Saturday, September 4, 2010

शिक्षक दिवस : क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ‘शिक्षकों’ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए

    आज शिक्षक दिवस है। सारे अखबार या तो शिक्षकों की बदहाली अथवा प्रशंसा से भरे हुए हैं। अच्छी बात है, जो शिक्षक हमें एक सफल सामाजिक प्राणी बनाने के लिए अपनी रचनात्मक भूमिका निभाकर एक महान कार्य करता है, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना एक सुशिक्षित व्यक्ति के लिए लाज़मी है और दूसरी और इस महती सामाजिक कार्य की जिम्मेदारी उठाने वाली महत्वपूर्ण इकाई के प्रति सरकार के असंवेदनशील रुख की भर्त्सना करना भी उतना ही ज़रूरी है।
    सरकार का शिक्षकों को दोयम दर्ज़े के सरकारी कर्मचारी की तरह ट्रीट करना, उनके वेतन, भत्तों, सुख-सुविधाओं के प्रति दुर्लक्ष्य करना, उन्हें जनगणना, पल्स पोलियों, चुनाव आदि-आदि कार्यों में उलझाकर शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य से विमुख करना, इनके अलावा और भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो एक शिक्षक की भूमिका और महत्व को सिरे से खारिज करते से लगते हैं। लेकिन, इस सबसे परे, शिक्षकों की अपनी कमज़ोरियों, अज्ञान, कुज्ञान, अवैज्ञानिक चिंतन पद्धति, भ्रामक एवं असत्य धारणाओं के वाहक के रूप में समाज में सक्रिय गतिशीलता के कारण आम तौर पर मानव समाज का और खास तौर पर भारतीय समाज का कितना नुकसान हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है।
    पिछले दो-तीन सौ साल मानव सभ्यता के करोड़ों वर्षों के इतिहास में, विज्ञान के विकास की स्वर्णिम समयावधि रही है। इस अवधि में प्रकृति, विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के अधिकांश रहस्यों पर से पर्दा उठाकर सभ्यता ने व्यापक क्रांतिकारी करवटें ली हैं। एक अतिप्राकृतिक सत्ता की अनुपस्थिति का दर्शन भी इसी युग में आविर्भूत हुआ है जिसकी परिणति दुनिया भर में मध्ययुगीन सामंती समाज के खात्में के रूप में हुई थी जिसका अस्तित्व ही ईश्वरीय सत्ता की अवास्तविक अवधारणा पर टिका हुआ था।
    भारतीय समाज में सामंती समाज की अवधारणाओं, मूल्यों का पूरी तौर पर पतन आज तक नहीं हो सका है और ना ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की समझदारी, आधुनिक चिंतन, विचारधारा का व्यापक प्रसार ही हो सका है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस समाज में ’सत्य-सत्य‘ का डोंड सामंती समय से ही पीटा जाता रहा हो उस समाज में ’सत्य‘ सबसे ज़्यादा उपेक्षित रहा है।
    हमें आज़ाद हुए 62 वर्ष से ज़्यादा हो गए, देश आज भी सामंत युगीय अज्ञान एवं कूपमंडूकता की गहरी खाई में पड़ा हुआ है। धर्म एवं भारतीय संस्कृति के नाम अवैज्ञानिक क्रियाकलापों कर्मकांडों का ज़बरदस्त बोलबाला हमारे देश में देखा जा सकता है। क्या शिक्षक का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ? क्या ’धर्म‘ की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की संस्कृति को रोपने, वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करने की जिम्मेदारी ’शिक्षकों‘ की नहीं थी ? क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ’शिक्षकों‘ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए जिसने हमारे देश को सदियों पीछे रख छोड़ा है ? क्या मध्ययुगीन अवधारणाओं के दम पर विश्व गुरू होने का फालतू दंभ चूर चूर कर, वास्तव में ज्ञान की वह ’सरिता‘ प्रवाहित करना एक अत्यावश्यक ऐतिहासिक कार्य नहीं था जिसके ना हो सकने का अपराध किसी और के सिर पर नहीं प्रथमतः शिक्षकों के ही सिर पर है।
    अब भी समय है, प्रकृति मानव समाज एवं विश्व ब्रम्हांड के सत्य को गहराई में जाकर समझने और एकीकृत ज्ञान के आधार पर भारतीय समाज में व्याप्त अंधकार को दूर करने की लिए प्रत्येक शिक्षक आज भी अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है, बशर्ते वह अपने तईं ना केवल ईमानदार हो बल्कि सत्य के लिए प्राण तक तजने को तैयार हो।

9 comments:

  1. शिक्षक दिवस पर एक गंभीर और अनूठी पोस्ट!!!

