Sunday, February 6, 2011

क्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है !?

सरल मेरा दोस्त है। अपनी सरलता की ही वजह से मेरा दुश्मन भी है। मौलिक है, नास्तिक है, विद्रोही है। जाहिर है ऐसे आदमी के रिश्ते सहज ही किसी से नहीं बनते। बनते हैं तो तकरार, वाद-विवाद, तूतू मैंमैं भी लगातार बीच में बने रहते हैं। यानि कि रिश्ता टूटने का डर लगातार सिर पर लटकता रहता है।
अभी हाल ही में सरल के दो बहनोईयों का निधन 6-8 महीनों के अंतराल में हो गया। कुछेक मित्रों की प्रतिक्रिया थोड़ी दिल को लगने वाली तो थी पर सरल को वह स्वाभाविक भी लगी। संस्कारित सोच के अपने दायरे होते हैं। मित्रों का इशारा था कि अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आया कि तुम ईश्वर को नहीं मानते, इसलिए यह सब हुआ ?

यह सोच सरल के साथ मुझे भी बहुत अजीब लगी।

पहली अजीब बात तो यह थी कि सरल माने न माने पर उसके दोनों बहनोई ईश्वर में पूरा विश्वास रखते थे। फिर ईश्वर ने सरल के किए का बदला उसके बहनोईयों और बहिन-बच्चों से क्यों लिया ?

दूसरी अजीब बात मुझे यह लगी कि अगर ईश्वर को न मानने से आदमी इस तरह मर जाता है तो फिर ईश्वर को मानने वाले को तो कभी मरना ही नहीं चाहिए ! वैसे अगर सब कुछ ईश्वर के ही हाथ में है तो ईश्वर नास्तिकों को बनाता ही क्यों है !? पहले बनाता है फिर मारता है ! ऐसे ठलुओं-वेल्लों की तरह टाइम-पास जैसी हरकतें कम-अज़-कम ईश्वर जैसे हाई-प्रोफाइल आदमी (मेरा मतलब है ईश्वर) को तो शोभा नहीं देतीं।

इससे भी अजीब बात यह है कि ईश्वर क्या किसी मोहल्ले के दादा की तरह अहंकारी और ठस-बुद्धि है जो कहता है कि सालो अगर मुझे सलाम नहीं बजाओगे तो जीने नहीं दूंगा ! मार ही डालूंगा ! क्या ईश्वर किसी सतही स्टंट फिल्म का माफिया डान है कि तुम्हारे किए का बदला मैं तुम्हारे पूरे खानदान से लूंगा !

क्या ईश्वर को ऐसा होना चाहिए ?

ईश्वर को मानने वालों की सतही सोच ने उसे किस स्तर पर ला खड़ा किया है!

वैसे अगर ईश्वर वाकई है तो क्या उसे यह अच्छा लगता होगा !?

संवादघर पर पूर्व-प्रकाशित

68 comments:

  1. अच्छा व्यंग्य है. ईश्वर को मानने वालों के ऐसे वक्तव्य ये दर्शाते हैं कि वे लोग डर के मारे ईश्वर को मानते हैं.

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    "इससे भी अजीब बात यह है कि ईश्वर क्या किसी मोहल्ले के दादा की तरह अहंकारी और ठस-बुद्धि है जो कहता है कि सालो अगर मुझे सलाम नहीं बजाओगे तो जीने नहीं दूंगा ! मार ही डालूंगा ! क्या ईश्वर किसी सतही स्टंट फिल्म का माफिया डान है कि तुम्हारे किए का बदला मैं तुम्हारे पूरे खानदान से लूंगा !

    क्या ईश्वर को ऐसा होना चाहिए ?
    ईश्वर को मानने वालों की सतही सोच ने उसे किस स्तर पर ला खड़ा किया है!
    वैसे अगर ईश्वर वाकई है तो क्या उसे यह अच्छा लगता होगा ?


    अच्छे सवाल हैं पर जवाब कोई नहीं देता... धंधे जो चलते हैं आजकल अधिकाँश के ईश्वर के नाम पर...

    मैंने भी एक बार कुछ ऐसा ही सवाल किया था... एक कुटिल ईश्वर को क्यों माना जाये ?

    आप देख सकते हैं कि टिप्पणियों में तक मुझे उसका भय दिखाया जा रहा है!


    ...

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    1. "अच्छे सवाल हैं पर जवाब कोई नहीं देता... धंधे जो चलते हैं आजकल अधिकाँश के ईश्वर के नाम पर.."

      जवाब हैं, अगर आप सच में जानना चाहें तो। :-)

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  3. जी हा ईश्वर को उसके मनाने वालो ने मोहल्लो का दादा ही बना दिया है सुना होगा की फला व्रत नहीं किया फला देवी देवता की पूजा नहीं की तो तुम्हारे सब कुछ ले लेगा पूजा ठीक से नियम से नहीं किया तो भी वो तुम्हारा सब कुछ ले लेगा | वो दूसरो को क्षमा करना सिखाता है लेकिन खुद अपने ना मानने वालो से बदला लेता है | लोगों का व्यवहार देख कर तो यही लगता है की लोग ईश्वर को श्रद्धा से नहीं डर से मनाते है की नहीं माना तो वो हमारी धन सम्पति परिवार छीन लेगा या हमें नहीं देगा |

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  4. एक बात तयं है इश्वर कुछ भी हो लेकिन इस पोस्ट को पढने के बाद मुझे लगता है उसका चरित्र चित्रण करने का हक़ तो अपने को बनता है...
    ईश्वर का काफी कुछ रूप खिसियानी बिल्ली से मेल खाता है...जब कोई उसके अस्तित्व को नकारता है तो वो खिसिया जाता है और खिसियाहट ना मानने वाले के ऊपर ना उतार कर....अपनी पूजा अर्चना करने वाले पे उतरता है...
    इससे सिद्ध होता है की ईश्वर अहंकारी और ठस-बुद्धि है.... वो गुस्से में कुछ भी कर सकता है ...

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  5. प्रवीन जी, मैंने आपकी पोस्ट पढ़ी। डर के अलावा दूसरा तत्व लालच है जो ईश्वर के पास लाता है। मुझे लगता है कि अगर कोई व्यक्ति दूसरों को डराकर ख़ुदको साबित करना चाहता है तो उसका ईश्वर भी वैसा ही होगा। कोई अगर दूसरों को लालच देकर प्रभावित करना चाहता है तो वह ख़ुद भी ईश्वर के पास किसी लालच की वजह से जाता होगा। कोई अगर झूठी प्रतिष्ठा पर ज़िंदगी कुरबान कर देता है तो वह येन-केन-प्रकारेण अपने ईश्वर की प्रतिष्ठा बनाने की कोशिश करेगा। ईश्वर का होना शायद अंततः हमारे जीवन मूल्यों से ही आता है कि हम जीवन में सफ़लता या उपलब्धि मानते किस तरह की चीज़ों को है। आप सभी के विचारों के बाद मैं अपनी बात को स्पष्ट करने और बढ़ाने की कोशिश करुंगा। ya shaayad aapke vichaaroN ke baad iski zarurat na bhi pade.

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  6. कुछ लोग चाकू कों अपनी ताकत समझते हैं, कुछ लोग जेब में रखी नोटों की गड्डी कों । कुछ लोग मानवता कों , तो कुछ लोग हरि-नाम से ही खुद कों सुरक्षित एवं ताकतवर समझते हैं। अपनी अपनी श्रद्धा है ।

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  7. बेहतर...

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  8. ज़ील जी, आपकी भावनाओं के प्रति आदर के बावजूद मैं यह कहने से ख़ुदको नहीं रोक पा रहा हूं कि ईश्वर के होते अगर हम सुरक्षित हैं तो हमें सेना, पुलिस, सभ्यता, संस्कृति वगैरह की ज़रुरत क्यों पड़ती है!?
    हाल ही में कई आर. टी. आई. कार्यकर्त्ताओं के क़त्ल हुए, ईश्वर ने उन्हें तो सुरक्षा नहीं दी ! जबकि हत्यारे माफ़िया निर्भय घूम रहे हैं ! आखि़र किन शर्त्तों पर, किस योग्यता के आधार पर ईश्वर सुरक्षा देता है !?

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    संजय जी ,

    इश्वर एक बहुत बड़ी सत्ता है , Supreme power ! हम सब तो उसकी बनायीं हुई कठपुतलियाँ हैं। उसने तो सृष्टि के खेल रचा है । ऊपर बैठकर अपने मोहरों कों चलता है । हम उसके इशारों पर नाचते हैं। नियति ( destiny ) तो तय है । क्यूंकि भाग्य हम लिखवाकर आते हैं। बस एक मौक़ा वो हमें देता है , उस भाग्य कों बदलने का । कर्मों द्वारा।

    इमानदार लोगों का क़त्ल हो रहा है , क्यूंकि बईमानों की संख्या ज्यादा है । माफिया निर्भय घूम रहा है क्यूंकि भष्ट लोगों का साम्राज्य है । ज़रुरत है अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की , ना की इश्वर से।

    वैसे कहा गया है --" God helps those who help themselves "

    अन्यथा -- " अजगर करे ना चाकरी , पंछी करे ना काज , दास मलूका कह गए , सब के दाता राम "

    जब हम अपने दायित्वों कों समझेंगे और सार्थक प्रयास करेंगे तो मन माफिक परिणाम भी मिलेंगे। इमानदारी का राज होगा और माफिया का अंत होगा।

    इश्वर ( श्री कृष्ण ) ने कहा है , " कर्म करते चलो , फल की इच्छा मत करो "

    औए स्वर्गीय श्री यशवंत सोनावने जी ने अपने कर्तव्यों कों बखूबी निभाया। उनकी शहादत कभी व्यर्थ नहीं जा सकती । आज उनकी शहादत का ही परिणाम है की धडाधड छपे पड़ रहे हैं और माफिया की धर-पकड़ जारी है।

    इश्वर के खेल निराले हैं संजय जी । ये जीवन एक रणभूमि है , जिसमें निरंतर संघर्ष जारी है ।

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    संजय जी ,

    मेरी बातों से यदि आपकी भावनाओं कों ज़रा भी ठेस पहुंची हो तो करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।

    .

