Sunday, May 23, 2010

'' अगर धर्म एक अच्छे इन्सान होने का सर्टिफिकेट होता तो इस दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती '' - 1

जब हमने इस्वर और धर्म की सत्ता को मानने से इंकार किया तो बहुत से करीबियों को दुःख के साथ - साथ कुछ को ख़ुशी भी हुई.दुखी लोगों ने कहा अच्छा खासा लड़का था बिगड़ गया ..लगता है किसी गलत सोहबत में पड़ गया है.लोगों ने हमें बहुत समझाने की कोशिशें की मगर क्या करें हम भी तर्क पे तर्क किये जा रहे थे और ये तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहे थे.कुछ लोगों को चिंता भी हुई की कहीं इसकी सोहबत में हमारे लड़के भी ना बिगड़ जाएँ सो कई लड़कों के साथ हमारा उठाना बैठने भी छुट गया.लोग इस्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए तमाम तर्क - बितर्क करने लगे.फिर भी हम नहीं माने तो लोगों ने हार के कहा - '' धार्मिक हउवे बिना आदमीं अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ''.

खुश होने वाले करीबियों को हममें तमाम संभावनाएं नज़र रही थी.कहने लगे सही है ब्रम्ह्ड़ो ने हिन्दू धर्म में कई बुराइयों का प्रवेश करा दिया है.इनका तर्क होता था की इस्वर है बस तुम उसे खोजो, धर्म को पालिस करने की जरुरत है,कुछ लोगों ने इस गन्दा बना दिया है .दरअसल ये सभी लोग किसी ना किसी पंथ को मानने वाले थे कोई आर्य समाजी था,तो कोई निरंकारी था और कोई गायत्री परिवार को मानने वाला और वे समझ रहे थे की उनके पंथ को मानने वालों में मैं भी शामिल हो सकता हूँ.अचानक इन साहबों ने मुझे अपने अपने धार्मिक आयोजनों में बुलाना शुरू कर दिया.हमारे एक बहुत करीबी जो की निरंकारी हैं. अक्सर बुलाते थे अपने निरंकारी सत्संगों में और अक्सर मेरी नास्तिकता का मजाक भी उड़ाते थे एक दिन खीज करके मैने पुछ दिया - अच्छा ये बताइए.जब आप खुदा,इस्वर या भगवान को निरंकारी मानते हैं तो अपने समरोहों में क्यों एक लोग को सफ़ेद धोती कुरता पहना के और सफ़ेद चादर ओढा कर पूजा करते है ? जब आपका इस्वर निरंकारी है तो यहाँ आकार वाली धरती और इंसानों - जानवरों को बनाने की जरुरत क्यों पड़ी ? क्या आपका इस्वर चापलूस जो इंसानों को केवल पूजा - पाठ के लिए बनाया है ? और सब छोड़ भी दें तो जरा बताइए जब निरंकारी की पूजा करते हैं समय साकार भगवानो राम,कृस्न और शंकर की स्तुति क्यों करते हैं?


गर निरंकारी होके भी इन्ही भगवानो की पूजा करनी थी तो क्या जरुरत है निरंकारी होने की.पता नहीं कितने करोड़ भगवानो को ढ़ोने वाली अपनी गधों वाली पीठ पे एक और भगवान को लादने की जरुरत क्या है ? मेरे सवालों से गुस्साए मेरे उन करीबीजब कोई तर्क नहीं कर पाए तो कहा - अब तुम पिटोगे तभी तुम्हारी समझा में आएगा इस्वर और धर्म...

मेरे से दुखी और अपने पंथ के संदर्भ में मेरे में संभावना देखने वाले ये लोग तब भी और अब भी जब तर्क से पेश नहीं हो पाते यही कहते हैं - '' धार्मिक हउवे बिना आदमीं अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ''.

और मैं कहता हूँ की बिना धर्म के भी एक अच्छा इन्सान हूवा जा सकता है.क्यों क़ि धर्म और इस्वर दोनों इन्सान पे जबरदस्ती लादे गए हैं.इन्सान अपने कुदरती रूप में ही बहुत अच्छा है.धर्मिक लोगों की जनसँख्या ही इस धरती सबसे बड़ी है.नास्तिक तो मुश्किल से कुछ हजार ही होंगे फिर भी यहाँ इतनी असमानता क्यों?क्यों धर्म के नाम पे ही धरती सबसे ज्यादे लहूलुहान हुई ? हो सकता है एक ज़माने में धर्म सोसायटी को चलने के लिए लोगों ने बनाया हो.मगर अब हमारी सोसायटी को चलने के लिए एक अलग व्यवस्था है.और एसे में अब ये धर्म हमारी प्रगति में लंगड़ी मरने के सिवा और किसी काम के नहीं हैं.इन्हें अब इतिहास की किताबों में ही रहने देना चाहिए.और '' इस्वर वों तो इस दुनिया का सबसे झूठा शब्द है,और सबसे ज्यादे विस्वास से बोले जाने वाला झूठ भी ''....

