दुनिया को समझने में
अपने हिसाब से
अपने रास्ते पर
चलने में
अपने लिए
अपने खयाल बुनने में
अपने विचारों को
अपनी ज़ुबान में
कहने में
अपनी मस्ती में
बहने
अपनी धुन में
रहने में
नहीं कोई दुविधा है....
मुझे सवाल पूछने
जवाब मांगने
तर्क करने
उंगली उठाने
सोचने समझने
गुत्थियां सुलझाने
अपने मानक
खुद तय करने
दोजख-नर्क के
भय के बिना
जीने और मरने
आवाज़ उठाने
और
तुम्हें मानने
या नकारने में
सुविधा है....
मेरे लिए
ज़ोर से हंस पड़ना
हर अतार्किक बात पर
व्यंग्य करना
तुम्हारे तथाकथित
अनदेखे
अप्रमाणित ईश्वरों पर
न जाना, न जताना
भरोसा
इन इबादत घरों पर
परमकृपालु ईश्वर
हमेशा मेहरबान खुदा
के नाम पर
तुम्हारे द्वारा
किए गए
अपमानों
दी गई गालियों
और हमलों का जवाब
मुस्कुराहट
से देना भी
एक कला है
विधा है.....
और हां
सच है तुम्हारा ये आरोप
ईश्वर के (न) होने
जितना ही
कि मैं
एक नास्तिक हूं.....
mailmayanksaxena@gmail.com
बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteसुंदर दमदार कविता।
ReplyDeleteमगर अंतिम पैरा देखें...
और हां
सच है तुम्हारा ये आरोप
ईश्वर के (न) होने
जितना ही
कि मैं
एक नास्तिक हूं.....
bahut khub
ReplyDeletebadhai aao ko is ke liye
दिनेश जी ...भूल सुधार ली गई है....
ReplyDeletewaah jordaar aur prabhaavshaali kavita
ReplyDelete"किसी धर्म/संप्रदाय विशेष को लक्ष्य करके लिखी गई टिप्पणियाँ हटा दी जाएँगी" thanks :)
ReplyDeleteMain bhi unhiN panktioN ko rekhaNkit karna chahuNga jinheN Dwivedi ji ne kiya hai :
ReplyDeleteऔर हां
सच है तुम्हारा ये आरोप
ईश्वर के (न) होने
जितना ही
कि मैं
एक नास्तिक हूं.....
क्या आप वास्तव में नास्तिक है?
ReplyDeleteनास्तिक होना क्या है?
क्या आप आस्तिक के विलोम में खडे है?
"जगत का रचनाकार सर्वशक्तिमान इश्वर है" इस बात को नहीं मानते?
सभी चेतन में जीव तत्व(आत्मा)है, नही मानते?
आप धर्म नहीं मानते,या धर्म जो आज पाखन्ड बना है उसे नहीं मानते ?
आप मानवीय गुणो को धारण करते है,यह मानव धर्म है। धर्म तो यह भी है।
नास्तिक होकर भी इन्सान अच्छा इन्सान हो सकता है,पर अच्छे बुरे के भेद का विवेक कहाँ से आता है?
जो मनस नास्तिक बनने की प्रेरणा करता है उसे यह स्वविवेक कहाँ से मिलता है, कौन है जो यह बुद्धि दोडाता है।
मुझे पता नहीं मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक,किन्तु ज्ञान पिपासु सदैव रहा हुं। कृपया समाधान करें।
ReplyDeleteकविता क्षणिक रूप से प्रभावित करती है,
किन्तु कहीं यह स्पष्ट न हो सका कि नास्तिकता का केन्द्र-बिन्दु कहाँ पर जाकर टिका है ?
.
हालांकि आप वरिष्ठ हैं अमर जी,
ReplyDeleteपर अनुरोध करूंगा कि एक बार फिर कविता पढ़ें....
कविता उस आस्तिकता पर चोट करती है जो किसी भी तरह के सवाल उठाने...तर्क करने और जिज्ञासाओं पर नाराज़गी जता कर उसे नास्तिकता या अविश्वास कर के खारिज कर देती है....
धर्म का...स्वर्ग और नर्क का...मृत्यु के बाद के जीवन का डर दिखाती है....अलग अलग इंसानों के लिए एक ही से मानक तय करती है....
उनके तथाकथित ईश्वरों को न मानने पर अपमान और गालियों से नवाजते हैं....
ये उन सबको जवाब है....