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  11. ज़ील जी, यूं तो नास्तिकों को आए दिन ठेस की आदत हो जाती है और आपने तो ऐसा कुछ कहा भी नहीं। ईश्वर की लीला आदि को लेकर आपने जो कहा उसका जवाब देकर मैं दोहराव नहीं करना चाहता। उसका जवाब मेरी इसी पोस्ट में और प्रवीण शाह जी की (उनके कमेंट से लिंकित) पोस्ट में पहले से मौजूद है।

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  12. हाँ जी!
    ईश्वर तो मुहल्ले के दादाओं का भी दादा है!

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  13. GOD is great. his every situtation every movement has some reasons.
    [i appolige for my bad english.]

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  14. ऐसे सवाल अक्सर मुझे भी परेशान करते हैं ! यदि इश्वर है तो वह उन पर सर्वाधिक श्रद्धा रखने वाले अपने भक्तों को सदा मुसीबत में क्यों रखता है ! आप लोग विचार विमर्श के द्वारा किसी तर्कसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचें तो कृपया मुझे भी अवश्य बताइयेगा ! बढ़िया पोस्ट ! बधाई एवं आभार !

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  15. आस्त्कि लोग अक्‍सर इस तरह के 'समझदारी' भरे वक्‍तव्‍य देते रहते हैं।

    ---------
    अंतरिक्ष में वैलेंटाइन डे।
    अंधविश्‍वास:महिलाएं बदनाम क्‍यों हैं?

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  16. अच्छा लेख है .. बढ़िया चर्चा है .. इस पर विचार अवश्य किया जाना चाहिए
    लेकिन जाकिर भाई,
    एक सवाल दिल में उठा रहा है
    क्या आप इसी तरह के समझदारों (आपके ही शब्द हैं ) को आस्तिकता का रीप्रजेंटेटिव साबित करना चाहते हैं ? अच्छा होता की आप स्वामी विवेकानंद जैसे किसी व्यक्ति की बातों को एनालाइज करते
    या नास्तिक लोग अपनी बात को कहने के लिए इसी तरह के समझदारी भरे स्टेटमेंट का इन्तजार करने को मजबूर रहते हैं

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  17. god is a form of energy which regulate the whole world and we r not able to understand its management.
    ranjan vishada

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    1. क्षमा चाहूंगा पर बड़ा ही खोखला तर्क है.

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  18. पिछली ही पोस्ट में भगत सिंह के विचार हैं।

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  19. अंदाजा था मुझे :)

    http://my2010ideas.blogspot.com/2010/12/blog-post_15.html

    (भगत सिंह नास्तिक थे या आस्तिक ? चर्चा और आज का युवा)

    इस पोस्ट में भगत सिंह (के आस्तिक या नास्तिक होने पर ) पर विचार विमर्श है (सन्दर्भ सहित)

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  20. मैंने सिर्फ़ इतना कहा कि पिछली पोस्ट में भगतसिंह के विचार हैं। वे नास्तिक थे या आस्तिक यह तो वे ख़ुद होते तो बताते, लेकिन उनके विचार भी कुछ कह रहे हैं।
    आपकी पोस्ट मैंने पढ़ी।
    आस्तिक होना देशप्रेम की गारंटी कैसे है ?
    आस्तिक होना सकारात्मक सोच का होना कैसे है ? नास्तिक होना नकारात्मक होना कैसे है ?
    जिन लोगों को देशप्रेम के लिए बार-बार कोई दुश्मन ढूंढना पड़ता हो उनकी सोच सकारात्मक कैसे हुई ?

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  21. आपकी यही बात मुझे अच्छी लगी आप एक अच्छे बोलर की तरह सही लाइन और लेंथ बनाए रखते हैं .. कहने का मतलब है बात आप तार्किक करते हैं , फिर भी ब्लॉग जगत में ऐसे बहुतेरे [पाठक ] है जो ये मानेंगे की ब्लॉग का नाम है "नास्तिकों का ब्लॉग" और भगत सिंह के विचार मतलब भगत सिंह भी नास्तिकों की टीम के आइकन बन चुके है या फिर ऐसा दिखाने की कोशिश की जा रही है .. और ऐसे बुद्दिजीवी[?] पाठक प्रतिक्रियाएं भी इतनी सुन्दर देते हैं की पता ही नहीं चलता की इन्होने लेख को किस अर्थ में समझा :)) और इस बात को मैं भी मानता हूँ की भगत सिंह जैसे व्यक्तित्व को इस नाम से बने किसी ब्लॉग पर इस तरह जोड़ना जाने अनजाने ऐसा प्रयास लगता तो है

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  22. @ आस्तिक होना देशप्रेम की गारंटी कैसे है ?
    @ आस्तिक होना सकारात्मक सोच का होना कैसे है ?
    @ नास्तिक होना नकारात्मक होना कैसे है ?
    @ जिन लोगों को देशप्रेम के लिए बार-बार कोई दुश्मन ढूंढना पड़ता हो उनकी सोच सकारात्मक कैसे हुई ?

    सारे प्रश्नों का उत्तर एक साथ ही देता हूँ (मैं बिलकुल वो बात लिख रहा हूँ जो मुझे लगती है) मैं मानता हूँ कोई कांसेप्ट या थीम या विचारधारा गलत नहीं होती चाहे दिखने में वे विपरीत हों (जैसे हिंसा और अहिंसा दोनों ) उसका गलत या गैर जरूरी इम्प्लीमेंटेशन मूल समस्या है .. सोचिये
    ....अगर मैं इश्वर भक्ति को इतना महत्त्व दूँ और देशभक्ति को प्राथमिकता ना दूँ तो ऐसी आस्तिकता किस काम की ? ये आस्तिकता का गैर जरूरी इम्प्लीमेंटेशन हुआ
    या
    .....पडोसी पर अन्याय हो रहा है और दूसरा पडौसी मानवता भूल कर आस्तिकता का पालन (माना पूजा आदि) कर रहा है तो आस्तिक होने का क्या फायदा ? ये भी आस्तिकता का गैर जरूरी इम्प्लीमेंटेशन है

    इसी तरह इस लेख में जिनकी बातों पर विचार विमर्श किया है वो भी गैर जरूरी है (मुझे ऐसा लगता है ) ये बात अलग है आपने अपनी विचार शक्ति से तार्किक प्रश्न जरूर खड़े किये हैं और जिनके उत्तर भी बेहद आसान है पर सन्दर्भ के बिना भावना में बहकर दिए गए उत्तर और लिखे लेख मुझे प्रभावहीन लगते हैं इसलिए मौन ही रहना ठीक माना है

    ये नास्तिकों का ब्लॉग है इसका आशय ये क्यों है की आप सिर्फ आस्तिकों की (जिनके कांसेप्ट क्लियर ना लग रहे हों, ये भी कोई बुरी बात नहीं है ) चीरफाड़ की जाये ? इसिलए मैंने कहा था विवेकानन्द के विचारों को अनलाईज करें

    मैं आपसे ये बिलकुल नहीं पूछुंगा

    ~~क्या आप आस्तिकों का अकर्मण्य मानते हैं ?
    ~~क्या आप मानते हैं आस्तिक लोग तार्किकता के मामले में पैदल होते हैं ?
    ~~क्या आप आस्तिक लोगों को जीवन में असफल मानते हैं ?
    क्योंकि मैं जानता हूँ इन बातों को पूछने का कोई मतलब नहीं है :)
    बस उम्मीद करता हूँ की आपके पाठक और आप मेरे प्रश्नों का उत्तर (अवचेतन मस्तिष्क में ) "हाँ" में ना रखते हों

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  23. चूंकि नास्तिकता की तरफ़ से ऐसे प्रयास अपेक्षाकृत बहुत कम हुए हैं सो इस तरह का प्रस्ताव आया तो मैं उसमें शामिल हो गया मगर इसका मतलब यह नहीं कि इस ब्लॉग के सदस्य हर बात पर एक-दूसरे से सहमत ही हैं।
    आप भी नास्तिकों की तार्किक चीर-फ़ाड़ करें तो यहां किसी को कोई ऐतराज़ शायद ही होगा।
    यूं तो आपके तर्क की ही तर्ज़ पर यह भी कहा जा सकता है कि:
    ‘अगर मैं देशभक्ति को महत्व दूं और मानवता को न दूं ...’ या फिर...‘जो देशभक्ति मानवता के आड़े आ रही हो वो किस काम की’....

    फिर भी आपने ख़ुद ही कुछ समझदारी भरे उत्तर सामने रख दिए हैं कि मुझे कुछ कहने की ज़रुरत ही नहीं है, जैसे:
    ".....पडोसी पर अन्याय हो रहा है और दूसरा पडौसी मानवता भूल कर आस्तिकता का पालन (माना पूजा आदि) कर रहा है तो आस्तिक होने का क्या फायदा ? ये भी आस्तिकता का गैर जरूरी इम्प्लीमेंटेशन है "

    पर इंपलीमेंटेशन भी तो व्यक्ति-व्यक्ति की समझ पर निर्भर है !