'' गर धर्म एक अच्छे इन्सान होने का सर्टिफिकेट होता तो इस दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती ''.धर्म के नाम पे या सम्प्रदाय के नाम पे किये जाने वाली हत्याएं नहीं होतीं.भगवान है तो वों दुनिया में होने वाली दुःख तकलीफों को कम क्यों नहीं करता.आप गधे हो सकते हैं मैं नहीं.जब आपको यहाँ भी उन्ही भगवानो को पूजना है तो फिर कोई जरुरत नहीं नए पन्थो और भगवानों की.दरअसल इन्हें शिकायत ये नहीं है की मैं भगवान को मानता हूँ या नहीं ..शिकायत इस बात की है क़ि मैं इनकी तरह गधा नहीं निकला और इनके मालिक का बोझ नहीं धो रहा और उसपे इनका मालिक अपने अदृश्य कोड़े भी मुझपे नहीं बरसा रहा...? बहुत से सवल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता...

है तो कहने को बहुत कुछ मगर..फिर कभी ...
आखिरी में इस ब्लॉग क़ि पहली पोस्ट पे आई एक कमेंट्स -
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J.S. PARMAR - जब कहीं पढ़ता हूँ की नास्तिकता के विरूद्ध लड़ना है तो सिहर उठता हूँ, कहीं अगला नम्बर अपना ही तो नहीं?
नास्तिकता हो या आस्तिकता, दोनो के दो दो मार्ग है, इन्हे समझा जाना चाहिए.
जहाँ आस्तिकता के एक मार्ग के राही महात्मा गाँधी थे तो दूसरा मार्ग लादेन ने पकड़ रखा है. वैसे ही नास्तिकता के एक मार्ग पर स्टालिन चला था तो दूसरा मार्ग महावीर और बुद्ध द्वारा रोशन हुआ है. अब यह तो व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह किस रास्ते जाता है.
दोनों ही रास्तों के खतरनाक दृष्टांत हैं। मेरा तो यही कहना है कि आदमी की आस्था अपने में होनी चाहिए। वह आस्तिक हो या नास्तिक, अगर उसकी आस्था अपने ऊपर नहीं रही तो वह खंडहर की तरह कभी भी ढह सकता है।

29 comments:

  1. बहुत बढिया लिखें हैं । अच्‍छा लगा पढकर ।
    अच्‍छाई का सटिफिकेट सिर्फ अच्‍छाई ही होती है । अच्‍छाई कभी आक्रामक नहीं होती । यही अच्‍छाई की सबसे बडी खूबी और कमी दोनों है ।

    नास्‍ि‍तकता का सबसे बडा सौंदर्य इस बात में है कि यह व्‍यक्ति को घोर जिम्‍मेवार बनाती है , स्‍वयं के प्रति । अतीत से भारमुक्‍त नास्तिक सहज होता है , जब तक कि यह नास्तिकता को ही न ढोने लग जाए ।

    "अतीत से भारमुक्‍त" का मतलब पिछला सब कुछ भूल जाना नहीं है , बल्कि इसका अर्थ है कि यह हम पर हावी न रहे या हम इसके प्रति भावकुता से न भरे रहें ।

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  2. अर्कजेश सर शुक्रिया....... ब्लोगिंग की दुनिया में ये मेरी पहली पोस्ट है...पता नहीं कैसी है कई बार लिखने के बाद भी लगता है की कुछ छुट गया है बहुत सी गलतिय भी नज़र आरही हैं....

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  3. बहुत सुन्दर आलेख है, आपसे सहमत हूँ ... तथाकथित धर्म मानव मन के डर का उपज है ... अच्छाई के लिए धर्म की ज़रुरत नहीं है ... हाँ तथाकथित धर्मों के लिए आज अच्छाई की ज़रुरत हो गई है ...