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  2. अत्यधिक विचारणीय पोस्ट है. अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में काफी प्राइमरी शिक्षकों की भर्ती हुई, उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं, जो वास्तव में बच्चों को शिक्षित करना चाहते हैं. पर सरकार द्वारा उन्हें क्लर्कल कामों में लगा देने से वो शिक्षण कार्य ठीक से नहीं कर पाते... शेष वैज्ञानिक चिंतन तो पूरे समाज की एक समस्या है और शिक्षक भी उसी का हिस्सा हैं.

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  3. सावधानी रखें और नियमित रुप से ख़ुदको सर्च करें, ख़ासकर तब, जब आप विवादित विषयों पर निष्पक्ष भाव से लिखते हों। कहीं ऐसा न हो कि आपके (या ब्लाग के) नाम के साथ जोड़कर कुछ भी लिखा जा रहा हो, वह भी बिना आपका लिंक लगाए, और आपको पता ही न हो:
    Kripya dekheN :-

    http://lailakigodmain.blogspot.com/2010/07/1.html

    ""उस समय तक ब्लाग में सिर्फ़ एक आमन्त्रण वाली पोस्ट ही प्रकाशित हुयी थी ।
    खैर..पढकर बेहद हंसी आयी । ये लोग नास्तिकता का क्या अर्थ लगाते हैं और आगे क्या धमाका करने
    वाले हैं । इसकी कल्पना मेरे लिये बेहद दिलचस्प थी ।""

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  4. .
    .
    .
    अच्छी पोस्ट,
    इस पर और चर्चा होनी चाहिये...
    मैं अपने ब्लॉग में इस पर आधारित पोस्ट लगा रहा हूँ...

    आभार सहित!


    ...

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  5. देश में स्‍वतंत्रता के बाद सर्वाधिक योग्‍यता रखनेवाले व्‍यक्ति शिक्षक हुआ करते थे .. पर बाद में अन्‍य क्षेत्रों की अपेक्षा इस क्षेत्र में सरकार की उपेक्षा और अनेदेखी के कारण सर्वाधिक अयोग्‍यों का प्रवेश हुआ .. ऐसे में शिक्षा में रूचि रखनेवाले कुछ शिक्षक भी अपने कर्तब्‍य पथ से अडिग हुए .. भले ही उन्हें जनगणना, पल्स पोलियों, चुनाव आदि-आदि कार्यों में उलझाकर रखा जाता हो .. पर विद्यार्थी के मानसिक और चारित्रिक विकास की जिम्‍मेदारी तो उनकी ही थी .. आज यदि वे अपने कर्तब्‍य के मार्ग पर डटे होते .. तो आनेवाली पीढी तो अवश्‍य सक्षम होती !!

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  6. क्या 'उन' का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ?
    ये 'उन' के स्थान पर 'साइंटिस्ट' है ना या 'शिक्षक' ही है ?? :))

    क्या ’धर्म‘ की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की संस्कृति को रोपने, वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करने की जिम्मेदारी ’उन‘ की नहीं थी ?
    धर्म की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर भी दिया जाये तो कौनसी सत्ता स्थापित करें जिससे उजाला हो जाये , क्या ऐसी कोई सत्ता अभी मौजूद है ??
    कृपया यह भी बताएं की शिक्षक को सत्य [वैज्ञानिक या अ वैज्ञानिक ] कहाँ से ढूंढना चाहिए ? [वो वाला सत्य जिससे बाद में मुकरना न पड़े ]

    क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ’उन‘ के मत्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए जिसने हमारे देश को सदियों पीछे रख छोड़ा है ?
    वो[शिक्षक ] बेचारे जिस शिक्षा पद्दति से पढ़ कर बाहर आये हैं क्या वो भारतीय है, जहां २५ साल तक सिर्फ शिक्षा को ठीक ढंग से जीवन में उतारा जाता था ??
    क्या एक ही एजेंसी को इतना जयादा दोषी बनाना उचित है [ या सिर्फ "मैंने कुछ नहीं किया" वाली भारतीय परंपरा है ]

    क्या आप कभी शिक्षक रहे हैं या अभी हैं ??
    क्या ये भी संभव नहीं की इश्वर नामक सत्ता केवल मानव में "कोई तेरे कर्मों का हिसाब रखता है " वाले मनोवैज्ञानिक हितकारी भय के लिए किया हो , जिससे फायदा तो होता ही होगा

    अंत में एक ही प्रश्न सत्य की जांच करेगा कौन वैज्ञानिक तो खुद कन्फ्यूज हैं , ये बेचारे शिक्षक की टांग क्यों खीची जा रही है ??

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  7. Thanks to all.
    We will discuss separately on the issues raised by Mr Gourav Agarwal.

    Drishtikon
    http://www.drishtikon2009.blogspot.com/

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