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  24. मैं ऐसा बिलकुल ज़रुरी नहीं मानता कि सभी आस्तिक अकर्मण्य, असफल या तर्क से पैदल होते हैं। सभी नास्तिको पर भी यह बात लागू नहीं होती।

    हां, मुझे यह ज़रुर लगता है कि नास्तिक अगर कोई पारिवारिक माहौल की वजह से नहीं है बल्कि बाद में हुआ है, तो संभावना ज़रुर है कि वह तर्कशील हो। क्योंकि नास्तिक, समाज में विरले ही पाए जाते हैं। जहां नास्तिकता का नाम भी अचरज की वस्तु हो, ऐसे में संभावना यही लगती है कि कोई तर्क भीतर या बाहर से आया होगा जिसने उसका मन बदल दिया होगा। तर्क सिर्फ़ बाहर से आया हो तो शायद नास्तिकता ज़्यादा दिन टिकेगी नहीं। हां, बाहर के तर्क ने भीतर की तार्किकता को जगा दिया हो तो बात अलग है।
    मैं नहीं मानता कि यह लेख संदर्भहीन है मगर आपसे ज़बरदस्ती भी नहीं कर सकता।

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  25. @आप भी नास्तिकों की तार्किक चीर-फ़ाड़ करें तो यहां किसी को कोई ऐतराज़ शायद ही होगा।

    मैंने कोशिश की ..... और पाया की मुद्दा तो पीछे छूट जाता है ब्लोगर्स व्यक्तिगत स्तर पर नाराज होने लगते हैं. वे बस हाँ में हाँ मिलाने वाले कमेन्ट ही ज्यादा पसंद करते हैं ऐसे कमेन्ट अक्सर ब्लॉग साइकिल की पूर्ति करते है और कुछ नहीं अर्थात "कमेन्ट दो ....कमेट लो" का सिद्दांत .... ये तो मानव स्वभाव का एक पहलु भर है ... किसी में होता है किसी में नहीं होता ... पर अब ऐसे बुद्दिजीवीयों (आस्तिक हों या नास्तिक ) से चर्चा करने से या उनके ब्लॉग पर जाने से बचता ही हूँ :)

    @पर इंपलीमेंटेशन भी तो व्यक्ति-व्यक्ति की समझ पर निर्भर है !
    मुझे ये साइकोलोजी से जुडा मुद्दा लगता है और अब मुझे इस दुनिया के बेस्ट साइकोलोजिस्ट की याद आ रही है
    ये लेख अवश्य पढियेगा आप जैसे तार्किक पाठक और स्वस्थ चर्चाकार कम ही मिलते हैं इसलिए ये लेख देते हुए मुझे खुशी हो रही है
    यहाँ पर :
    http://my2010ideas.blogspot.com/2010/03/blog-post_13.html
    कहने का आशय है की कृष्ण को भगवान् नहीं साइकोलोजिस्ट के तौर पर देखें और गीता को cognitive behaviour therapy (CBT) session के रूप में तो विचारों में देखें परिवर्तन संभव है ... गौर करें की अर्जुन को भी गीता का ज्ञान तभी प्राप्त हुआ जब सखा भाव से आगे बढ़ते हुए वो कृष्ण को गुरु मानने लगा .. तो कुल मिलाकर बात सिर्फ नजरिये की है

    ~~~~
    नज़र को बदलो तो नज़ारे बदल जाते है ।
    सोच को बदलो तो सितारे बदल जाते है ।
    कश्ती को बदल ने कि जरुरत नही ।
    दिशा को बदलो तो किनारे ख़ुद -बा -ख़ुद बदल जाते है .
    ~~~~

    @मैं ऐसा बिलकुल ज़रुरी नहीं मानता कि सभी आस्तिक अकर्मण्य, असफल या तर्क से पैदल होते हैं। सभी नास्तिको पर भी यह बात लागू नहीं होती।
    आपके विचार जानकार प्रसन्नता हुयी लेकिन क्या ऐसा नहीं है की नास्तिक होना आस्तिक होने से ज्यादा आसान और सुविधाजनक और आधुनिकता के "स्टीकर" भी बनता जा रहा है ... आसान होने से आशय है नास्तिक होने की स्थिति में एक तर्क तो हमेशा तैयार रहता है की भगवान् किसी ने देखा है क्या ? (लगभग इसी तरह का)

    @ मैं नहीं मानता कि यह लेख संदर्भहीन है मगर आपसे ज़बरदस्ती भी नहीं कर सकता।
    मैंने ठीक से बात को स्पष्ट नहीं किया शायद ....मेरे कहने का आशय था मुझे आपका लेख उसमें मौजूद प्रश्नों की वजह से तार्किक लगा लेकिन मैं उत्तर में दिए कमेन्ट या लेख अगर देता हूँ तो सन्दर्भ के बिना देना पसंद नहीं करता . मतलब ये मेरी लेखन की आदत में शामिल है ..मैं इसे इस लेख की कमीं के रूप में बिलकुल नहीं देखता

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  26. ‘नास्तिक होना आसान और सुविधाजनक है’ को तो मैं एक क्रूर मज़ाक ही कह सकता हूं दोस्त। आप वामपंथ से जुड़े नास्तिकों को छोड़ दें तो आपको अपनी कॉलोनी, अपने शहर में कितने नास्तिक दिखाई पड़ते हैं ? आदमी घोषणाएं कैसी भी करे मगर औसत आदमी आसान रास्ते ही अपनाता है। दहेज और रिश्वत के खि़लाफ़ भी आदमी अकसर तभी जागता जब या तो उसके पास देने को नहीं होता या फिर उसपर इसकी वजह से कोई मुसीबत आ पड़ती है। अधिकांश तो तब भी नहीं जागते। अगर नास्तिक होना आसान होता तो चारों तरफ़ नास्तिक ही नास्तिक दिखाई पड़ते। वामपंथियों से मेरा वास्ता और जान-पहचान तो पिछले कुछ ही सालों से है, उससे पहले का मेरा सारा अनुभव यही है कि जहां भी रहा, नास्तिक ढूंढे से भी नहीं मिलते थे। समाज में घोषित नास्तिक को तो बात-बात पर तर्क देने पड़ते हैं, सफ़ाई देनी पड़ती है।

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  27. आप देखिए न, एक नास्तिकों का ब्लॉग बना और कितने लोग हैरान और परेशान हो गए। कल्पना कीजिए कि जैसे लोगों के पास आए दिन जागरन, कीर्तन के बुलावे आते हैं वैसे ही कोई पड़ोसी आए और कहे कि आज हमारे यहां नास्तिक-सभा है, आप ज़रुर आएं तो लोगों की प्रतिक्रिया कैसी होगी और कितने लोग कितनी देर तक सामान्य रह पाएंगे !?
    हां, अकसर नास्तिक के पास तर्क की कमी नहीं होती चाहे वह वामपंथ से मिला हो या उसकी ख़ुदकी समझ से आया हो। आस्तिक के पास अकसर मोटा-सा एक ही तर्क होता है कि भगवान नहीं है तो दुनिया को किसने बनाया। बाक़ी उसके पास भीड़ का बल या बहुसंख्यक होने से मिला ‘आत्मविश्वास’ ही होता है।

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  28. @"मैंने कोशिश की ..... और पाया की मुद्दा तो पीछे छूट जाता है ब्लोगर्स व्यक्तिगत स्तर पर नाराज होने लगते हैं. वे बस हाँ में हाँ मिलाने वाले कमेन्ट ही ज्यादा पसंद करते हैं"

    असहमति किसीको भी बर्दाश्त नहीं है। (खुद मुझे कितनी बर्दाश्त है, मेरे लिए यह भी आत्मविश्लेषण का विषय है।) इसमें नास्तिक या आस्तिक का कोई भेद नहीं है। अहंकार हम सबकी रग-रग में बसा है, उपर से भले हम कितने ही विनम्र दिखने की कोशिश करें। मैंने ख़ुद असहमतियां जता-जताकर कितने ही दोस्त बनने से पहले ही खो दिए हैं। उपर से थोपी गयी सभ्यता और संस्कार व्यक्ति को भीतर से भी विनम्र बनाने में सक्षम हैं या नहीं, यह अलग से लंबी बहस का विषय है।

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  29. @उपर से थोपी गयी सभ्यता और संस्कार व्यक्ति को भीतर से भी विनम्र बनाने में सक्षम हैं या नहीं, यह अलग से लंबी बहस का विषय है

    दरअसल बिना गुरु के ज्ञान होना है ही असंभव.... व्यवहार में लाना तो दूसरी स्टेप है मैंने स्वघोषित नास्तिकों के इतने हास्यादपद तर्क पढ़ें जिन्हें देखकर ये पता चल जाता है की इन्होने अपने जीवन में किस ग्रन्थ की शक्ल ठीक से नहीं देखी ..चिंतन के लिए या गुरु से ज्ञान लेने के लिए दो मिनट देना तो दूर की बात है (खाली समय में से भी ) पर ऐसे लोगों में मैंने धर्म की आलोचना करने की असीमित उर्जा देखी है .. अब बिना दोनों पक्ष जाने बिना जज बन चुके लोग अक्सर धर्म और इश्वर को कटघरे में खड़ा कर .. सजा भी सुना देते हैं ..
    इसीलिए मैंने कहा है

    @नास्तिक होना आसान और सुविधाजनक है

    आपने वो संवाद सुना होगा ....
    "... फैसला ओन द स्पोट " :))

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  30. आपकी इन बातों से १०० प्रतिशत सहमति है

    @आदमी घोषणाएं कैसी भी करे मगर औसत आदमी आसान रास्ते ही अपनाता है।
    @दहेज और रिश्वत के खि़लाफ़ भी आदमी अकसर तभी जागता जब या तो उसके पास देने को नहीं होता या फिर उसपर इसकी वजह से कोई मुसीबत आ पड़ती है। अधिकांश तो तब भी नहीं जागते।

    मैं खुद भी छोटे मोटे व्यक्तिगत या सामूहिक सुधार में ही यकीन रखता हूँ मुझे लगता है ज्यादा बड़े प्रोजेक्ट पर बने लेख सिर्फ कमेन्ट बाजी और छद्दम बुद्दिमानी का प्रदर्शन और जबानी जमा खर्च ही होते हैं

    note : मेरी इस बात में सुरेश चिपलूनकर जी और सारथि जैसे चिठ्ठे शामिल नहीं हैं

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  31. @आप देखिए न, एक नास्तिकों का ब्लॉग बना और कितने लोग हैरान और परेशान हो गए।

    आप ब्लॉग की बात कर रहे हैं मेरे तो कमेन्ट से ही परेशान हो जाते हैं चाहे मुझ से इस बारे पुछा जाये तो भी उत्तर सुनकर ही परेशान हो जाते हैं ... ऐसा एक कमेन्ट नीचे दे रहा हूँ आप भी चाहें तो हटा सकते हैं

    आप किसी ऐसे वैसे "फर्जी आस्तिक" का परेशान होना काउंट ना किया करें ... ठीक वैसे ही जैसे मैं इस तरह के [तार्किक] लेखों [अभी उत्तर देना शेष है ] पर सुविधाजनक वाले नास्तिकों के "सुन्दर हाँ हाँ कमेन्ट" काउंट नहीं करता
    (मुझे खुद आपसे बात करके ख़ुशी हुयी है कुछ बुरा नहीं लगा .... उम्मीद है आपको भी नहीं लगा होगा )

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  32. ये है वो परेशानी[?] देने वाला कमेन्ट
    [आप चाहें तो इसे पढने के बाद हटा सकते हैं , ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ये पढने के बाद मैंने कईं लोगों को परेशान, दुखी , क्रोधित होते पाया है , मैं भी नहीं जानता क्यों ?]
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    वाल्मीकीय रामायण का पूरा उत्तरकांड कल्पनिक है और हजारों/लाखों वर्षों बाद मूल में जोड़ा गया. सीता-परित्याग और शंबूक-वध की घटनायें पूर्णतः असत्य हैं.