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  4. याद आता है जब स्कूल में चरित्र प्रमाणपत्र दिए जाते थे। लुच्चे से लुच्चे लड़के के प्रमाणपत्र में भी कोई ख़राब रिमार्क नहीं लिखा जाता था बशर्ते कि उसका किसी टीचर से कोई व्यक्तिगत लफड़ा न हो। यहां भी मामला ऐसा ही है। आप पूजा-पाठ-नमाज़-प्रेयर आदि करते रहो, उसके बाद सामाजिक और व्यवहारिक जीवन में जितना मर्ज़ी गंद घोलो, आपको ‘धार्मिक’ और ‘अच्छा’ ही माना जाएगा।
    आर्य समाज ने मूर्ति की जगह फोटुएं तान दीं। हवन में लाखों रुपए के देसी घी बरबाद किए जाते हैं। किसी के पास मूर्ति और फोटो नहीं है तो ज़मीन पर माथा टेके पड़े हैं। आखिर ऐसे निराकार की ज़रुरत क्या है और मजबूरी क्या है !? इससे तो शेखर कपूर का काल्पनिक मि. इण्डिया ही अच्छा था जो मुसीबतज़दा को बचाता था और बुरे को सबक सिखाता था। पर यहां तो बुरे ही सबसे ज़्यादा अच्छे बने बैठे हैं, महज़ कुछ कर्मकाण्डों के बल पर।

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  5. मै एक बार फिर कहना चाहूँगा कि धर्म एक दिलाशा है ...जिसकी स्तुति करके इन्सान अपने आप को हल्का महसूस करता है ...ओर सारे ठीक हुए काम उस भगवान के नाम कर देता है ओर गलत कामो का ठीकरा भी उसी भगवान के सर फोड़ता है ....या कभी कभी कहता है कि मेरी तो किस्मत ही खराब है ....तो अच्छे कर्म करो फल भी अच्छा ही मिलेगा ...

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  6. बहुत बेहतरीन आलेख !
    धर्मों और पंथों ने प्रश्नों को वर्जित कर रखा है आप के सवाल के जवाब आप स्वय तय करते हैं मगर आपकी खोज या जवाब में इश्वर नज़र नहीं आता तो आपके प्रयासों पर सवाल खड़ा कर दिया जाता है ! आपकी पोस्ट पढ़ते हुए मुझे अपनी स्थिति याद आई है ज़ाहिर है रचना दमदार है और प्रश्न शाश्वत
    जहाँ तक मुझे समझ आता है " तो बिना धर्म के इंसान ज्यादा बेहतर होता है क्योकि उसे अपने हर कार्य का पश्चाताप स्वय करना होता है उसकी सजा खुद तय करनी होती है, क्योकि उसे अपने कामों के लिए ना तो इश्वर से माफ़ी मिलने की उम्मीद नहीं होती है!
    अर्कजेश साहब की बातों से शत प्रतिशत सहमत हूँ और उनकी रचना का इंतज़ार कर रहा हूँ

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  7. हर नास्तिक के अन्दर एक आस्तिक जरुर होता है .......
    यदि नास्तिक शब्द नहीं होता तो आस्तिक शब्द भी अस्तित्व नहीं होता ...
    इंसानियत से बढ़कर कोई धर्म नहीं ....
    सार्थक लेख के लिए धन्यवाद

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  8. अर्कजेश काफ़ी महत्वपूर्ण इशारे कर गये हैं।

    लिखे तो सटीक मित्र, पर इतना आक्रामक होने की जरूरत नहीं लगती। समझदारी को विनम्रता लानी ही चाहिए, या यूं कहें कि यह लाती ही है। भाषा-प्रयोग में सावधानी बरतना हमें सीखना ही चाहिए।

    आखिर यह पारिस्थितिक संयोग ही है कि हम अपने चुनावहीन परिवेश की पैदाईश हैं और समझ तथा ज्ञान के तदअनुकूल स्तर से ही आगे की राह निकालने की जुंबिशों में रहते हैं। इसलिए सापेक्षतः पीछे लग रहे अपने मानव-बांधवों के प्रति हमारे मन में उनकी लाख उठापटकों के बावज़ूद सहानुभूति का भाव रखना ही श्रेष्ठ है, ना कि मखौल बनाने का।

    आपने बहुत बढ़िया बात उठाई है। अगर इस पूरे प्रपंच को बारीकी से देखा-समझा जाए तो यह आसानी से पकड़ा जा सकता है कि मनुष्य के अच्छे और बेहतर होने की संभावनाएं सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म से मुक्त होने से ही प्रशस्त हो सकती हैं। जहां उसके हर क्रियाकलाप की जिम्मेदारी ख़ुद लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, कोई पापमुक्ति नहीं होती, कोई वैकल्पिक प्रायश्चित नहीं होता। जाहिरा तौर पर यह स्थिति नई जिम्मेदारियां लेकर आती है, और हमें इसके लिए स्वयं की समझ को निरंतर परिष्कृत करते रहना चाहिए।

