसिद्द हुए। वे न तो अदृष्ट में विश्वाश करते थे न ही भौतिक विश्व से अलग किसी परलोक को मान्यता देते थे। यह एक पूर्णत भौतिकवादी सिद्धांत है जिसके अनुसार चार तत्व (भूत ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु से पूरे संसार की रचना हुई बताई जाती हैये उनकी स्पष्ट मान्यता थी की मानव शरीर का निर्माण भी संसार की तरह इन्ही चार महाभूतों से होता है। द्वितीय, प्रधान अथवा प्रकृति का सिद्धांत, यह सांख्य मत के नाम से प्रसिद्ध है जो अवैदिक और लोकायत की अपेक्षा सुस्पष्ट तरीके से भारतीय भौतिकवादी चिंतन प्रणाली के अनुरूप है। आधुनिक विद्वानों ने इसका उद्भव तंत्र से बताया है, शंकर इसके खंडन के क्रम में वेदान्त दर्शन का सबसे प्रमुख विरोधी बताने की स्थिति में पहुँच जाते हैं। तृत्तीय मत परमाणु वादियों का माना जाता है जिनमे मुख्यतः न्याय-वैशेषिक प्रमुख हैं। इनमे लोकयातिकों को मूलतः जनसामान्य का दर्शन माना जाता है और लोकायत मत और परवर्ती भौतिकवादी दर्शन सांख्य का उद्भव तंत्र से हुआ माना जाता  है।

विज्ञान के संरक्षक के रूप में नास्तिक भौतिकवादी

वेदान्त की प्रत्ययवादी विचारधारा में विज्ञान के लिए कोई जगह नही थी। भारतीय वेदांती आदर्शवादियों ने जहाँ स्पष्ट घोषणा की है की विश्व के होने का एकमात्र कारण कोई अलौकिक शक्ति है। अर्थात विशुद्ध चित्त ही अंतिम सत्य है। इसे कई संज्ञाओं से नवाजा गया है जैसे अंत:करण, परम ब्रह्मा, चेतना पुंज आदि। भारतीय मायावादी/प्रत्ययवादी चेतना या विचार को ही विश्व के होने का कारण मानते हैं। यह संज्ञाएँ भिन्न भिन्न आदर्शवादी दार्शनिकों के लिए अलग - अलग हो सकती है परन्तु हमारा ध्यान इस तथ्य पर होना चाहिए की जिन दार्शनिकों ने विशुद्ध रूप से प्रत्यय (विचार ) को जगत का आधार बताया और जगत की भौतिकता को तिरस्कार-पूर्ण दृष्टि से देखा उन सब में कौन सी धारणा सर्वनिष्ठ है? उत्तर साफ है जब किसी विचार को जगत का आधार बताना हो तब जगत की भौतिकता को बलपूर्वक नकारना आवश्यक हो जाता हैयहीं इस तथ्य को भी स्पष्ट समझा जा सकता है की जब राजनितिक कारणों से कोई दर्शनवेता अनुभूत जगत को मिथ्या साबित करने का प्रयास करे तो उसका सर्वाधिक तीव्र प्रहार इसी भौतिकता पर होगा, और इसके लिए वह प्रत्यक्षता और तर्क की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाएगा

भारतीय भाववादी दार्शनिकों ने इसी युक्ति का प्रयोग किया भी है जैसा की हम लेख में पहले देख चुके हैं। अनुभव, विवेक और तर्क को अस्वीकार करते हुए भारतीय मायावाद के समर्थक भी रहस्यात्मक भाव समाधी की आत्म मुग्धता और विभ्रम की स्थिति को अंतिम आध्यात्मिक सत्य बताते हैं यह सर्वज्ञात तथ्य है एवं यहाँ हमारे विवेचन का विषय नही है इन्द्रियों और संवेदनो द्वारा जो अनुभूत करते हैं वह निर्विवाद रूप से जगत की भौतिकता और सत्यता को प्रमाणित करता है। अब सवाल है फिर वे कौन से लोग थे जिन्होंने विज्ञान को तमाम विरोधों और उग्र प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही के बावजूद जीवित रखा ? इसका जवाब साफ है वे भौतिकवादी ही थे जिन्होंने देहवाद को प्रश्रय दिया और विज्ञान के उत्कर्ष को सुनिश्चित कियापरन्तु जब आदिम सामुदायिक गण-लोकतंत्र व्यवस्था का पतन हुआ एवं राज्य सत्ता का प्रभाव बढ़ा और मायावाद को प्रतिष्ठा हासिल हुई और विज्ञान को प्रश्रय देने वाली विचारधारा शेष न रही, तब वैज्ञानिक ग्रंथों में धर्म और परलोक के कचड़े को ठूंस कर उसे वेदांती रूप देने का प्रयास किया गयायह राज्य सत्ता के बंधक के रूप में विज्ञान और भौतिकवादियों के विचारों को दिया गया दंड था , जो "विजेता के न्याय" को परिभाषित करता हैयहाँ ध्यातव्य है की महाभारत के शांति पर्व (अध्याय -१०७ ) में गणों के लोक तंत्र का उल्लेख युधिष्ठिर के किसी प्रश्न के उत्तर में भीष्म करते हैं और अथर्व वेद में भी इसी लोकतंत्र का गुणगान करते हुए आदेश दिया गया है ..
           हे राजन, तुझे राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुने एवं स्वीकारें
          (अथर्व वेद ,तृतीय कांड, सूक्त ४ ,श्लोक २ )