    संपूर्ण रामकथा महर्षि वेदव्यास ने भी महाभारत के वनपर्व के रामोपाख्यान पर्व में लिखी है. ब्रह्मांड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, कूर्म पुराण, वाराह पुराण, लिंग पुराण, नारद पुराण, स्कंद पुराण, पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, नरसिंह पुराण में भी रामकथा का वर्णन है, लेकिन सीता-परित्याग एवं शंबूक वध का कहीं उल्लेख तक नहीं किया गया है. वस्तुतः सीता-परित्याग की प्रामाणिकता है ही नहीं.

    उत्तरकांड के रचनाकार द्वारा योजनाबद्ध ढंग से निहित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वाल्मीकीय रामायण में उत्तरकांड को जोड़ा गया और प्रचार किया गया.
    विस्तृत जानकारी के लिये पुस्तक प्रत्येक भारतीय को पढ़नी चाहिए. वाराणसी के प्रतिष्ठित प्रकाशक संस्कृति ने यह पुस्तक प्रकाशित की है. निम्न पते पर यह पुस्तक हमेशा उपलब्ध है --

    संस्कृति शोध एवं प्रकाशन
    एन ८/सी, बृज एन्कलेव (मधुवन उपवन के सामने),
    सुन्दरपुर, वाराणसी-२२१००५
    ई-मेल - sanskritishodh@gmail.com,
    deenbandhuvns@sify.com

    http://bksinha.blogspot.com/2009/04/blog-post.html
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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  33. यहां तो फिर से मुर्गी या अंडा वाली बहस शुरु हो जाएगी कि जो सबसे पहले गुरु रहे होंगे उन्हें ज्ञान किसने दिया होगा।
    किस ग्रंथ में कब क्या जोड़ा-घटाया गया, इस विषय में बिना प्रमाण के कुछ भी कहना मैं उचित नहीं समझता।
    आपसे बात करके मुझे बुरा नहीं लगा।

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  34. चर्चा जारी रहे......

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  35. @ जो सबसे पहले गुरु रहे होंगे उन्हें ज्ञान किसने दिया होगा।
    ये तार्किकता का लगभग गैर जरूरी सा इम्प्लीमेंटेशन है (ये कहते हुए मुझे कुछ अजीब लग रहा पर बात प्राथमिकता की है ) यहाँ पर "मानवता को फायदा किससे" वाला कांसेप्ट लागू होना चाहिए .. मतलब पहला स्टेप है ये स्वीकारना और और दिल से स्वीकारना की ये बातें सच में एक उन्नत समाज की और ले जा सकती हैं ..मिलावट किस चीज में नहीं होती पर टेस्टिंग के अलग अलग तरीके होते हैं और शुद्दता का पता चल सकता है

    बेस्ट formula है "प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता"

    अक्सर "नास्तिक" होने के चक्कर में लोग मानव जाति की दृष्टि से फायदेमंद चीज को भी बेदर्दी से इग्नोर कर देते हैं
    उदाहरण भी देता हूँ ... प्रिय मित्र प्रवीण शाह जी के ब्लॉग से

    व्रत उपवास और इश्वर से सवाल ........ इतनी दूर कनेक्शन जोड़ने से बेहतर होता वे किसी वैद्य / डॉक्टर से फोन करके पूछ लेते :))
    http://praveenshah.blogspot.com/2010/09/blog-post_25.html

    मन्त्र उच्चारण
    http://praveenshah.blogspot.com/2010/11/purpose-of-life-elementary-my-dear.html?showComment=1289879516965#c1101961974046942228

    (ऐसी कुछ और पोस्ट भी हैं ... ऐसे और ब्लॉग भी हैं ...लेकिन मुझे प्रवीण शाह जी की ब्लोगिंग स्पिरिट पर यकीन है .... सबसे ज्यादा यकीन ..... इसलिए सिर्फ उनके ब्लॉग के ही लिंक दे रहा हूँ ... उनकी ये बात मुझे अच्छी लगती है की वो सही बात का गैर जरूरी विरोध नहीं करते और उनके कमेन्ट और लेख उनकी प्रोफाइल में लिखी बातों से मेच करते है, ब्लॉग जगत में ऐसा होना दुर्लभ ही है )

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  36. @किस ग्रंथ में कब क्या जोड़ा-घटाया गया, इस विषय में बिना प्रमाण के कुछ भी कहना मैं उचित नहीं समझता।

    बिलकुल ठीक ........लेकिन ये एक प्रतिक्रियात्मक कमेन्ट है जो मैं तब देता हूँ जब इसी "अनकहे पर पालन योग्य नियम" ("बिना प्रमाण के कुछ भी कहना मैं उचित नहीं समझना")का उल्लंघन होता है
    अक्सर नास्तिक लोग एक और तो प्रमाण की बात करते हैं दूसरी और बेहद..... बेहद अप्रमाणिक घटनाओं (शम्बूक वध , सीता परित्याग और ऐसी ढेरों हैं ) का हवाला देकर (जिसका उत्तर वो कमेन्ट है जो मैंने दिया है ) गैर जरूरी विरोध को जन्म देते हैं और इससे चर्चा के सार्थक परिणाम नहीं आते ..कभी कभी लगता है अधिकतर केसेज में आस्तिकता के लुप्त होने के साथ तार्किकता भी लुप्त होने लगती है
    मेरे पिछले कमेन्ट का भी "ब्लोगीय घटना सन्दर्भ" देता पर मुझे डर है मुझे नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है ..सभी ब्लोगर्स शाह जी की तरह मस्त"राम" तो नहीं हो सकते ना :)

    @आपसे बात करके मुझे बुरा नहीं लगा।

    मेरा सौभाग्य है :)

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  37. इस प्रकृति से परे किसी ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है ।

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  38. ग्लोबल जी, आपने प्रोफ़ाइल की बात की तब पहली बार जाकर मैंने आपका प्रोफ़ाइल देखा। नाम और चित्र दोनो ही वास्तविक नहीं लगते। पर मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे सिर्फ उन्हीं बातों से मतलब है जो यहां आप कर रहे हैं। वैसे भी मेरे पास ऐसा कोई नेटवर्क उपलब्ध नहीं है कि मैं हर ब्लॉगर या लेखक के बारे में पता करवाउं कि जो वो लिख रहा है, जीवन में भी करता है या नहीं।
    मैं इतना ही कहूंगा किसीको ओम या हू करने से कोई फ़ायदा होता है (जैसे कि आपने प्रवीण जी के यहां कमेंट किए हैं) तो वह ज़रुर करे। मगर दूसरों से, उनकी मर्ज़ी के बिना ज़बरदस्ती करवाने की कोशिश करे, यह सर्वथा अनुचित है।
    यही बात समझने की है कि तार्किकता का इंपलीमेंटेशन कहां किसके लिए ज़रुरी या गैर ज़रुरी है, यह जब सबके लिए एक ही व्यक्ति या समूह तय करना शुरु कर देता है तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज के लिए खतरे की घंटी होती है। इससे यह संकेत भी मिलते हैं कि वह व्यक्ति या समूह अहंकारी है और तानाशाह होने की तरफ़ बढ़ रहा है। यह कितना बड़ा अहंकार है कि एक व्यक्ति या समूह यह मानने लगता है कि सिर्फ हम ही इतने ज्ञानी, विवेकवान और अनुभवी हैं कि सारी दुनिया के लिए खाना-पीना-पहनना-उठना-बैठना हम ही तय करेंगे!?

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  39. @ग्लोबल जी, आपने प्रोफ़ाइल की बात की तब पहली बार जाकर मैंने आपका प्रोफ़ाइल देखा। नाम और चित्र दोनो ही वास्तविक नहीं लगते। पर मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

    पड़ना भी नही चाहिए .. आधे से ज्यादा ब्लॉग जगत में प्रोफाइल पर असली फोटो नहीं है , और मैंने नाम भी अभी अपडेट (बदला) किया है (२०११ में ) , लोकेशन ट्रेकर (यदि हो ) से छिप नहीं सकती ...नाम वसुधैव कुटुम्बकम से प्रेरित है ...और इस बात का प्रतीक भी की "मैं बाद में पहले मेरी संस्कृति को प्राथमिकता है" (जो की पूरे ग्लोब को फेमिली मानती है) वर्ना प्रोफाइल पर अपना नाम लिखना किसे अच्छा नहीं लगता होगा ?

    @वैसे भी मेरे पास ऐसा कोई नेटवर्क उपलब्ध नहीं है कि मैं हर ब्लॉगर या लेखक के बारे में पता करवाउं कि जो वो लिख रहा है, जीवन में भी करता है या नहीं।

    होता तो भी मैं यही कहता की इससे बेहतर तरीका है की.......... आप कमेट और पोस्ट मेच करें . यकीन मानिए रियल लाइफ में कोई बनावट दिखा सकता है .....लेकिन यहाँ पर हर बात रिकोर्ड होती है .... बच पाना ज्यादा मुश्किल है ...विचारों में दोहरापन पकड़ने में देर नहीं लगती ..ये जो मेचिंग की बात मैंने कही है ये कुछ विशिष्ट ब्लॉग अनुभवों पर आधारित है .. अगर वे लोग इस चर्चा को देख रहे हैं तो खुद ही समझ जायेंगे ..मैं किसी प्रोफाइल का :-)) व्यक्तिगत अपमान नहीं करता .. प्रवीण जी से तो अच्छी मित्रता है (और उनके ब्रोड माइंडेड ब्लॉग व्यक्तित्व को देखते हुए) उनके ब्लॉग के लिंक दे दिए

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  40. @मैं इतना ही कहूंगा किसीको ओम या हू करने से कोई फ़ायदा होता है (जैसे कि आपने प्रवीण जी के यहां कमेंट किए हैं) तो वह ज़रुर करे। मगर दूसरों से, उनकी मर्ज़ी के बिना ज़बरदस्ती करवाने की कोशिश करे, यह सर्वथा अनुचित है।

    शायद यहाँ कोई गलत फ़हमी हो रही है .....मुझे नहीं लगता उस पोस्ट में कोई भी किसी से जबरदस्ती कर रहा है . एक दम स्वस्थ और साफ़ सुथरी चर्चा है जिसमें अंत में साइंस ही जीतता नजर आ रहा है ....मैं नहीं...... कोई विशेष धर्म नहीं ....कोई ग्रुप नहीं .. सिर्फ और सिर्फ साइंस ...