    शुक्रिया।

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  10. धर्म को हज़ारों सालों से उन लोगों ने ज़िंदा रखा है जो असली नैतिकता से दूर भागते हैं क्योंकि इससे उनका मुनाफ़ा कम हो जाता है। इन लोगों ने अपने भ्रष्ट आचरण को सामाजिक कवच पहनाने के लिए धर्म के तथाकथित महान अनुयायियों का वर्ग खड़ा किया है। भारत में इसे बनिया-ब्राह्मण गठबंधन में देखा जा सकता है। छोटे गाँवों से लेकर बड़े शहरों में 'जजमानी' करने वाले लाखों ब्राह्मण अपने 'सरकारों' के हर काम को 'दैवी' बताते हैं और इस संसार को मिथ्या घोषित करते हुए अपना जीवन सार्थक करते हैं।

    अगर धर्म के असली खलनायकों की पोल खोलनी है तो हमें तिजोरी और जनेऊ के घिनौने षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश करना होगा।

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  11. बहुत अच्छा लिखे हो दोस्त.. मुझे अपने एक दोस्त कि माँ याद आ गई, जो अपने बेटे को मुझसे दूर करना चाहती थी क्योंकि मैं भगवान के सामने सर नहीं झुकाता था..

    पहले पोस्ट के हिसाब से बहुत ही बढ़िया है.. सुधार कि गुंजाइश भी है, मगर सुधार कि गुंजाइश कहाँ नहीं होती है?

    फिलहाल बधाई स्वीकार करो.. :)

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  12. आप सबका शुक्रिया .....
    समय ..सर ....(इतना आक्रामक होने की जरूरत नहीं लगती। समझदारी को विनम्रता लानी ही चाहिए, या यूं कहें कि यह लाती ही है। भाषा-प्रयोग में सावधानी बरतना हमें सीखना ही चाहिए)..सहमत हूँ आपकी बात से आगे से ख्याल रखूँगा इन बातों की...

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  14. ("अतीत से भारमुक्‍त" का मतलब पिछला सब कुछ भूल जाना नहीं है , बल्कि इसका अर्थ है कि यह हम पर हावी न रहे या हम इसके प्रति भावकुता से न भरे रहें ।...).....
    अर्कजेश सर का इशारा समझ रहा हूँ .....पिछला और भावकुता मुझपे हावी तो नहीं है ..हाँ थोडा अनाड़ी होने की वजह से ये सारी गलतियाँ हुई हैं,कोशिश करूँगा आगे से से ना हों ये चीजें...

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  15. समय और अर्कजेश सही और स्पस्ट कह गए हैं अंजुल ...इनके बाद मेरे कहने के लिए कुछ शेष नही है.

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  16. mam अब अपनी गलतियाँ मुझे समझ में आ रही हैं...आगे से इन बातों का ख्याल रखूँगा.......शुक्रिया....

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  17. pahli baar blog pe aayi..vakai baat mein dam hai..
    nastik nahi hoon..par gar baat sahi hai to sahi hai :)

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  18. all posts r really nice n educative,,, i really enjoy reading them, u r on the right track buddy keep it up.

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  19. aastik nastik, sach ya jhuth ye dono shabd kitne ek jaise lagte hai par mai kya aap sabhi se.. ya apne writer bandhu se ye jaan sakta hoon ki sach sunna pasand karte hai ya jhuth... jawab to isi mai hai par mai aap ko bata deta hoon ishwar manne se hota hai.. na manne se nahi ishwar aap se kahne nahi aata ki aap use mano.. wo to ek andar ki aawaj hai jo apne aap kahti hai ki ishwar hai hume ek shakti chalati hai wo hai hamari aatma par ab aap kahoge ki aatma kaha se aayi to ek baat batana chahta hoon ki aatma aaj tak na kisi ke bas main hai aur na hogi... agar koi shakti nahi hoti to hum kyo kisi ko marne dete par jab marne ki baat aati hai to hum us upar wale par taal dete hai ki uski iccha ke bina to patta bhi nahi hilega tab ishwar ki yaad aati hai....bhagwan ne geeta mai kha hai mano to mai hoon na mano to mai nahi mai har jagah hoon magar ye tum per nirbhar karta hai ki tum use kitni mohabbat se aawaj dete ho...