कहा जा सकता है की अथर्ववेद के समाज के सम्मानीय तबके में हुई अवमानना के पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण थे जब लोकतंत्र का पूर्णतः विनाश हुआ जनता के हित को परिभषित करती भौतिकवाद को प्रश्रय देती हर कृति का मूल स्वर या तो भाव वाद में प्रक्षिप्त कर दिया गया या जिन्हें प्रक्षिप्त न किया जा सके उन्हें समूल नष्ट कर दिया गया। लोकायत के कई नष्ट ग्रन्थ जिनका उल्लेख कई बौद्ध ग्रंथों में खंडनार्थ किया गया है इसका ज्वलंत उदहारण है

विज्ञान एक बंधक के रूप में

विज्ञान राज्यपोषित भाववाद के सामने किस प्रकार पंगु हुआ इसका एक उदाहरण हमें खगोल विज्ञान (ज्योतिष) के दो प्रसिद्ध विद्वानों वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त के स्रोत साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है। सर्वज्ञात तथ्य है कि अलबरुनी (दसवीं शताब्दी) ने भारत आकर इन दोनों के विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य का अध्ययन किया था और उसने वराहमिहिर की तुलना में ब्रह्मगुप्त को अधिक बड़ा विद्वान बताया था। अलबरुनी स्पष्ट लिखते हैं कि भारतीय गणित ज्योतिषियों को सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के वैज्ञानिक कारण का ज्ञान था (एडवर्ड सची  ii.107। हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्मा, आदर्श हिंदी पुस्तकालय - 1967)। उसने लिखा - ‘भारतीय वैज्ञानिक जानते हैं की पृथ्वी की छाया से चंद्रग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्यग्रहण होता है। इसी तथ्य पर उन्होंने ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथों में अपने परिसंख्यानों की नीव रखी है।’ अलबरुनी को यह बात बहुत विचित्र प्रतीत होती है कि एक तरफ ये दोनों विज्ञानी प्रत्यक्ष ज्ञान और कार्य - कारण सम्बन्ध के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखते हैं और दूसरी तरफ तात्कालीन समाज में प्रचलित ग्रहण सम्बन्धी पुरोहित पोषित मिथकों जिनमें ग्रहण का कारण राहु-केतु को बताया गया है, को समर्थन और सम्मान देते नजर आते हैं।

अलबरुनी कहते हैं - ‘मिथकीय कथा का समर्थन करने से पहले वाराह मिहिर खुद को एक ऐसे विज्ञानी के रूप में सामने लाते हैं, जो इस मिथकीय कथा को न मानकर शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार पर ग्रहण के वैज्ञानिक कारण की विवेचना करते हैं, परन्तु उसके ठीक बाद वह उस मिथकीय कथा का उल्लेख भी करते हैं।’ इसका कारण बताते हुए अलबरुनी कहते हैं - ‘वराह मिहिर क्योंकि ब्राह्मणों थे और खुद को उनसे अलग न कर पाने की दशा में उसने वैज्ञानिक विवेचन को मिथकीय आवरण से ढंका है।’ अल बरुनी आगे कहते हैं - ‘फिर भी वे दोष देने योग्य नही हैं क्योंकि उनकी विवेचन सत्य के दृढ आधार पर खड़ा है और तमाम अन्य बातों के बावजूद वे स्पष्ट रूप से सत्य कह देते हैं।’ यह छठी शताब्दी का आरम्भिक काल माना जाता है। ब्रह्मगुप्त के काल तक राज्यसत्ता की जड़ें और मजबूत हो चुकी थीं और विज्ञान पर अवैज्ञानिक मायावादी विचारधारा का दबाव भी बहुत बढ़ चुका था।

इस काल में विज्ञानेतर विचारधारा के समर्थक यह समझ चुके थे कि अगर विज्ञान का प्रभाव बढ़ता रहा प्रकृति की घटनाओं को  कार्य-कारण सम्बन्ध और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर विवेचित जाता रहा तो अन्धविश्वास और पारलौकिकता की अवधारणा को विज्ञान से चुनौती मिलनी ही है  और इससे उनके द्वारा अर्थोपार्जन एवं राज्य सत्ता के संरक्षण हेतु फैलाये गए मायावाद को हानि हो सकती है। इस कारण वे बहुत सतर्क हो चुके थे और विज्ञान के दमन के लिए प्रतिबद्ध भी। इसीलिए ब्रह्मगुप्त ने अपनी अनुपम कृति ब्रह्म सिद्धांत की प्रारंभिक पंक्तियों में ही प्रतिविचार धारा को मान्यता प्रदान की