    (या आस्था के साथ जब साइंटिफिक तर्क जुड़ते हैं तो उसे "साइंटिफिक आस्था" की जगह "जबरदस्ती" का टेग तो नहीं दे दिया जाता ?) शेष उत्तर अगले कमेन्ट में ...

    @यही बात समझने की है कि तार्किकता का इंपलीमेंटेशन कहां किसके लिए ज़रुरी या गैर ज़रुरी है, यह जब सबके लिए एक ही व्यक्ति या समूह तय करना शुरु कर देता है तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज के लिए खतरे की घंटी होती है।

    ये कहने से बेहतर होता आप मुझसे और स्पष्टीकरण ले लेते .इससे तो ऐसा लगता है आपने मुझे कोई फर्जी आस्तिक समझ लिया है जिसने सिर्फ रटा है बातों को ...... चिंतन नहीं किया ... इसका शेष उत्तर अगले कमेन्ट में

    @ यह कितना बड़ा अहंकार है कि एक व्यक्ति या समूह यह मानने लगता है कि सिर्फ हम ही इतने ज्ञानी, विवेकवान और अनुभवी हैं ........

    इसका उत्तर अगले कमेन्ट में


    @ सारी दुनिया के लिए खाना-पीना-पहनना-उठना-बैठना हम ही तय करेंगे!?
    इसका उत्तर अगले कमेन्ट में

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  41. पता नहीं मैं कितना सही हूँ पर मैंने हमेशा महसूस किया है की जब जब कोई आस्तिक हर बात का उत्तर बिना भक्ति भावना से बहे (एक मित्र की तरह ) ठीक ठाक देने लगता / लगती है तब भी उस पर फर्जी आस्तिकों वाला "तानाशाही" .. "अहंकार" .. "क्या तुम अब लोगों के उठाने बैठने का तरीका भी डिसाइड करोगे" का टेग लगा दिया जाता है ... "यूं तो आस्तिकों को आए दिन ठेस की आदत हो जाती है ......... " :)) खैर अब मुद्दे पर आते हैं ......

    ..मैं आपको बताता हूँ जो सबसे कहता रहा हूँ ..कईं बार कहा है .... और फिर दोहराता हूँ ..

    मानव जीवन (स्वास्थ्य बेसिकली ) का विकास वह धुरी है जिसके आधार पर हम किसी परंपरा को चुनेंगे जो परंपरा इस पर फिट ना हो उसे हटा दो .... सिंपल सी तो बात है

    उदाहरण के तौर पर

    अब अगर सर्दियों में कोई छोटे छोटे कपडे पहन के फेशन कर रहा/रही है तो उसे रोकना गलत नहीं है लेकिन सिर्फ लोजिक बताना है .. समझे तो समझे .. नहीं तो पड़े बीमार .. हमारा क्या ले जाएगा/गी ?... अपना पहला सुख (निरोगी काया) गवायेगा/गी

    किसी महिला से कहा जाये (संस्कृति[?] या समाज का हवाला देते हुये) की वो भरी गर्मियों में मीटरों लम्बीं साड़ी ही पहने ....कोई अन्य आराम दायक वस्त्र नहीं सिर्फ लोगों को मैं भी "फर्जी संस्कृति रक्षक" , "तानाशाह" "अहंकारी " .. "क्या तुम अब लोगों के उठाने बैठने का तरीका भी डिसाइड करोगे" ही कहूँगा

    बेसिक फंडा है "पहला सुख निरोगी काया .. तभी तो संस्कृति पालन करांगा आपन भाया" (राजस्थानी भाषा है )

    सच कहूँ कथित नास्तिक बिना पूरी जानकारी के जिस तरह अपने कचरा विचार जगह जगह बाँट रहे हैं उन पर भी ये टेग ("तानाशाह" "अहंकारी " .. "क्या तुम अब लोगों के उठाने बैठने का तरीका भी डिसाइड करोगे" ) अच्छा लग सकता है ना !

    (मित्र प्रवीण और आप जैसे लोगों को ये टेग नहीं दूंगा .... आप विचार व्यक्त तो करने दे रहे हैं )

    मैं तो किसी से सिगरेट शराब पीने से भी मना नहीं करता क्या पता इससे उसकी स्वतंत्रता छिनती हो ? :)) सिर्फ फायदे और नुकसान बता देता हूँ

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  42. [सुधार]
    किसी महिला से कहा जाये (संस्कृति[?] या समाज[?] का हवाला देते हुये) की वो भरी गर्मियों में मीटरों लम्बीं साड़ी ही पहने (जिसे पहन वो घुटन महसूस करती हो )....कोई अन्य आराम दायक वस्त्र नहीं ...... ऐसे लोगों को मैं भी "फर्जी संस्कृति रक्षक" , "तानाशाह" "अहंकारी " .. "क्या तुम अब लोगों के उठाने बैठने का तरीका भी डिसाइड करोगे" ही कहूँगा

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  43. @सभी से

    सालों तक ऋषि मुनियों ने तप (खोज ) की है तब जाकर रिचुअल्स बनाए हैं ..... इन्हें जीवन शैली में जोड़ा है .. इतनी मेहनत से सबकुछ बनाया है उन्होंने ......इस तरह मत अस्वीकार करों .. उठों युवाओं पहचानो खुद को आने वाली पीढ़ीयों का उद्दार करो .. ( ये निवेदन है हाथ जोड़कर ) माना कुछ मिलावट आ गयी है संस्कृति में लेकिन उसकी वजह विदेशी आक्रमण हैं ..... हम सब (आस्तिक नास्तिक ) मिलकर उस मिलावट को हटायेंगे यारों .. ये हमारा कर्त्तव्य भी है .. सिर्फ एक बार मिल कर प्रयास करने की आवश्यकता है ..

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  44. मैंने ज़बरदस्ती और तानाशाही वाली जो बात कही उसे शायद आप किसी धर्म विशेष, संस्कृति विशेष या समूह विशेष से जोड़कर देख रहे हैं। यह बात आस्तिक, नास्तिक, पूरब, पश्चिम, देसी, विदेशी, स्त्री, पुरुष, आप और मैं....सभी पर लागू होती है क्यों कि हर समूह अंततः व्यक्तियों का जोड़ है और व्यक्ति के स्वभाव में ही यह देखने में आया है कि जैसे ही उसे भीड़ की स्वीकृति मिलने लगती है वह सही ग़लत भूलने लगता है और दुनिया को इस तरह बनाने की कोशिश शुरु कर देता है जिसमें उसके जैसे लोगों को रहने में आसानी हो जबकि दुनिया विविधताओं से भरी है। यहां हर तरह के इंसान को जीने-रहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए जब तक कि वह दूसरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा, किसीसे कोई ज़बरदस्ती नहीं कर रहा। इसीलिए यहां बहुत धैर्य और सावधानी की ज़रुरत है।
    हम एक ऐसे युग में हैं जहां स्त्री, पुरुष, बच्चे सब तेज़ी से मानसिक परिपक्वता की ओर बढ़ रहे हैं और अपने लिए रहने-पीने-खाने-पहनने और ख़ासकर सोचने के फ़ैसले ख़ुद कर रहे हैं।
    आपने इतनी विनम्रता के साथ सारी बात-चीत की, आपका बहुत-बहुत आभार।

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  45. बिलकुल ठीक .... भीड़ की स्वीकृति मिलने से ही समाज में ऐसे एब्नोर्मल कांसेप्ट शामिल हो रहे हैं जिन पर एक लम्बी चौड़ी चर्चा की जा सकती है ..... लेकिन जो मैं कह रहा हूँ उसका सेंटर पॉइंट मानव जाति है

    @यहां हर तरह के इंसान को जीने-रहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए जब तक कि वह दूसरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा,

    स्वतंत्रता.... जब तक की वो किसी को नुकसान ना पहुंचाए ? .......... ये तो बहुत ही नाजुक कांसेप्ट है ! ....जहां कसौटी ही किसी अन्य को "नुकसान" हो .....सीमायें अक्सर पार होती है और नुकसान पहुँचता है (कभी कभी दोनों पक्षों की सहमती से भी).. ये कसौटी स्वास्थ्य वाली कसौटी से बेहतर नहीं हो सकती क्योंकि वहां टेस्टिंग मेकेनिज्म "फायदा", "विकास " "सुविधा" और "आराम दायक" जैसे शब्द हैं

    @हम एक ऐसे युग में हैं जहां स्त्री, पुरुष, बच्चे सब तेज़ी से मानसिक परिपक्वता की ओर बढ़ रहे हैं और अपने लिए रहने-पीने-खाने-पहनने और ख़ासकर सोचने के फ़ैसले ख़ुद कर रहे हैं।

    मैं आपकी बात का सम्मान करता हूँ (दिल से कह रहा हूँ ) लेकिन बढ़ते अपराध किसी समाज की परिपक्वता का सूचक नहीं हो सकते .. ये "मानसिक परिपक्वता[?]" सिर्फ "फील गुड फेक्टर" लगती है (मुझे तो ) .... रुचि होने के कारण मनो विज्ञान पर खोज करता रहा हूँ [अपने स्तर पर ].. श्री कृष्ण , फ्रायड , जुंग , रमण महर्षि के बारे में और इनके विचार पढ़ चूका हूँ इस लिए भी कह रहा हूँ .. हम बहुत बड़े खतरे की और बढ़ रहे हैं .. मुझे पता नहीं किस तरह इस बात को साबित करूँ? पर ये सच है ..आप मेरी बात ना माने तो किसी अच्छे निष्पक्ष सोचने वाले मनोविज्ञान के छात्र से पूछ सकते हैं.. आधुनिक विज्ञान की इतनी क्षमता नहीं है की आने वाली परिस्थियों को संभाल पायें हमें इतिहास की और रुख करना ही होगा