    par haan main aapki es baat se ittefaq rakhta hoon ki dharmo ke naam insaan ne diya hai.. jab baccha paida hota hai to use kuch gyan nahi hota bada hota hai to janta hai ki mera dharm ye hai.. theek hai... par dharm ke naam par maarkaat machane wale galat hai.. par is dharm ke chakkar mai us shakti ko kyo beech mai late ho jo puri srishti chalati hai jisne tumhe jeene ke liye pranvayu di prakriti di jal diya samaj mai dharm hi jaruri nahi hota jaruri hota hai vayvhaar aur jo wo nahi janta uska sabhi dharm bekar hai.. kabhi iishwar ki baat chidde to dill se kaho iishwar hai tumhe bahut accha lagega iishwar se tum mohabbat rakhte ho to theek hai nahi rakhte ho to wo tumse kabhi kahne nahi aayega ki mujhe yaad karo... iishwar ne apne aap se judne ka ek sahara diya hai aatma man... judo to theek nahi judo to theek
    kisi ne such hi kha hai
    mohabbat wo nahi jo bato par tal jaye
    kahne do jo khti hai ye jalim duniya
    insaniyat ke dushman to bahut thehre
    hume hai malum ki ishwar ki hai ye duniya

    ReplyDelete
  20. accha likha hai... par ek baat khna chahta hoon ki aastik nastik, sach ya jhuth ye dono shabd kitne ek jaise lagte hai par mai kya aap sabhi se.. ya apne writer bandhu se ye jaan sakta hoon ki sach sunna pasand karte hai ya jhuth... jawab to isi mai hai par mai aap ko bata deta hoon ishwar manne se hota hai.. na manne se nahi ishwar aap se kahne nahi aata ki aap use mano.. wo to ek andar ki aawaj hai jo apne aap kahti hai ki ishwar hai hume ek shakti chalati hai wo hai hamari aatma par ab aap kahoge ki aatma kaha se aayi to ek baat batana chahta hoon ki aatma aaj tak na kisi ke bas main hai aur na hogi... agar koi shakti nahi hoti to hum kyo kisi ko marne dete par jab marne ki baat aati hai to hum us upar wale par taal dete hai ki uski iccha ke bina to patta bhi nahi hilega tab ishwar ki yaad aati hai....bhagwan ne geeta mai kha hai mano to mai hoon na mano to mai nahi mai har jagah hoon magar ye tum per nirbhar karta hai ki tum use kitni mohabbat se aawaj dete ho...

    par haan main aapki es baat se ittefaq rakhta hoon ki dharmo ke naam insaan ne diya hai.. jab baccha paida hota hai to use kuch gyan nahi hota bada hota hai to janta hai ki mera dharm ye hai.. theek hai... par dharm ke naam par maarkaat machane wale galat hai.. par is dharm ke chakkar mai us shakti ko kyo beech mai late ho jo puri srishti chalati hai jisne tumhe jeene ke liye pranvayu di prakriti di jal diya samaj mai dharm hi jaruri nahi hota jaruri hota hai vayvhaar aur jo wo nahi janta uska sabhi dharm bekar hai.. kabhi iishwar ki baat chidde to dill se kaho iishwar hai tumhe bahut accha lagega iishwar se tum mohabbat rakhte ho to theek hai nahi rakhte ho to wo tumse kabhi kahne nahi aayega ki mujhe yaad karo... iishwar ne apne aap se judne ka ek sahara diya hai aatma man... judo to theek nahi judo to theek
    kisi ne such hi kha hai
    mohabbat wo nahi jo bato par tal jaye
    kahne do jo khti hai ye jalim duniya
    insaniyat ke dushman to bahut thehre
    hume hai malum ki ishwar ki hai ye duniya

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  21. श्री जे. एस. परमार ने लिखा है कि “जहाँ आस्तिकता के एक मार्ग के राही महात्मा गाँधी थे….”
    तो एक बात का ध्यान आता है कि कुछ कल्चर नास्तिकों द्वारा स्वयं को नास्तिक कहलाना स्वीकार नहीं करती। ऐसे में लोग मुँह से नास्तिकता की बात नहीं बोलते या आस्तिकता के वचन कह देते हैं पर व्यवहार में धार्मिक ढोंग से कन्नी काट लेते हैं।