कई आधुनिक विद्वानों का मत है कि हो सकता है यह अंश बाद में क्षेपक के रूप में जोड़े गए हों। अलबरुनी का स्पष्ट मत है कि ब्रह्मगुप्त जो इस कृति की रचना के समय मात्र ३० वर्ष के थे, ने अपनी प्राणों की रक्षा के लिए विज्ञानेतर विचारधारा के सामने आत्म समर्पण कर दिया हो। यहाँ तक कि अलबरुनी इस घटना की तुलना सुकरात को दिए गए विष से करते हैं जो उन्हें धर्म सत्ता के विरुद्ध जाने के अपराध में दिया गया था। यह स्थिति गणित ज्योतिष और ज्यामिति की थी जो किसी न किसी रूप से वेद विद्या से सबद्ध रही थी। जब वि‍ज्ञानेतर विचारधारा का प्रभाव इन विद्याओं पर इतना भयंकर पड़ा तब चिकित्सा शास्त्र जैसा विषय जो मूलत: घुमंतू जनजातियों के द्वारा विकसित था और जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा किये बैठा था, उस पर पड़े प्रभाव की कल्पना सहज ही की जा सकती है। आज उपलब्ध चिकित्सा विज्ञान एवं रसविज्ञान सम्बन्धी स्रोत साहित्य के अध्ययन से हम स्पष्ट रूप से उन पर आरोपित विज्ञानेतर कचरे की जाँच और पहचान कर सकते हैं।

यह साबित करने के लिए इतने प्रमाण पर्याप्त होंगे कि विज्ञान न कभी धर्म की छत्रछाया में था और ना ही प्राचीन भारतीय ज्ञान को प्रतिविचारधरा द्वारा आरोपित सिद्धांतों के आलोक में देखा जाना चाहिए। वे स्पष्टवादी भौतिकवादी ही थे जिन्होंने प्राचीन भारत में विज्ञान की लौ को तमाम विरोधों और अपमान के बाद भी जलाए रखा। वे नास्तिकता को पोषित करते रहे और विज्ञान इसी आलोक में तब तक फूलता-फलता रहा जब तक राज्य सत्ता इसके दमन के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध न हुई। अंततः विज्ञान का गला इसी मायावादी विचारधारा के नुमाइंदों ने राज्यसत्ता के पूर्ण समर्थन के आलोक में घोंटा और राज्य सत्ता के पूर्ण विकास के साथ ही विज्ञान का भी पूर्ण रूप से पतन हो गया। यह वही वक्त था जब राज्य सत्ता अपने पूर्ण दमनकारी अवस्था में थी और जनतंत्र का पूर्ण विनाश हो चुका था। इसी सन्दर्भ में हम यह भी देख सकते हैं कि जिन देशों में लोकतंत्र भारत से पहले आया वहां विज्ञान का स्तर आज भारत के सापेक्ष अधिक आगे है। 

विज्ञान मूलतः जनकल्याण और मानवता वाद की पैरवी करता है इसी प्रकार कहा जा सकता है विज्ञान को फलने-फूलने के लिए लोकतान्त्रिक और सजग समाज की आवश्यकता होती है परन्तु शायद यह हमारा दुर्भाग्य ही है की आज भी भारत में पुनरुत्थानवादी ताकतें विज्ञान के भौतिकवादी दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध कर रही हैं। कई अवैज्ञानिक मतों को और अंधविश्वासों को विज्ञान का नाम दिया जा रहा है। प्रत्यक्षता की अवहेलना की जा रही है और वैज्ञानिक सोच के प्रति घृणा फ़ैलाने, विज्ञान को गरीबी, विनाश, युद्ध आदि के लिए दोषी ठहराने का प्रपंच रचा जा रहा है। आधुनिक ज्ञान जो पुरातन का ही विकसित स्वरुप है, की अवहेलना घातक हो सकती है. भारत को कभी अपनी वैज्ञानिक खोजों के लिए विश्व भर में प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यदि हम उस प्रतिष्ठा को वापस पाना चाहते हैं तों हमें भ्रमों और अन्धाविश्वासों की तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्याओं से परहेज करना चाहिए और प्रत्यक्षता और कार्य कारण समबन्ध के आधार पर किये गए वस्तुगत विवेचन को ही मान्यता देनी चाहिए शायद तब ही हम भारत की प्रतिष्ठा को वापस पा सकेंगे। 

- लवली गोस्वामी