    जब हर इंसान अपने फैसले करने लगता है तो फैसले आपस में टकराते हैं जीतता वही है जो ताकतवर है .. ऐसी व्यवस्था में सुरक्षा की एवरेज गारंटी कम होने लगती है .. ..कोई प्रोपर लोजिक होना चाहिए ....जो फ्लेक्सिबल हो और सब पर समान रूप से लागू हो

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  46. संजय सर ,
    इतनी बड़ी चर्चा में कोई मिस अंडर स्टेंडिंग हो गयी हो ( जो की स्वभाविक भी है ) तो मैं क्षमा चाहता हूँ .... आपने मेरे विचारों को मंच दिया इसके लिए ह्रदय से आभारी हूँ | जहां तक विनम्रता की बात है आपकी विनम्रता का स्तर मुझे मुझसे बेहतर लगा |

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  47. जहां आप , दिनेशराय द्विवेदी जी, लवली गोस्वामी जी , मुक्ति जी, प्रवीण शाह जी जैसे विचारवान मित्र हों .[इन्हें ब्लॉग के माध्यम से पढता रहा हूँ ] .. वहां विचार मंथन में अमृत अवश्य ही निकलेगा इसकी पूरी उम्मीद है

    इस ब्लॉग के सभी मेम्बर्स को ढेर सारी शुभकामनाएँ

    विषयांतर :
    @admin जी
    ब्लॉग में क्लाक सेटिंग कुछ गड़बड़ लग रही है

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  48. *हर व्यक्ति, हर विचारक यही सोचता कि उसकी सोच का सेंटर प्वांइट मानव जाति है।
    *खाप पंचायतों को प्यार ऐब्नार्मल लगता है, प्रेमियों को खाप पंचायतें।
    *अपराध बढ़ रहे हैं या नहीं यह तो पता नहीं मगर चूंकि लोग अब अपराधों को दर्ज़ कराने की हिम्मत करने लगे हैं तो आंकड़ों में उनकी संख्या ज़रुर बढ़ रही है।
    *हर इंसान अपने फैसले नहीं करेगा तो दूसरे उसके लिए करेंगे। कौन फैसले करने योग्य है और कौन थोपे हुए फैसले झेलने को अभिशप्त रहेगा, इसका फैसला कैसे होगा !?
    *आप और आपके साथ जो कोई भी इतिहास में लौटना चाहता है, उसे पूरा हक़ है लौटने का। ज़रुर लौटिए।

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  49. @ हर व्यक्ति, हर विचारक यही सोचता कि उसकी सोच का सेंटर प्वांइट मानव जाति है।

    इसलिए मैंने उदाहरण भी दिए हैं साथ में
    http://nastikonblog.blogspot.com/2011/02/blog-post.html?showComment=1298078816813#c2869555415114998643

    @खाप पंचायतों को प्यार ऐब्नार्मल लगता है, प्रेमियों को खाप पंचायतें।

    आये दिन विक्षिप्त प्रेमियों की विक्षिप्त हरकतों का क्या का क्या ? जो अकेले ही किसी खाप पंचायत जैसे होते हैं ... आपके कांसेप्ट के हिसाब से जब तक वो नुक्सान न पहुंचाएं तब तक उसका कुछ नहीं कहा जा सकता .. असुरक्षा के भय का क्या ????

    @अपराध बढ़ रहे हैं या नहीं यह तो पता नहीं मगर चूंकि लोग अब अपराधों को दर्ज़ कराने की हिम्मत करने लगे हैं तो आंकड़ों में उनकी संख्या ज़रुर बढ़ रही है।

    मतलब आप कह रहे हैं की दबे छिपे अपराध कम हो रहे हैं ? किसी कोलेज, अस्पताल , घर के अंदर बाहर स्त्रियाँ सुरक्षित होती जा रहीं हैं ? सर, मैं भी इसी दुनिया में रहता हूँ

    @हर इंसान अपने फैसले नहीं करेगा तो दूसरे उसके लिए करेंगे। कौन फैसले करने योग्य है और कौन थोपे हुए फैसले झेलने को अभिशप्त रहेगा, इसका फैसला कैसे होगा !?

    आजकल इंसान को दोनों पक्ष कब बताये जाते हैं ? जो वो सही फैसला करेगा/गी ? क्या ये फैसले थोपने जैसे नहीं है ? ऑप्शन तो दिए नहीं जाते ..... फैसला तो इंसान खुद ही करेगा उसे जानकारी तो हो .. मुझे तो युवाओं में जानकारी का स्तर ही ना के बराबर नजर आ रहा है

    @आप और आपके साथ जो कोई भी इतिहास में लौटना चाहता है, उसे पूरा हक़ है लौटने का। ज़रुर लौटिए।

    हाँ तो मित्रों , कौन कौन चलेगा .. जल्दी जल्दी बताओ .. इस बेहतरीन खजाने को देखने के लिए (ऐसे पचासों उदाहरण दे सकता हूँ )

    रिटायर मेजर जनरल श्री बक्शी ने जोर देकर कहा कि भारत की जो सामरिक नीति चाणक्य ने बनाई थी चतुरबल सेना, वह आज भी भारतीय सैन्य शक्ति की ताकत बनी हुई है। फर्क सिर्फ तकनीकी स्तर पर आया है। उन्होंने अनेक उदाहरण देकर मौर्यकाल में बनी चाणक्य अर्थ नीति और सामरिक नीति की वर्तमान सैन्य नीति से तुलना की और कहा कि वर्तमान भारत चाणक्य नीति का अनुसर कर ही विश्व शक्ति बन सकता है। वहीं मेजर बक्शी ने यह भी बताया कि 1972 में हुए पाकिस्तान से युद्ध के समय भारत ने बगैर ज्यादा सोचे 2000 वर्ष पहले चाणक्य द्वारा बनाई गई सामरिक नीति का अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष पालन करते हुए कूटनीति अपनाकर युद्ध में जीत हासिल की थी। उन्होंने युद्ध के पहले शत्रु-मित्र का भेद, पडोसी मुल्कों के बारे में किस प्रकार विचार किया जाना चाहिए इस बात पर भी विस्तार से बताया।

    http://www.pravakta.com/story/8047

    पश्चिमी विज्ञान भी अब यह स्वीकारने लगा है कि भारतीय जीवन प्रतीको में दम है. एक दौर में पश्चिमी देशों के लोग भारत को सपेरों व जादूगरों के देश के रूप में पहचानते थे। धर्म व अध्यात्म के रस में लिपटे प्रतीकों को वे उपहास की वस्तु समझते थे। पर अब चीजें बदल रही हैं. वे हमारे अध्यात्म की तरफ उन्मुख हो रहे हैं. हाल ही में अमेरिका के रिसर्च ऐंड एक्सपेरीमेंटल इंस्टीट्यूट आॅफ न्यूरो साइंसेज के वैज्ञानिकों ने ऊँ के उच्चारण से शरीर में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया और पाया कि इसके नियमित प्रयोग से अनेक असाध्य रोग दूर हो गए।......अब जरुरत है कि हम भी अपनी संस्कृति को समझें और पश्चिम कि तरफ मुँह करके देखने की बजाय खुद के अन्दर झांकें !!

    http://kkyadav.blogspot.com/2010/07/blog-post_08.html

    It is said that Ayurvedic (The oldest Vedic scripts that refer to Medicine and part of Vedic Resources) medicine associates nostril's piercing location with the female reproductive organs. Ayuveda, states that Nose too linked with the female reproductive organs; accordingly the nose piercing is supposed to make childbirth easier and lessen period pain during women's natural menstrual couse and periods.

    http://my2010ideas.blogspot.com/search/label/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%AB%E0%A4%BF%E0%A4%95%20%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%20%3A%20%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%95%20%E0%A4%9B%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE

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  50. *स्त्रियां न पहले सुरक्षित थीं न अब। मगर अपने साथ हुए को ज़ाहिर करने की हिम्मत उनमें कहां से आयी ? अगर वे ज़ाहिर न करतीं तो क्या हम इस दिशा मे कुछ कर रहे थे !? सोच रहे थे !? इस दिशा में सोचने वाले, पहल करने वाले हमारे यहां के पुरुष भी वही थे जिनपर हम पश्चिम से प्रभावित होने का या भटके हुए होने का आरोप लगाते रहे। आज मन्नू जी अपनी बात कह रहीं हैं तो उसके लिए स्पेस बनाने का बहुत बड़ा क्रेडिट यादव जी को जाता है न कि उनके विरोधियों को। जब पश्चिम से या बाहर कहीं से कोई विचार या बदलाव आता है तभी हमें क्यों याद आता है कि अरे! यह तो हमारी संस्कृति में भी हैं! जब लोग वैलेंटाइन मनाना शुरु कर देते है तभी हमें क्यों याद आता है कि वसंत भी तो होता है।
    *कल तक जो बातें विक्षिप्तता लगतीं थीं आज सामान्य मानी जातीं हैं। मुझे आपकी बातें, आदतें, हरकतें विक्षिप्तता लग सकतीं हैं आपको मेरी। कल तक वह आदमी एक झटके में विक्षिप्त करार दे दिया जाता था जो भीड़ से अलग कुछ करता था, आज ऐसा नहीं है।
    *आपने ठीक कहा कि यहां दोनो पक्ष नहीं बताए जाते। मसलन ज़्यादातर लोग ठीक से नास्तिकता के बारे में नहीं जानते, आज भी स्त्री-मुक्ति बहुत से लोगों के लिए हंसने की चीज़ है, अविवाहित आदमी अजूबा है, लिव-इन फ़िल्मी बात है, सोचने वाला आदमी अजीब है, वर्णवाद का विरोध विचित्र हैं.....आदि-आदि। मैं सहमत हूं।
    *आपने युवाओं में जानकारी के स्तर की जो बात की है मैं उससे कतई सहमत नहीं। आज का युवा आज से दस साल पहले के युवा की तुलना में कई गुना ज़्यादा जानकारियां रखता है। हां , मेरा यह ज़रुर मानना है कि जानकारियों/सूचनाओं के एकत्रीकरण की क्षमता को बौद्धिकता या वैचारिकता से जोड़कर देखना ठीक नहीं। किसीको पांच सौ भाषाएं आतीं हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बहुत बड़ा विचारक होगा। जैसे किसी को रेलवे का टाइम टेबल रटा रहता है वैसे ही किसी को पचास साहित्यकारों की जीवनियां या संस्मरण रटे हो सकते हैं।
    *अगर विश्व शक्ति बनना इतनी ही महान बात है तो आप दूसरे देशों को इससे रोकना क्यों चाहते हैं !? जो भावना हमारे लिए महानता का दर्ज़ा रखतीं है, दूसरों के लिए नीचता क्योकर हो जाएगी !? उनकी भी अपनी नीतियां हो सकतीं हैं। नीति कोई भी हो मकसद तो विश्व-शक्ति बनना ही है ना !
    अब कृपया मुझे कुछ समय के लिए विराम (युद्ध-विराम नहीं) दें।