    ध्यान देने योग्य बात है कि जब गाँधीजी कहते हैं कि “मैं नहीं कहता कि ईश्वर ही सत्य है बल्कि मैं तो कहता हूँ कि सत्य ही ईश्वर है।“ तो वे भाँग खा कर नहीं बोल रहे थे। ऐसा कहने का क्या प्रयोजन है यह जान लेना कोई मुश्किल बात नहीं है।

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  22. धर्म को मानने वाले अरबों हैं न मानने वाले कुछ सेकड़ा यह प्रमाणित होता हैं के ईश्वर मानने वालो का बहुमत बहुत जयादा न मानने वालो का बहुत ही कम।
    यह सत्य की धर्म को सामाजिक आर्थिक मजबूरियों के कारण मानना पड़ता हैं।मगर धर्म ही इन्शान को छोटी बड़ी खुशिया भी देता हैं जेसे ईद होली दिवाली इत्यादि।
    धर्म को मानने में अच्छाई हैं बुराई कुछ भी नहीं।
    नास्तिक अकेला आवारा बन कर भटक भी सकता हैं।
    मगर धर्म के नियमो का पालन करने वाले की भटक ने की उम्मीद नही रहती।
    में भी अपने आप को नास्तिक मगर एकाकीपन के सिवा कुछ भी नही मिला
    सबकुछ उपरवाले पर छोड़ कर जो संतोष मिलता वो नास्तिकता में नहीं हैं

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    1. आपका अर्थ है कि हमे भाग्यवादी बन कर रहना चाहिए. वाकई नास्तिक होने के लिए हिम्मत चाहिए क्यूंकि अपनी समस्याओं को आप भगवन के भरोसे नहीं छोड़ सकते.

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  23. धर्म को मानने वाले अरबों हैं न मानने वाले कुछ सेकड़ा यह प्रमाणित होता हैं के ईश्वर मानने वालो का बहुमत बहुत जयादा न मानने वालो का बहुत ही कम।
    यह सत्य की धर्म को सामाजिक आर्थिक मजबूरियों के कारण मानना पड़ता हैं।मगर धर्म ही इन्शान को छोटी बड़ी खुशिया भी देता हैं जेसे ईद होली दिवाली इत्यादि।
    धर्म को मानने में अच्छाई हैं बुराई कुछ भी नहीं।
    नास्तिक अकेला आवारा बन कर भटक भी सकता हैं।
    मगर धर्म के नियमो का पालन करने वाले की भटक ने की उम्मीद नही रहती।
    में भी अपने आप को नास्तिक मगर एकाकीपन के सिवा कुछ भी नही मिला
    सबकुछ उपरवाले पर छोड़ कर जो संतोष मिलता वो नास्तिकता में नहीं हैं

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    1. आपका अर्थ है कि हमे भाग्यवादी बन कर रहना चाहिए. वाकई नास्तिक होने के लिए हिम्मत चाहिए क्यूंकि अपनी समस्याओं को आप भगवन के भरोसे नहीं छोड़ सकते.

      और यदि बहुमत किसी बात को सही मानता है तो इसका मतलब यहाँ नहीं की वो सत्य है. इसका यह भी मतलब हो सकता है समाज में मूर्खों की तुलना में समझदार कम है.

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  25. एक दम सही
    इस हिसाब से मै एक अच्छा इंसान हु क्यू की मै एक नास्तिक हु ।।
    धर्म के नाम से किसी को दुःख दर्द नही देता न ही वो काल्पनिक घटना जिसे भगवान या अल्लाह क नाम से इंसानो की खत्मा करना
    इस दुनिया मे इंसान प्राकृतिक जानवर और विज्ञान के आलावा ch##tia भगवान और अल्लाह नही है चाहे कोई भी धर्म के gandu भगवान हो....;)
    माफ़ी चाहूँगा कुछ गन्दे सब्द के लिए क्या करू नास्तिक हूँ न

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  26. एक दम सही
    इस हिसाब से मै एक अच्छा इंसान हु क्यू की मै एक नास्तिक हु ।।
    धर्म के नाम से किसी को दुःख दर्द नही देता न ही वो काल्पनिक घटना जिसे भगवान या अल्लाह क नाम से इंसानो की खत्मा करना
    इस दुनिया मे इंसान प्राकृतिक जानवर और विज्ञान के आलावा ch##tia भगवान और अल्लाह नही है चाहे कोई भी धर्म के gandu भगवान हो....;)
    माफ़ी चाहूँगा कुछ गन्दे सब्द के लिए क्या करू नास्तिक हूँ न

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