आप न समझ पाए तो यकीनन मेरी ही कमी है...पर कविता में अगर गद्य की तरह सबकुछ लिख दिया....तो फिर छुपे अर्थ का महत्व खत्म हो जाएगा....
श्री मयन्क जी,
ReplyDeleteआपने मेरे कुछ प्रश्नो के हल न दिये,कदाचित आप को सवाल बेमानी
लगे होंगे,अथवा कुछ और।
मेरी मन्सा विवेकपूर्ण नास्तिकता को समजने की थी। खेर्……
पर आपके अमरजी को दिये प्रत्युत्तर से एक प्रश्न…
आपके प्रत्युत्तर का अंश "जो किसी भी तरह के सवाल उठाने...तर्क करने और जिज्ञासाओं पर नाराज़गी जता कर उसे नास्तिकता या अविश्वास कर के खारिज कर देती है....
धर्म का...स्वर्ग और नर्क का...मृत्यु के बाद के जीवन का डर दिखाती है....अलग अलग इंसानों के लिए एक ही से मानक तय करती है....
उनके तथाकथित ईश्वरों को न मानने पर अपमान और गालियों से नवाजते हैं...."
प्रश्न: यदि किसी आस्तिक मान्यता में यह सब न हो तो ?
ऐसा कदापि नहीं है कि मैं आपके प्रश्नों का उत्तर नहीं चाहता....हां पर ज़ाहिर है इस पूरे विमर्श में लगने वाले समय का अंदाज़ लगा कर चुप साध गया....
ReplyDeleteऐसी कोई आस्तिक मान्यता हो ही नहीं सकती है, जहां किसी एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की बात न की जाए....अगर है तो मैं बिल्कुल जानना चाहूंगा...पर कृपया किसी बी तरह के धर्म प्रचार से मुजे दूर रखिएगा.....वैसे मैं अपनी नास्तिकता को लेकर पूरी तरह से आस्तिक हूं...
श्रद्धेय श्री मयंकजी,
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मयंकजी,आपने न्यून शब्दो में स्पष्ट कर दिया।
मेरा समाधान हो गया,मै आस्तिक भी हूँ और नास्तिक भी।
नास्तिक इसलिए....
मै भी एसे किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर को नहीं मानता जिसने इस जगत और पृकृती की रचना की व उसे चला रहा हैं।
और आस्तिक इसलिए (यहाँ आस्तिकता का अर्थ अस्तित्व पर विश्वास करना)कि....
सभी प्राणियों में एक आत्म-तत्व (जीव)है,जो स्वयं का कर्ता व भोक्ता है।(आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास)
एक आस्तिक मान्यता एसी भी है………
पर मैं दुविधा में हूँ,दर्शन की 'जानकारी' और 'धर्म प्रचार'में आपके दृष्टि अनुरूप भेद नहीं कर पा रहा।
निशंक,वहाँ तर्क, सोच, संशय को गरिमापूर्ण आदर है।जिज्ञासाओं पर अविश्वास नहीं समाधान होता है। धर्म का...स्वर्ग और नर्क का...मृत्यु के बाद के जीवन का डर नहीं बल्कि पाप (बुराई)क्यों बुरी है, पुण्य (अच्छाई)क्यों अच्छी है, केवल सूचित किया जाता है। फल अवश्य कुछ अविश्वासनीय से लगते है,पर तर्कपूर्ण। जहाँ कर्म के अनुसार प्रत्येक जीव के लिए अलग मानक है। बाकी जानकारी अगर आप चाहेंगे तो।
नई सोच,तथ्यपूर्ण जानकारी,विभिन्न दुष्टिकोण के लिए हमारे अंतर की एक खिड़की तो खुली रहनी चाहिए।(विनम्रता पूर्वक)
@ डा० अमर कुमार जी
ReplyDeleteमेरे विचार में जो टिक गया वो नास्तिक कैसा
नास्तिकता तो सतत रचनात्मकता है! निरंतरता है कोई गणितीय फार्मूला नहीं! या आस्था नहीं की कहीं टिक जाए और तस से मस ना हो! :) आप वरिष्ठ साथी ज्यादा बेहतर आकलन कर सकते हैं! ये मेरे अपने विचार की अभिवयक्ति मात्र है
कवि महोदय बधाई स्वीकारें बेहतरीन कविता के लिए
वाह, वाकई शानदार
ReplyDeletevivj2000.blogspot.com
sunder rachna.......
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteशेयरिंग ...
ReplyDeleteनास्तिक यानि असत्य का विरोधी अधर्म का विरोधी
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