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  51. @अब कृपया मुझे कुछ समय के लिए विराम (युद्ध-विराम नहीं) दें।

    ठीक है, थोडा विराम लेते हैं

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  52. अगर आपको समय मिले तो मेरे ब्लॉग http://www.sirfiraa.blogspot.com और http://www.rksirfiraa.blogspot.comपर अपने ब्लॉग का "सहयोगियों की ब्लॉग सूची" और "मेरे मित्रों के ब्लॉग" कालम में अवलोकन करें. सभी ब्लोग्गर लेखकों से विन्रम अनुरोध/सुझाव: अगर आप सभी भी अपने पंसदीदा ब्लोगों को अपने ब्लॉग पर एक कालम "सहयोगियों की ब्लॉग सूची" या "मेरे मित्रों के ब्लॉग" आदि के नाम से बनाकर दूसरों के ब्लोगों को प्रदर्शित करें तब अन्य ब्लॉग लेखक/पाठकों को इसकी जानकारी प्राप्त हो जाएगी कि-किस ब्लॉग लेखक ने अपने ब्लॉग पर क्या महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की है. इससे पाठकों की संख्या अधिक होगी और सभी ब्लॉग लेखक एक ब्लॉग परिवार के रूप में जुड़ सकेंगे. आप इस सन्दर्भ में अपने विचारों से अवगत कराने की कृपया करें. निष्पक्ष, निडर, अपराध विरोधी व आजाद विचारधारा वाला प्रकाशक, मुद्रक, संपादक, स्वतंत्र पत्रकार, कवि व लेखक रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" फ़ोन:9868262751, 9910350461 email: sirfiraa@gmail.com

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  53. हाँ ........ विराम लेने का फायदा हुआ और मैंने चर्चा पर दोबारा गौर किया और पाया की पूर्ण विराम लेने की आवश्यकता है ( इस चर्चा से .. मुझे )

    @स्त्रियां न पहले सुरक्षित थीं न अब। मगर अपने साथ हुए को ज़ाहिर करने की हिम्मत उनमें कहां से आयी ?

    मतलब आप मानते हैं की इसी आधुनिक कहे जाने वाले समाज में अन्याय बढ़ा .... इस हद तक की "जाहिर करने की नयी क्षमता" का जन्म हुआ होगा फिर तो बहुत कुछ है जो रिकोर्ड्स में नहीं है ..... है ना ??

    @अगर वे ज़ाहिर न करतीं तो क्या हम इस दिशा मे कुछ कर रहे थे !? सोच रहे थे !?

    प्रश्न ये भी तो है की जो हम कर रहे हैं वो दूरगामी नुक्सान पहुंचाएगा या फायदा ? मुझे तो नुकसान के आसार लग रहे हैं किसी भी विकसित देश के वास्तविक जीवन चित्र पर नजर डाल लीजिये ..सब दोबारा भारतीय जीवन शैली का रुख कर रहे हैं ...उपर कमेन्ट में सब बता चुका हूँ

    @आज मन्नू जी अपनी बात कह रहीं हैं तो उसके लिए स्पेस बनाने का बहुत बड़ा क्रेडिट यादव जी को जाता है न कि उनके विरोधियों को

    मेरी और से कोई कमेन्ट नहीं

    @जब पश्चिम से या बाहर कहीं से कोई विचार या बदलाव आता है तभी हमें क्यों याद आता है कि अरे! यह तो हमारी संस्कृति में भी हैं! जब लोग वैलेंटाइन मनाना शुरु कर देते है तभी हमें क्यों याद आता है कि वसंत भी तो होता है।

    ये सबसे ख़ास बात कही है आपने .. बड़ा तार्किक पॉइंट है .. मेरी ओर से उत्तर है अगले कमेन्ट में


    @ कल तक जो बातें विक्षिप्तता लगतीं थीं आज सामान्य मानी जातीं हैं। मुझे आपकी बातें, आदतें, हरकतें विक्षिप्तता लग सकतीं हैं आपको मेरी। कल तक वह आदमी एक झटके में विक्षिप्त करार दे दिया जाता था जो भीड़ से अलग कुछ करता था, आज ऐसा नहीं है

    अब यही बात खाप पंचायतों के विषय में भी सोचिये ...... मेरी तो समझ के बाहर है


    @ आपने ठीक कहा कि यहां दोनो पक्ष नहीं बताए जाते। मसलन ज़्यादातर लोग ठीक से नास्तिकता के बारे में नहीं जानते, आज भी स्त्री-मुक्ति बहुत से लोगों के लिए हंसने की चीज़ है, अविवाहित आदमी अजूबा है, लिव-इन फ़िल्मी बात है, सोचने वाला आदमी अजीब है, वर्णवाद का विरोध विचित्र हैं.....आदि-आदि। मैं सहमत हूं।

    कोई कांसेप्ट हास्यापद नहीं होता उसके फोलोवर्स उसे ऐसा बनाते हैं ....मसलन .....अगर कथित स्त्री मुक्ति के नाम पर मैं अधूरी जानकारी के आधार पर पोस्ट बना बना कर हर बात को स्त्री मुक्ति का जामा पहनाने की कोशिश करूँ तो इससे बेहतर है मैं कोई और काम करूँ ..... दोनों पक्षों से मेरा इशारा इस ओर नहीं था .. आप तो किसी भी व्यक्ति के बचपन से देखिये क्या कोई ऐसे नास्तिक माता पिता हैं जो अपने बच्चे को गीता और रामायण और आयुर्वेद पढने को देते हैं (अपना ओपिनियन मिलाये बिना ) ? अगर ऐसा है तो उनसे मुझे कोई शिकायत नहीं .. ये इमानदारी से लिया जाने वाला टेस्ट है

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  54. @ आपने युवाओं में जानकारी के स्तर की जो बात की है मैं उससे कतई सहमत नहीं। आज का युवा आज से दस साल पहले के युवा की तुलना में कई गुना ज़्यादा जानकारियां रखता है।

    अब मुझे युवा होने का इतना बेनिफिट तो दीजिये ..... वैसे भी मेरे ओबजर्वेशन कसौटी पर कसे हुए होते हैं .. गलत नहीं हो सकते .... यकीन कीजिये

    @ जैसे किसी को रेलवे का टाइम टेबल रटा रहता है वैसे ही किसी को पचास साहित्यकारों की जीवनियां या संस्मरण रटे हो सकते हैं।

    रट कर ज्ञान बांटने वाले आस्तिकों पर भी मैं काफी कुछ कह चुका हूँ

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  55. @अगर विश्व शक्ति बनना इतनी ही महान बात है तो आप दूसरे देशों को इससे रोकना क्यों चाहते हैं !?

    चलिए आपने ये तो मान लिया की इतिहास में दम है..... मेरा काम पूरा हुआ ...... आपके इस प्रश्न का उत्तर किसी भी सामान्य देश वासी से पूछ लीजियेगा या मेरा कमेन्ट दोबारा पढ़िए ......हो सकता है उत्तर उसी में कहीं हो

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  56. @जब पश्चिम से या बाहर कहीं से कोई विचार या बदलाव आता है तभी हमें क्यों याद आता है कि अरे! यह तो हमारी संस्कृति में भी हैं! जब लोग वैलेंटाइन मनाना शुरु कर देते है तभी हमें क्यों याद आता है कि वसंत भी तो होता है।

    १. जिसे अपनी संस्कृति का ठीक से ज्ञान ना हो ऐसा कोई भी व्यक्ति दुसरे की संस्कृति अपनाए , उसका फेवर करे ये हास्यापद है ..

    २. हमारी संस्कृति में हर त्यौहार के पीछे कोई लोजिक था (स्वास्थ्य से जुडा हुआ, वही धुरी जो मैं पिछले कमेंट्स में बताई है )
    जब घर में खाना मिल रहा है तो किसी होटल में बना खाना (पता नहीं किसने बनाया हो, कैसे बनाया हो) क्यों खाना है? घर के बारे में क्यों ना सोचा जाये ?

    वसंत वाली बात से याद आया ..... पूर्वजों को सारी व्यवस्था की तो है संस्कृति में ......मुझे तो गर्व है ऐसे दूरदर्शी पूर्वजों पर और सहानुभूति जानकारी के अभाव में दूसरी संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं से ....(आप सब मेरे ही भाई बहन हैं )

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  57. इस पोस्ट पर संभवतया अंतिम बात

    मेरे प्रिय नास्तिक भाई बहनों,
    आपकी भावनाओं को समझना मुश्किल नहीं है हर आस्तिक का मन कभी ना कभी तो नास्तिक होता ही होगा ना ?
    मैं आपका ही भाई हूँ .. आप सब मेरा परिवार हैं .....बस इसीलिए चिंता है ,मैं बस इतना कहूँगा ....... आप चाहे इश्वर के अस्तित्व पर यकीन ना रखें पर प्लीज अपनी संस्कृति का महत्व तो समझें ..... हम विश्व की सबसे समृद्द संस्कृति के स्वामी और उत्तराधिकारी हैं ...... ना जाने कितनी संस्कृतियाँ संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं ...क्या बात है की हस्ती मिटनी नहीं हमारी ...... थोडा चिंतन अवश्य कीजियेगा

    ~~~~~~~~~~~~~~~~शुभकामनाएं~~~~~~~~~~~~~~~~~

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  58. *जब सभी भारतीय जीवन शैली की तरफ़ रुख कर रहे हैं तो फ़िर परेशानी क्या है ? आपको तो निश्चिंत और ख़ुश रहना चाहिए। जो भारतीय पश्विम की तरफ़ रुख कर रहे हैं वही पश्चिम आपकी जानकारी अनुसार भारतीयता के पीछे आ रहा है तो ज़ाहिर कि अंततः भारतीय भी वाया पश्चिम होते हुए भारतीयता की ओर आ रहा है। तो फिर आपके लिए तो कोई समस्या होनी ही नहीं चाहिए।
    *निश्चय ही ढेरों रिकार्डस् आॅफ द रिकार्ड हैं, आपने बिलकुल ठीक कहा। उसकी एक वजह मैं आपको बताता हूं। मन्नू जी और यादव जी का मामला ही लीजिए। उनकी जान को ढेरों लोग लग गए और उनकी व्यक्तिगत जानकारियां निकाल-निकालकर उनसे खेलने लगे। अब यादव जी इतने आदमी/जासूस कहां से लाएं जो हज़ार विरोधियों की घरेलू जानकारियां निकाल-निकालकर सार्वजनिक कर दें !? (वैसे मन्नूजी न होतीं तो यादवजी के विरोधियों के पास बहुत कुछ बचता नहीं था, वे लाॅटरी की तरह उनके हाथ लगीं।) यादवजी पर ऐसा संसदीय शोर मचा कि ढेरों रिकाॅर्डस् आॅफ द रिर्काड बने रहे होंगे। मगर कब तक !?
    *आपने कहा कि आप युवा हैं मैंने मान लिया, बेनीफिट लीजिए। मगर और भी युवा हैं देश में, वे भी बेनीफिट लेना चाहते हैं, भले उनके विचार आपसे न मिलते हों।
    *जहां तक संस्कृति की बात है मैं उसे पूरब-पश्चिम में बांटकर देखता ही नहीं, वह एक ख़ास संदर्भ में आपकी बात का जवाब था। जहां का जो अच्छा, मानवीय, तार्किक और विवेकपूर्ण है, है। उसमें कैसा विभाजन ? उससे सिर्फ़ इसलिए नफ़रत क्यों कि वह हमारा नहीं है !?
    *कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी....जिसको अपनी संस्कृति पर सचमुच विश्वास होगा वो इतना परेशान क्यों होगा ? अपनी संस्कृति पर, अपने लोगों पर भरोसा कीजिए।
    *आप नास्तिकों की भावनाओं को महत्व दे रहे हैं, राहत की बात है। आपके पूर्ण विराम की दशा में मैं भी लंबी छुट्टी पर जा रहा हूं।

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  59. पर अगर इश्वर नहीं होता तो आप को मोहल्लों के दादाओं की निरंकुशता से कौन बचाता ?? इतनी से बात अनीश्वरवादियों को समझ मे क्यूँ नहीं आती है की इश्वर ही इस संसार में नैतिकता का कारन है |

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  60. Sir,mai apni ye samashya badi ummed ke saath apse share kar raha hun .kripya iska jawaab avashya dein.
    apke lekh padh kar mai poorntya naastik ban gaya.
    lekin mere jaisa manovigyan me ruchi rakhne wale ke saath bhi aisa ho sakta hai mai soch nahi sakta tha.aastik se naastik banna shayad apko bachcho ka khel lagta hoga lekin sirf itna kahna chahunga pagal hone jaisi isthti ho gayee thi.dil dhadkne laga ,haath pair kaampne lage,baar baar dimaag ko doosri taraf lagane ki koshish karta lekin dimaag ghoomne laga tha.bas paagal hi nahi hua tha.is ghatna ke baad sab kuch rookha rookha lagta tha.yadi mere akele ke saath hota to shayad mai khud ko kamjor samajh kar chup rahta.bilkul aisi ishthti mujhse do din pahle astik se nastik banne wale ke huyee thi.maine use kamjor dil ka samjh kar doctoro jaisi salaah bhi de daali ki ardhchetan mann me jame vishwaas wala karan hai.sakratmak socho theek ho jaoge.aur mujhe nahi lagta tha mere jaise zindadil insaan ke kabhi ye samashya aa sakti hai.karan sirf itna tha lagataar aastik aur naastik ke beech 7 din bahas chalti rahi.sawaalo aur jawaabo me ulajh gaye aur hum apke lekhon ke sahaare jitte bhi chale gaye.kyunki sirf hum do logo ne apki baate dimaag ke saath saath dil se apnane ki sochi thi.lekin ab kuch theek hai.lekin dimaag me nakraatmak vichaar bhar gaye hain.atmvishwaas kamjor pad gaya hai.dimaag sirf is aastikta aur naastikta ke beech fans kar rah gaya hai.baar baar alag sochne ki koshish karta hun lekin har jagah bhagwaan ke chache sunne ko milte hai fir dimaag wahin chala jata hai.mai khud nahi samajh paa raha hun wo sab kyun aur kaise hua tha.sirf bahas karne ke karan???
    kirpya mujhe kuch achchi salaah dein .main apka bahut abhaari rahunga.


    hum aaj bhi naastik hai.lekin kya ye samashya age bhi aa sakti hai.aur aage naa aye iske liye kya karein.
    ummed karta hun aap meri madad karenge.
    Dhanyawaad.

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  61. मनीष जी, आपके कमेंट को पढ़कर एकबारगी तो मैं इतना डर गया कि सोचा आस्तिक हो जाउं। फिर सोचा कि क्या डर किसी बात को मानने का उचित कारण हो सकता है !?
    आपने दिल धड़कने, हाथ-पैर कांपने और पागल होने की स्थिति तक पहुंच जाने की बात की है। सोचता हूं कि कलको कोई मेरे सीने पर चाकू रख दे तो हो सकता है कि मेरा पूरा शरीर ही कांपने लगे। मगर यह तो मुझे ही अपनी समझ से तय करना होगा कि मनोरोगी कौन है, मैं या छुरेवाला ?
    और मैं समझता हूं कि वे लोग तो अपने प्रति बहुत ही जागरुक, ईमानदार और साहसी लोग होते हैं जो अपने मनोरोगों को ठीक से जानते हैं और उन्हें सार्वजनिक रुप से स्वीकार करने का साहस भी रखते हैं। वरना तो कितने ही लोग हैं जो ख़ुद मनोरोगों से ग्रस्त होते हैं मगर ज़िंदगी-भर दूसरों को पागल समझकर सताया करते हैं। अगर आपका मनोविज्ञान से लगाव है और विशेषकर व्यवहारिक रुप से भी लोगों को इस दृष्टि से ऑबज़र्व करते रहते हैं तो जानते होंगे कि इस दुनिया में मनोविकार रहित व्यक्ति ढूंढना मुश्किल है।
    यह कोई ‘मनोचिकित्सक की सलाह’ जैसा कॉलम तो है नहीं ना ही मैं कोई मनोचिकित्सा-विशेषज्ञ हूं, सो इतना ही कह सकता हूं कि आपको ज़्यादा ही डर लगता है तो फिर से आस्तिक हो जाईए। (बाक़ी, इस संदर्भ में इस ब्लॉग की सदस्य और हमारी मित्र लवली गोस्वामी, चाहें ता, आपकी मदद कर सकतीं हैं क्योकि वे इस विषय की विशेषज्ञ हैं।)
    इससे आगे यह भी कहना चाहूंगा कि यदि हम डर को ही चीज़ों के वैद्य या अवैद्य होने का आधार बनाएंगे तो इस दुनिया में शायद एक दिन चोरो, लुटेरों, डाकुओं आदि-आदि यानि कि जो भी हमें डराएगा, उसका राज होगा।
    जहां तक अंकित जी का प्रश्न है तो इस बात की कोई प्रामाणिकता नहीं कि ईश्वर किसीको बचाता है। इसलिए इसपर बात करने का कोई अर्थ नहीं लगता।

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  62. मित्रों आप सभी का प्रयास अपनी अपनी जगह सही प्रतीक होता है, व्यक्ति की आस्तिकता और नास्तिकता उसके निजी अनुभवों के आधार पर भी निर्भर करती है, निष्कर्ष पर पहुँच जाना यानी अपनी यात्रा को विराम दे देना... और मेरा मानना है की यात्रा तो लम्बी है जब तक जीना है यात्रा जारी रहे ... दोनों पक्ष तार्किक विश्लेषण के उपरांत भी निष्कर्ष पर नहीं जा सकते... ये लेखन और विश्लेषण सदियों से जारी है... अब तो धरम भी धर्मगुरुओं का दिखावा रह गया है.. पर २०११ तक देखें तो आने वाले समय में शायद विज्ञान धर्म को एक अनावश्यक तत्व बना देगा... आज किसी ईश्वर के नाम से व्यक्ति का मन अच्छा होता है तो बुरा ही क्या है, और नास्तिकता के नाम से यदि ये बुरे काम न करने का डार चला जाए तो क्या ? अपना अपना महत्व है. पर मेरी खोज ये कहती है की धर्म अपने अपने हिसाब से ढला है और ईश्वर अपने अपने हिसाब से रचा गया है...जिसे जैसा लगा अपना लिया ... अपने से ऊपर एक सत्ता स्वीकारने में कोई हर्ज़ नहीं ... इश्वर किसी डर का पर्याय तो हो ही नहीं सकता.. ईश्वर किसी मनुष्य में भी नहीं हो सकता ... और ना ही वो भौतिक स्वरुप होगा... मेरा माना है की प्रकृति ही ईश्वर है...खोज जारी रखें विराम ना दें मिलकर खोजें समय कम लगेगा ...

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  63. मान्यवर, आपके blog पर आकर मेरी सोच को एक विषेश बल
    प्राप्त हुआ, इसके लिये आप सभी का तहे दिल से आभार।
    संक्षेप में तो मैं यही कहूँगा कि ईश्वर डर अज्ञानता की अनैतिक
    संतान है।
    मैनें इस विषय पर कुछ तर्क पूर्ण कवितायें लिखी हैं। कृपया मेरे
    blog पर आकर पक्ष या प्रतिपक्ष में प्रतिक्रया देकर मुझे अनुग्रहीत
    करें।

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  64. This comment has been removed by the author.

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